कसुमलगढ़

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इतिहास[संपादित करें]

कसुम्बी गावँ का इतिहास बहुत पूराना है जिसका पता गाँव की उत्तर दिशा में स्थित पुरातात्विक महत्व की बहोत ही सुन्दर व् कलात्मक चित्रकारी वाली प्राचीन बावड़ी से चलता है। जिसे लगभग 700 वर्ष से ज्यादा पुराना माना जाता हैंI गाँव कसूम्बी का पुराना नाम कसुमल था,कसुमल एक धास का नाम हैं जिस से केशरिया रंग बनाकर रंगरेज कपड़ो की रंगाई करते थे। उसी से इसका नाम पड़ा। वर्तमान कसूम्बी गाँव की स्थापना ठा. नारायण सिहं जी ने की थी l वो अपने पुस्तेनी गावं कांगस्या टाणंलाऊ से उत्तराधिकार की लड़ाई से जुझते हुये 1827 में अपने कुछ राजपूत साथीयों के साथ कसुम्बी आ गये। यहाँ पहले चारण जाती के लोग रहते थे फिर उनको यहाँ से हटाकर बिदावत रहने लगे। ठाकुर नारायण सिंह जी के आने के बाद बिदावत यहाँ से छोड़कर पास के हि मिगंणा गाँव चले गये। कसुम्बी गाँव जोधपुर रियासत के अधीन आता था। ठाकुर साब को जोधपुर रियासत से कसुम्बी गावँ का पट्टा मिला जिसके अन्तर्गत 18000 बीघा भूमि आती थी, यहाँ से ही कसुम्बी में राठौङ परिवार की नींव पड़ी। कसुमल गढ़ : कसुम्बी जाखला में स्थित गढ़ की स्थापना 1841 में बसन्त पंचमी के दिन की गई थी। इशर गणगौर की सवारी कसुमल गढ़ से निकाली जाती है। ठाकुर जी महाराज : नारायण सिंह जी के पुत्र मंगल सिहं जी ने कसुम्बी जाखला के ठाकुर जी महाराज के मन्दिर का निर्माण करवाया था। बबुता सिद्ध जी महाराज : प्रसिद्ध धाम श्री बबुता सिद्ध जी महाराज के मन्दिर की स्थापना ठाकुर रधुनाथ सिहं जी ने की थी , ठाकुर साहब ये धाम कालानाडी से लेकर आये थे। ठाकुर साहब साँप के काटने पर झाड़ा लगाते थे, एक बार स्वपन में बबुता सिद्ध ने दर्शन दिये तथा मन्दिर की स्थापना करने का संकेत दिया जिसके बाद मन्दिर की स्थापना की गई। आज भी यह मन्दिर लोगों की आस्था का केन्द्र है। ठाकुर साहब पाबुजी महाराज के भी भक्त थे I गढ़ के पास ही पाबूजी महाराज का छोटा सा मन्दिर है।

सन्दर्भ[संपादित करें]