क़सीदा बरदा शरीफ़
मान्य सूफ़ी कवि इमाम बुसीरी (1211 -1294) द्वारा रचित काव्य शब्द क़सीदा बरदा शरीफ़ (अरबी: قصيدة البردة) जो इस्लामी दुनिया में अत्यंत प्रसिद्ध है।
परिचय
[संपादित करें]सूफ़ीवाद के मानने वाले मुस्लमानों ने शुरू ही से इस काव्य शब्द को बेहद इज़्ज़त और सम्मान दी। इस काव्य शब्द को सुरक्षित किया जाता है और धार्मिक मजालिस व समारोहों में पढ़ा जाता है और इस के अशआर अवामी शौहरत की हामिल इमारतों में मस्जिदों में ख़ूबसूरत ख़त्ताती में लिखे जाते हैं। कुछ मुस्लमानों का ये भी मानना है कि अगर क़सीदा बुरदा शरीफ़ सच्ची मुहब्बत और अक़ीदत के साथ पढ़ा जाये तो ये बीमारीयों से बचाता है और दलों को पाक करता है। अब तक इस काव्य शब्द की 90 से ज़्यादा तशरीहात तहरीर की जा चुकी हैं और इसके अनुवाद फ़ारसी, उर्दू, तुर्की, बर्बर, पंजाबी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, जर्मन, सिंधी और अन्य भाषाओं में किए जा चुके हैं।
पाठ
[संपादित करें]مولاي صلــــي وسلــــم دائمـــاً أبــــدا
علـــى حبيبــــك خيــر الخلق كلهـم
أمن تذكــــــر جيــــــرانٍ بذى ســــــلم
مزجت دمعا جَرَى من مقلةٍ بـــــدم
َمْ هبَّــــت الريـــــحُ مِنْ تلقاءِ كاظمــةٍ
وأَومض البرق في الظَّلْماءِ من إِضم
فما لعينيك إن قلت اكْفُفاهمتـــــــــــــــا
وما لقلبك إن قلت استفق يهـــــــــم
أيحسب الصب أن الحب منكتـــــــــــم
ما بين منسجم منه ومضطــــــــرم
لولا الهوى لم ترق دمعاً على طـــــللٍ
ولا أرقت لذكر البانِ والعلــــــــــمِ
فكيف تنكر حباً بعد ما شـــــــــــــهدت
به عليك عدول الدمع والســـــــــقمِ
وأثبت الوجد خطَّيْ عبرةٍ وضــــــــنى
مثل البهار على خديك والعنــــــــم
نعم سرى طيف من أهوى فأرقنـــــــي
والحب يعترض اللذات بالألــــــــمِ
يا لائمي في الهوى العذري معـــــذرة
مني إليك ولو أنصفت لم تلــــــــــمِ
عدتك حالي لا سري بمســــــــــــــتتر
عن الوشاة ولا دائي بمنحســـــــــم
محضتني النصح لكن لست أســـــمعهُ
إن المحب عن العذال في صــــــممِ
إنى اتهمت نصيح الشيب في عـــــذلي
والشيب أبعد في نصح عن التهـــتـمِ
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