गिलगमेश

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कीलनुमा अक्षरों में गीली ईंटों पर लिखा जलप्रलय वीरकाव्य गिलगमेश

गिलगमेश, प्राचीन सुमेरी वीरकाव्य और उसके नायक का नाम। गिलगमेश उस काव्य में जलप्रलय की कथा मनु और नूह के अग्रवर्ती अपने पूर्वज जिउसुद्दू के मुख में सुनता है कि किस प्रकार उसने प्रलय के अवसर पर जीवों के जोड़े अपनी नौकाओं में एकत्र कर उनकी रक्षा की थी। सुमेरी बाबुली परंपरा की वह कहानी गिलगमेश महाकाव्य में सुमेरी कीलनुमा अक्षरों में गीली ईंटों पर लिखी सातवीं सदी ई. पू. के असुर सम्राट् असुर बनिपाल के निनेवे के संग्रहालय से मिली है। जलप्रलय की कथा का नायक गिलगमेश का पूर्वज जिउसुद्दू है पर वीरकाव्य का नायक स्वयं गिलगमेश है। विद्वानों का मत है कि जलप्रलय 3200 ई. पू. के लगभग हुआ था और उसका पहला उल्लेख नुर निनसुबुर ने 1984 ई. पू. के लगभग कराया था।

परिचय[संपादित करें]

गिलगमेश, संसार का प्राचीनतम वीरकाव्य होने के अतिरिक्त, मानव जाति की संभवत: प्रथम पुस्तक है। इसमें गिलगमेश नाम के उरूक के अति प्राचीन राजा के वीरोचित कार्यो का वृत्तांत संरक्षित है। उस परंपरा से ज्ञात होता है कि गिलगमेश ने उरूक पर कई साल तक घेरा डालकर उसे जीता था। पश्चात् वह वहीं निरंकुश होकर शासन करने लगा और तब देवताओं को बाध्य होकर एंकि-दू नाम के अर्धमानव अर्धपशु को उसके संहार के लिए भेजना पड़ा। गिलगमेश ने उसको जीतने के लिए एक आकर्षक नारी भेजी जिसने अपने कल छल से उसे जीत लिया। उस नारी से प्रभावित होकर वह गिलगमेश के दरबार में आया और दोनों मित्र हो गए। फिर दोनों ने एक साथ अनेक नगरों की विजय की और एक भयानक दैत्य की खोज में रेगिस्तान, बीहड़ और जंगल पार करते हुए वे उत्तर पश्चिम गए जहां उस दैत्य का संहार कर उन्होंने उसका गढ़ जीत लिया।

गिलगमेश का यह वीरकाव्य प्राचीन बाबुली कथानकों और साहित्यिक रचनाओं में सबसे मधुर, सबसे सुंदर है और लोकप्रिय तो यह काव्य इतना हुआ कि जहाँ जहाँ कीलनुमा लिपि का प्रचार हुआ वहाँ वहाँ वह कथा भी प्रचलित हुई। इसका प्राचीनतम सुमेरी पाठ अभाग्यवश टूटी स्थिति में मिलता है परंतु उसके अनेक पश्चात्कालीन संस्करणों को मिलाकर डॉ॰ कैंपबेल-टामसन ने जो उसका समूचा पाठ प्रस्तुत किया है वह नीचे दिया जा रहा है। गिलगमेश वीरकाव्य 12 पट्टिकओं अथवा ईंटों पर लिखा हुआ मिला है।

पहली ईंट पर कथा का आरंभ होता है जिसमें गिलगमेश अर्ध पिशाच अर्ध मानुस पिता और देवी निन्सुन (लुगालबंदा की पत्नी) माता से उत्पन्न होकर अपनी प्रजा को निरंकुश शासन द्वारा पीड़ित करता है। उसकी उरूक की प्रजा तब रक्षा के लिए देवताओं से प्रार्थना करती है और देवता एंकि-दू नामक अद्भुत जीव को गिलगमेश के संहार के लिए भेजते हैं। पहले वह वन्य पशुओं के बीच आता है और उन्हीं में रमता है, यद्यपि उनकी तरह का वह नहीं है। रेगिस्तान के अहेरी तक गिलगमेश से उसके भयानक रूप का वर्णन करते हुए शिकायत करते हैं कि जब जब वे पशु पकड़ते हैं तब तब एंकि-दू जालगत जीवों को स्वतंत्र कर देता है। तब गिलगमेश उसके पास एक देवदासी भेजता है जो अपने हावभाव द्वारा उसे रिझाकर अपने वश में कर लेती है। दूसरी ईंट का पाठ है कि एंकि-दू को देवदासी रोटी खाना और सुरा पीना सिखाती है और उसे सभ्य बनाकर वह गिलगमेश के दरबार मेें ले जाती है जहाँ दोनों पहले द्वंद्व युद्ध करते हैं फिर एक दूसरे की शक्ति से प्रभावित होकर परस्पर आजीवन मैत्री के सूत्र में बँध जाते हैं। तीसरी ईंट के वृत्तांत के अनुसार दोनों मित्र सीरिया या लेवनान की ओर घने जंगलों के आक्रमण को जाते हैं। देवदारों के उस वन की हुवावा (या हुम्बाबा) नाम का भयानक दैत्य रक्षा करता है जिसकी गरज आँधी की तरह है, जिसका मुँह आग की लपटों की तरह है और जिसकी साँसमौत की साँस है। एंकि-दू उस भीषण दैत्य की बात सुनकर डर जाता है पर गिलगमेश उसे उत्साहित करता है और उरूक के वयोवृद्धों की चेतावनी की परवाह न कर दोनों दैत्य की खोज में निकल पड़ते हैं। चौथी ईंट में उनके राह के संकट झेलते देवदारों के वन तक पहुँच जाने का वृत्तांत है और पाँचवें में गिलगमेश अनेक स्वप्नों द्वारा आक्रांत होता है जिनकी व्याख्या एंकि-दू दैतत्य हुवावा (हउआ?) के नाश की ओर संकेत द्वारा करता है। गिलगमेश पर कृपा कर तब सूर्य दैत्य के विरूद्ध अपने आठ पवन भेजता है और गिलगमेश अंत में दैत्य का सिर काट लेता है। छठी ईंट के अनुसार दोनों विजयी वीर उरूक लौटते हैं। देवी इनिन्ना अब गिलगमेश के प्रति अपना प्रेम व्यक्त करती है पर वह उसके पूर्वप्रेमियों के नाश की कथा की ओर संकेत कर उसका प्रणय अस्वीकार कर देता है। तब देवी खीझकर अपने पिता देवता अन से गिलगमेश के संहार के लिए दैवी साँड़ की सृष्टि के अर्थ प्रार्थना करती है। देवता साँड़ सिरज देता है जिसके गिलगमेश के नगर में आने से नागरिकों पर त्रास छा जाता है। अंत में एंकि-दू उसकी सींग पकड़कर उसे पटक देता है, फिर दोनों मित्र उसे मार डालते हैं और उसकी सींग काटकर लुगालबंदा के मंदिर में टाँग देते हैं। इस महान कृत्य के उपलक्ष्य में एक असाधारण भोज का आयेजन होता है पर रात एंकि-दू के लिये भयानक सपनों से भरी होती है।

सातवीं ईंट के अनुसार एंकि-दू सपने में देखता है कि देवता अपनी सभा में निश्चय करते हैं कि साँड़ के वध के फलस्वरूप उसे मार डाला जाए और एंकि-दू जागकर अपने भाग्य को कोसने लगता है कि क्यों वह गिलगमेश की भेजी रमणी के चक्कर में फँसा, क्यों उसने सादे रेगिस्तान का सुखी जीवन छोड़ मानवों की खतरे की दुनियाँ में प्रवेश किया? फिर सूर्यदेव की भर्त्सना के बाद वह उस नारी को आशीर्वाद देता हैे। आठवीं ईंट के वृत्तांत में गिलगमेश अपने मरणासन्न मित्र का परितोष करता है। परंतु एंकि-दू की शक्ति निरंतर घटती जाती है और धीरे धीरे उसके प्राण निकल जाते हैं। गिलगमेश तब उसकी मृत्यु पर विलाप करता है और उसे मिट्टी से ढककर दफना देता है। स्वयं गिलगमेश को एक दिन अपने संबंध में भी घटनेवाली मृत्यु का सहसा डर हो आता है और वह जलप्रलय के वीर नायक अपने पुर्वज जिउसुद्दू की खोज में चल पड़ता है जिससे वह अमरता का भेद उससे ले ले। नवीं ईंट के वृत्तांत में उसकी इसी यात्रा का वर्णन है। अनेक जीवों द्वारा रक्षित भीषण पर्वतों की यात्रा संपन्न कर वह समुद्र की गहराइयों में रहनेवाली देवी से मिलता है जिसके प्रति दसवीं ईंट के अनुसार वह अपनी पिछली यात्रा का वर्णन करता है। देवी अमरता की उसकी खोज की बात सुन उसे घर लौट जाने और मानव का अपेक्षित जीवन व्यतीत करने को उत्साहित करती है पर गिलगमेश उसका कहना न सुन आगे बढ़ जाता है और मृत्यु के समुद्र में नाव चलाने वाले नाविक से जा मिलता है। नाव और पाल तोड़ देने की धमकी से डरकर नाविक अंत में गिलगमेंश को मृत्युसागर के पार जाकर उसके पूर्वज जिउसुद्दू के समक्ष खड़ा कर देता है। जिउसुद्दू उसे देख विस्मित होता है और गिलगमेश उससे अमरता का मंत्र पूछता है। आगे, 11वीं ईंट की कहानी में उस जलप्रलय का वर्णन है, उस वीरकाव्य के भीतर के वीरकाव्य का, जिसके नायक का कार्य स्वयं जिउसुद्दू ने किया था। जिउसुद्दू तब उसे सागर के तल में उगनेवाले अमरतादायक ओषधि का भेद बताता है और गिलगमेश समुद्र के तल तक पैठ औषधि उखाड़ लाता है। नाविक तब उसे मर्त्यों के जगत् में लौटा लाता है और गिलगमेश स्नान के लिए एक तालाब के तट पर आ खड़ा होता है। स्नान करते समय एक साँप ओषधि की गंध से प्रभावित हो उसे ले भागता है और तालाब में प्रवेश कर अपनी पुरानी केंचुल छोड़ नवीनतम धारण कर लेता है। तब गिलगमेश इस नए संकट से आहत विलाप करने लगता है और उसकी आँखों से आँसू बह चलते हैं। वीरकाव्य का वस्तुत: यहीं अंत हो जाता है, यद्यपि एक ईंट, 12वीं, का वृत्तांत उसका उपसंहार प्रस्तुत करता है जो संभवत: पीछे जोड़ा गया है। इसकी कथा के अनुसार वृद्ध और अत्यंत दुखी गिलगमेश मृत्युपरांत मनुष्य की दशा जानने के लिए देवता नेर्गल की सहायता से पाताल लोक जाता है। वहां वह अपने मित्र एंकि-दू के प्रेत से मिलता है जो उसे प्रेत जीवन का रहस्य समझाता है। कहता है कि कब्र में दफनादिए जाने के बाद कीड़े वस्त्र की भाँति तन को खा जाते हैं और प्रेत रात में सड़कों पर भटकता मल खाता और गंदा जल पीता फिरता है। जब उसके वंशज उसका श्राद्ध करते हैं, उसको पेय और आहार देते हैं तभी वह शांतिपूर्वक रह पाता है। काव्य का अंत नितांत दु:खमय है।

विद्वानों का अनुमान है कि इस वीरकाव्य का नायकगिलगमेश उरूक का ऐतिहासिक राजा था जिसने दक्षिणी बाबुल पर 3000 ई. पू. से कुछ ही पहले राज किया था, जलप्रलय के कुछ ही सौ वर्ष बाद। गिलगमेश काव्य की कहानी सुमेरी है, यद्यपि वह लिखी अक्कादी या सामी काल में गई और जहाँ जहाँ कीलनुमा लिपि का प्रचार हुआ वहाँ वहाँ की विदेशी भाषाओं में भी वह लिख ली गई। जलप्रलय की कथा इसी काव्य का एक अंश है।

सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

  • पैट्रिक कार्लटन : बरीड एंपायर्स, लंदन, 1948 ;
  • भगवतशरण उपाध्याय : ऐंशेंट वर्ल्ड, हैदराबाद, 1954

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]