क्वाण्टम उलझाव

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प्रमात्रा यान्त्रिकी में प्रमात्रा उलझाव उस स्थिति को कहतें हैं जब दो वस्तुओं के एक-दूसरे पर कोई भौतिक प्रभाव पड़ने के बाद उनको अलग करने पर भी उन दोनों की परिस्थिति में एक प्रमात्रा सम्बन्ध रहता है। यदि एक वस्तु के किसी क्वाण्टम गुण को मापा जाए तो दूसरी वस्तु उसी क्षण उस से विपरीत गुण धारण कर लेती है। मसलन अगर दो विद्युत अणुओं (इलेक्ट्रॉनों) में प्रमात्रा उलझाव पैदा कर के उन्हें एक-दूसरे से मीलो दूर कर दिया जाए और फिर उनमें से एक का स्पिन (घूर्णन) मापा जाए तो दूसरे का स्पिन उसी क्षण उसका विपरीत हो जाएगा। विज्ञान यह साबित कर चुका है के किसी विद्युत अणु में तब तक स्पिन पक्का नहीं होता जब तक मापा जाए। इसका अर्थ यह हुआ के किसी अज्ञात प्रक्रिया के ज़रिये दूसरे विद्युत अणु को ज्ञात हो जाता है के पहले का स्पिन जाँचा गया है।

अन्य भाषाओँ में[संपादित करें]

अंग्रेज़ी में "प्रमात्रा यान्त्रिकी" को "क्वाण्टम मॅकैनिक्स" (quantum mechanics) और "प्रमात्रा उलझाव" को "क्वाण्टम ऍन्टैन्गलमॅन्ट" (quantum entanglement) कहते हैं।

आइंस्टाइन और प्रमात्रा उलझाव[संपादित करें]

हालाँकि प्रमात्रा उलझाव का सिद्धांत सबसे पहले अल्बर्ट आइंस्टीन ने कुछ अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर ही निकला था, फिर भी इन वस्तुओं के बीच में ऐसे जादूई से लगने वाले सम्पर्क को वह कभी भी स्वीकार नहीं कर पाए और इस सिद्धांत को ग़लत साबित करने की कोशिश में जुटे रहे। वे ग़ुस्से से प्रमात्रा उलझाव को "दूर से हो रही भूतिया हरकत" (जर्मन: spukhafte Fernwirkung, अंग्रेज़ी: spooky action at a distance) का नाम देते थे।[1] उन्होंने अपने सापेक्षता सिद्धांत में दावा किया था के कोई भी चीज़ प्रकाश की गति से तेज़ नहीं चल सकती और इस क्षणिक सम्पर्क को वह मान नहीं पाए। उनका प्रयास असफल रहा और वैज्ञानिक प्रयोगों ने प्रमात्रा उलझाव के सिद्धांत को सही साबित कर दिया है। ध्यान रहे के इस सिद्धांत के ज़रिये कोई वस्तु एक स्थान से दूसरे स्थान नहीं भेजी जा सकती और न ही कोई सन्देश भेजा जा सकता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Letter from Einstein to Max Born, 3 मार्च 1947. A. Einstein, The Born-Einstein Letters; Correspondence between Albert Einstein and Max and Hedwig Born from 1916 to 1955, Walker, New York, 1971. (cited in Quantum Entanglement and Communication Complexity (1998) Archived 2012-10-08 at the वेबैक मशीन, by M. P. Hobson et. al., p.1/13)