इमाईल दुर्खीम
डेविड इमाईल दुर्खीम (Émile Durkheim ; फ्रेंच उच्चारण : [eˈmil dyʀˈkɛm]) (1858-1917) फ्रांस के महान समाजशास्त्री थे। कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वेबर के साथ वे भी आधुनिक समाज विज्ञान के मुख्य शिल्पी एवं समाजशास्त्र के जनक कहे जाते हैं।
परिचय
[संपादित करें]डेविड एमील दुर्ख़ाइम (1858-1917) को आधुनिक समाजशास्त्र का संस्थापक और समाज-वैज्ञानिक शब्दावली में दुनिया का पहला अधिकारिक समाजशास्त्री माना जाता है। अध्ययन की विश्वविद्यालयी व्यवस्था में वे समाजशास्त्र के पहले प्रोफ़ेसर भी थे। अपने अकादमिक जीवन के तीन दशकों में उन्होंने समाजशास्त्र को न केवल एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में स्थापित किया, बल्कि इस अनुशासन की सैद्धांतिक और पद्धतिगत जमीन भी तैयार की। दुर्ख़ाइम की समाजशास्त्रीय संकल्पना का विधेयक तत्त्व मनुष्य को सामाजिक संबंधों का परिणाम मानता है। इस कारण दुर्ख़ाइम का समाजशास्त्र अपने बुनियादी ढाँचे में व्यक्तिवाद के किसी भी रूप को मान्यता देने से इनकार करता है। मनुष्य की इयत्ता को समाज की उपज मानने के सन्दर्भ में दुर्ख़ाइम कॉम्त, मार्क्स, वेबर आदि सामाजिक चिंतकों के नज़दीक बैठते हैं। ग़ौरतलब है कि व्यक्ति को समाज का उत्पाद मानना और सामाजिक परिघटना को केंद्रीय महत्त्व देना ही समाजशास्त्र को अन्य अनुशासनों की तुलना में एक विशिष्ट स्वरूप प्रदान करता है। समाजशास्त्र की यह विशिष्टता दुर्ख़ाइम के बिना सम्भव नहीं थी। हालाँकि दुर्ख़ाइम ने मोंतेस्क्यू और रूसो जैसे विचारकों से लेकर व्यवहारवाद, समाजवाद तथा नैतिक शिक्षा जैसे मसलों पर भी सघन चिंतन किया है, परंतु समाजशास्त्र के क्षेत्र में उनकी चार रचनाओं— 'द डिवीज़न ऑफ़ लेबर', 'द रूल्स ऑफ़ सोसिओलॅजिकल मैथड', 'सुइसाइड' तथा 'द ऐलिमेंटरी फ़ॉर्म्स ऑफ़ द रिलीजस लाइफ़' को सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
डेविड एमील दुर्ख़ाइम का जन्म एपीनाल, लोरेन के एक फ़्रांसीसी यहूदी परिवार में हुआ था। उनके पिता और दादा दोनों ही रब्बी (यहूदी पुरोहित) थे। उनकी शुरुआती शिक्षा भी एक धार्मिक स्कूल में हुई, लेकिन जीवन के शुरू में ही उन्होंने पूरी तरह से सेकुलर जीवन गुज़ारने का निश्चय किया। एक अध्यवसायी छात्र के रूप में उन्होंने विख्यात ईकोल नॉरमेल सुपीरिययरे में दाखिला लिया और 1886 में अपनी डॉक्टरेट के अंश के रूप में उन्होंने 'द डिवीज़न ऑफ़ लेबर इन सोसाइटी' की रचना की।
इस रचना में दुर्ख़ाइम आधुनिक और पारम्परिक समाजों का फ़र्क दिखाते हुए यह प्रतिपादित करते हैं कि आधुनिक समाज जहाँ श्रम के विशेषीकरण पर आधारित होता है वहीं पारम्परिक समाज साझे विश्वासों पर चलता है। उनके मुताबिक समाज के रूपों का यह अंतर नियमों की व्यवस्था के अंतर को भी दर्शाता है। इस तरह आधुनिक समाज स्व- नियमन से संचालित होता है जबकि पारम्परिक समाज के नियम बाहरी विश्वासों और अनुमोदन पर टिके होते हैं। दुर्ख़ाइम के अनुसार चूँकि साझे विश्वास सर्वमान्य नैतिकता के प्राधिकार पर टिके होते हैं इसलिए इन विश्वासों पर आधारित व्यवस्था शक्ति और दबाव के जरिए ही कायम रह सकता है। जबकि स्वनियमकारी या आधुनिक समाज स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय जैसे तत्त्वों के बिना संतुलित नहीं रह सकता। विद्वानों का मानना है कि सामाजिक रूपों की विविधता को नियमों के विशिष्ट ढाँचे से जोड़ कर देखने का यह सूत्रीकरण अपराध और कानून के समाजशास्त्रीय अध्ययनों के लिए बुनियादी प्रेरक तत्त्व रहा है। दुर्ख़ाइम मानते थे कि समाज के पारम्परिक और आधुनिक रूपों में विभ्रम के कारण तथा आधुनिक समाजों पर पारम्परिक कानून या नियम थोपने की प्रवृत्ति ही कई सामाजिक समस्याओं के लिए जिम्मेदार रही है। आधुनिक समाजों की यह व्याख्या दुर्ख़ाइम के कृतित्व की विशिष्ट उपलब्धि मानी जाती है। इस रचना में दुर्ख़ाइम व्यक्ति के सामाजिक साहचर्य या जुड़ाव का विश्लेषण करते हुए यह विचार भी रखते हैं कि व्यक्ति को ख़ास तरह की सामाजिक साहचर्य की ज़रूरत पड़ती है। दुर्ख़ाइम दिखाते हैं कि सामाजिक संस्थाओं के अंदर स्वतः ही एक संसक्ति का तत्त्व होता है जो अपने सहभागियों से एक निश्चित व्यवहार की मांग करता है। दुर्ख़ाइम इसीलिए इस बात पर ज़ोर देते थे कि व्यक्ति के बजाय सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाना चाहिए। उनके अनुसार इन सामाजिक प्रक्रियाओं का ठोस रूप संस्थाओं और व्यवहार में अभिव्यक्त होता है जिनका अनुवीक्षण के आधार पर भी अध्ययन किया जा सकता है। दुर्ख़ाइम इन प्रक्रियाओं को सोशल फ़ैक्ट्स या सामाजिक तथ्यों की संज्ञा देते हैं। दुर्ख़ाइम को समाजशास्त्रीय अध्ययन में सांख्यिकी के सर्जनात्मक उपयोग करने का श्रेय भी जाता है। इस संबंध में उनकी रचना सुइसाइड एक मानक की तरह स्थापित है। इस कृति में दुर्ख़ाइम ने यह प्रतिपादित किया था कि आत्महत्या की अलग-अलग दरों की व्याख्या व्यक्ति के सामाजिक सम्बद्धता के स्तरों में प्रकट अंतर के आधार पर की जा सकती है। मसलन, उन्होंने दिखाया कि व्यक्ति की निजी प्रवृत्तियों के आधार पर इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता कि उम्रदराज़ पुरुष ही क्यों आत्महत्या करते हैं। लेकिन अगर व्यक्ति की सामाजिक स्थिति के कारकों जैसे उसके अविवाहित होने या समाज से उसके अलगाव आदि पर ध्यान दिया जाए तो आत्महत्या के कारणों की शिनाख्त की जा सकती है। दुर्ख़ाइम अपने अध्ययन में सांख्यिकी का इस्तेमाल सामाजिक तथ्यों जैसे किसी समूह के सदस्यों के आपसी साहचर्य के रूपों की ताकत या चरित्र उजागर करने के लिए करते हैं। मसलन, अगर किसी समूह में आपसी साहचर्य की भावना कमज़ोर है तो उसके सदस्यों में नैतिक या मनोवैज्ञानिक समस्याएँ पाये जाने की सम्भावना ज़्यादा होगी। इसके उलट अगर किसी समूह में साहचर्य की भावना बहुत गहरी हो तो उसके सदस्य अपने समूह के लिए त्याग करने के लिए ज़्यादा तत्पर पाये जाएंगे।
दुर्ख़ाइम की अन्य कृति 'द रूल्स ऑफ़ सोसियोलॅजिलकल मैथड' समाजशास्त्र में प्रयुक्त की जाने वाली पद्धतियों की आधारभूमि मानी जाती है। इस रचना में दुर्ख़ाइम स्पष्ट करते हैं कि समाजशास्त्र की केंद्रीय विषय- वस्तु सामाजिक व्यवस्था है, लिहाज़ा उसमें व्यक्ति के बजाय समाज के सांस्थानिक और व्यवस्थागत रूपों को प्रमुखता दी जानी चाहिए। इस रचना में दुर्ख़ाइम समाजशास्त्र को ऐसे ही सामाजिक तथ्यों का अध्ययन बताते हैं। उनके अनुसार इन सामाजिक तथ्यों के बीच एक ख़ास तरह की संगति होती है जिसे केवल उनके निर्माणकारी अंशों का संचित परिणाम नहीं कहा जा सकता। अपनी रचना सुइसाइड में दुर्ख़ाइम इसी बिंदु को स्पष्ट करना चाहते थे कि आत्महत्या जैसी निजी परिघटना को भी लोगों के साहचर्य-संबंधों तथा सामाजिक बांडिंग के आधार पर व्याख्यायित किया जा सकता है। उनकी दलील थी कि व्यकितगत भावनाएं, मूल्य या विचार जैसी चीजें वास्तव में सामाजिक सहभागिता से ही उपजती हैं। दुर्ख़ाइम की दो रचनाएँ 'द डिवीजन ऑफ़ लेबर' तथा 'द ऐलिमेंटरी फ़ॉर्म्स ऑफ़ द रिलीजस लाइफ़' तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की पड़ताल में आधुनिक उपागमों का इस्तेमाल करने के लिए जानी जाती है। आधुनिकता के समाजशास्त्रीय विमर्श में ये दोनों रचनाएँ अपने बारीक और सघन अध्ययन के कारण आज भी एक अनिवार्य सन्दर्भ बनी हुई हैं। दुर्ख़ाइम का चिंतन गहरे अर्थ में आधुनिक था। फ़्रॉयड जैसे मनोविश्लेषक भी अपने समय के पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाये थे और अपनी कृति टोटम ऐंड टैबू में आदिम दिमाग़ की तुलना मानसिक रोगी से कर बैठे थे, जबकि दुर्ख़ाइम ने अपनी रचना ऐलिमेंटरी फ़ॉर्म्स ऑफ़ द रिलीजस लाइफ़ में यह प्रतिपादित किया कि तर्कबुद्धि के लिहाज़ से आदिम कबीलों की सामाजिक संरचनाएँ और विश्वास आधुनिक मनुष्य की तर्कबुद्धि से कमतर नहीं ठहराये जा सकते। दुर्ख़ाइम के समय में व्याप्त राजनीतिक दुराग्रहों को देखते हुए यह एक साहसिक विचार था। चूँकि दुर्ख़ाइम तर्कबुद्धि को सामाजिक उत्पाद मानते हैं इसीलिए मनुष्य को कमतर या श्रेष्ठतर साबित करने वाले विचार को वे सिरे से ख़ारिज कर देते हैं। दुर्ख़ाइम के इस हस्तक्षेप ने समाजशास्त्र को एक बुनियादी समतावाद से लैस किया है। उक्त रचना में धर्म की सामाजिक उपयोगिता पर विचार करते हुए दुर्ख़ाइम यह दलील पेश करते हैं कि मनुष्य धार्मिक रीति-रिवाज़ों तथा कर्मकाण्डों में भागीदारी के ज़रिये ही मानवीय तर्कबुद्धि के बुनियादी रूपों- स्पेस, समय, वर्गीकरण, शक्ति, कार्य-कारण की समझ तथा सम्पूर्णता का बोध अर्जित करता है। इस रचना में दुर्ख़ाइम यह विचार भी पेश करते हैं कि पवित्रता का सामाजिक अनुभव सामाजिक अंतःसंबंधों को जन्म देता है। उनके मुताबिक सामाजिक व्यक्ति का जन्म तथा तर्कबुद्धि का विकास भी इसी प्रक्रिया से निरस्त होता है। इस रचना में दुर्ख़ाइम यह भी कहते हैं कि समस्त अवधारणाओं की उत्पत्ति समाज से ही होती है। इसलिए तर्क, भाषा और अर्थ की समझ विकसित करने के लिए इस बात का अध्ययन किया जाना चाहिए कि शब्दों और अवधारणाओं का किन सामाजिक रूपों और सन्दर्भों में इस्तेमाल किया गया है। यहाँ दुर्ख़ाइम धर्म को समाज का प्रकार्य बताते हुए एक और अहम सूत्रीकरण करते हैं कि धर्म सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने का माध्यम है। दुर्ख़ाइम धार्मिक विश्वासों की सत्यता को सीधे तो नहीं नकारते लेकिन उनके लिए धर्म का सत्य उसकी इस क्षमता से तय होता है कि वह कर्मकाण्डों को प्रोत्साहित कर सकता है या नहीं। उनके अनुसार संगठित धर्मों को केवल विश्वासों के आधार पर नहीं समझा जा सकता क्योंकि इस तरह के धर्म अक्सर समाज के पारम्परिक रूपों को अक्षुण्ण रखने के लिए व्यक्तिगत आस्था का दमन करते हुए भी पाये जाते हैं। आधुनिक और पारम्परिक समाजों में धर्म की भूमिका को लेकर दुर्ख़ाइम का यह सूत्र भी काबिले ग़ौर है कि समाज की इन दो अलग किस्मों में धर्म के प्रकार्य एक जैसे नहीं होते। पारम्परिक समाजों में तो धर्म सामाजिक नियंत्रण का औजार होता है जबकि आधुनिक समाजों में उसका यह प्रकार्य ग़ैर-ज़रूरी हो जाता है क्योंकि आधुनिक समाजों में वह ज्ञान-मीमांसा का प्रकार्य निभाने लगता है। इसीलिए सामाजिक व्यवस्था में उसकी भूमिका पहले जैसी नहीं रह जाती।
दुर्ख़ाइम की यह निष्पत्ति समाजशास्त्रीय चिंतन के लिहाज़ से एक उपलब्धि कही जाएगी कि मनुष्य के एक जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी में रूपांतरित होने की परिघटना को व्यक्ति की जैविक क्षमताओं या मनोविज्ञान के आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। उनकी दलील है कि जैविक का सामाजिक में रूपांतरण सामाजिक प्रक्रियाओं के माध्यम से सम्पन्न होता है। इसलिए दुर्ख़ाइम को लगता है कि मन और शरीर को दो अलग इयत्ता करार देने वाला मत केवल समाज की प्रक्रिया से बाहर खड़े जैविक अस्तित्व और सामाजिक प्राणी का अंतर दर्शाता है। उनके अनुसार पहली अवस्था के प्राणी को रैशनल मनुष्य नहीं कहा जा सकता। वे इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि मनुष्य में तर्कबुद्धि या व्यक्तित्व जैसी चीज़ें समाज की प्रक्रिया से ही पैदा होती हैं। दुर्ख़ाइम का मत था कि मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी के रूप में बनाये रखने के लिए सामाजिक प्रक्रियाओं और साहचर्य के ख़ास रूपों की दरकार होती है। यानी सामाजिक मनुष्य को उसके निश्चित सामाजिक विन्यास और सन्दर्भ से अलग हटाकर नहीं देखा जा सकता। इसलिए दुर्ख़ाइम आगाह भी करते हैं कि अगर मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र या दर्शनशास्त्र के अध्ययन की कोई पद्धति सामाजिक परिघटना को केवल व्यक्तियों की संचित गतिविधियों के आधार पर समझने का उपक्रम करती है तो उसे समाज जैसे सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष को दरकिनार करने का दोषी समझा जाना चाहिए।hgfrtewदुर्ख़ाइम के चिंतन और कृतित्व में समतावाद की स्पष्ट प्रतिष्ठा के बावजूद नारीवादी विश्लेषकों का कहना है कि उन्होंने स्त्रियों के मुद्दे पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। एक हद तक यह बात सही है कि समाजशास्त्री के तौर पर दुर्ख़ाइम की कोई भी रचना स्त्री-पक्ष पर एकाग्र नहीं है। लेकिन उन्नीसवीं सदी के जिस दौर में दुर्ख़ाइम समाजशास्त्र को व्यवस्थित कर रहे थे उस समय स्त्रियों के प्रश्नों पर बहुत कम सामाजिक चिंतक विचार कर रहे थे। सुइसाइड में उन्होंने आत्महत्या की एक भाग्यवादी किस्म का ज़िक्र किया है जिसे वे मुख्यतः स्त्रियों के साथ जोड़ कर देखते हैं। दुर्ख़ाइम का ख़याल यह भी था कि विवाह पुरूषों के लिए तो लाभकारी होता है लेकिन स्त्रियों के जीवन पर उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। द डिवीज़न ऑफ़ लेबर में दुर्ख़ाइम मूलवासियों के हवाले से बताते हैं कि ऐसे समुदायों में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति पुरुषों के मुकाबले कमतर नहीं थीं जबकि इसके उलट आधुनिक समाजों में स्त्री की हैसियत कमज़ोर होती गयी है। तत्कालीन समाज की औसत प्रवृत्ति स्त्री को कोमल और कमज़ोर के रूप में चित्रित करती थी। इसे देखते हुए दुर्ख़ाइम की दृष्टि निश्चय ही अग्रगामी कही जाएगी।
दुर्ख़ाइम का अवदान समाजशास्त्रियों की कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणा, प्रश्नांकन, समावेशन और जिरह का विषय रहा है। तीस के दशक में टैलकॉट पार्संस ने दुर्ख़ाइम के कृतित्व को संरचनात्मक प्रकार्यवाद में समेटने का प्रयास किया। इसका परिणाम यह हुआ कि अमेरिका में दुर्ख़ाइम के अवदान को प्रकार्यवाद और प्रत्यक्षतावाद के नजारिये से देखा जाने लगा। जबकि फ़्रांस में उनकी दृष्टि का लेवी-स्त्रॉस जैसे मानवशास्त्रियों ने उपयोग किया जिनकी दिलचस्पी दुर्ख़ाइम द्वारा प्रतिपादित संकल्पनाओं, विचारों और समाज के अंतर्संबंधों के आधार पर एक प्रतीकवादी मानवशास्त्र रचने में थी। लेकिन दुर्ख़ाइम के विचारों को आधार बनाकर नयी व्याख्या करने का यह उपक्रम इस मायने में एकांगी साबित हुआ कि उसने दुर्ख़ाइम की मूल प्रस्तावनाओं के कुछ निश्चित हिस्सों का ही इस्तेमाल किया। मार्क्सवादी धारा के समाजशास्त्रियों ने अपने लेखन में दुर्ख़ाइम के चिंतन में निहित रैडिकल स्वरूप को महत्त्व देते हुए पार्संस के दृष्टिकोण को प्रतिसंतुलित करने का प्रयास किया है जो दुर्ख़ाइम को राजनीतिक रूप से रूढ़िवादी साबित करने पर ज़ोर देता है।
समाजशास्त्रियों के एक समूह का मानना है कि दुर्ख़ाइम का समाजशास्त्र व्यक्ति को गौण कर देता है। लेकिन ध्यान से देखें तो दुर्ख़ाइम ऐसा इरादतन करते हैं। उनकी दृष्टि समाज को मूलतः सामूहिकता में समझने का आग्रह करती है तथा इस बात पर ज़ोर देती है कि अगर सामाजिक सिद्धांतों की पड़ताल और समाजशास्त्र के व्यवहार में अंतर्विरोधों के अध्ययन को तवज्जो न देकर उसे व्यक्तिवाद का पर्याय बना दिया जाता है तो समाजशास्त्र का बुनियादी उद्देश्य निरस्त हो जाता है। दुर्ख़ाइम के तईं समाजशास्त्र का काम यह नहीं है कि वह दर्शनशास्त्रीय संधान के लिए कच्ची सामग्री मुहैया कराये और फिर इस बात का इंतज़ार करे कि दार्शनिकों का ख़ेमा अपने मूल्यांकन में क्या कहता है। इसके बरक्स, दुर्ख़ाइम यह इसरार करते हैं कि समाजशास्त्र को सामाजिक तथ्यों के अध्ययन संबंधी कसौटियों का निर्माण ख़ुद करना चाहिए। उन्होंने दर्शनशास्त्रियों की इस दलील को ख़ारिज कर दिया कि सामाजिक तथ्यों में आकस्मिकता का तत्त्व होता है। इस आलोचना का सुचिंतित जवाब देते हुए दुर्ख़ाइम ने कहा कि समाज की निरंतरता बनाये रखने के लिए कुछ ख़ास तरह के और स्थायी रूप ज़रूरी होते हैं।
सन्दर्भ
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]1. आर. ए. जोंस (1986), एमीली दुर्ख़ाइम : ऐन इंट्रोडक्शन टू फ़ोर मेजर वर्क्स, सेज, बेवर्ली हिल्स.
2. एस. ल्यूक्स (1973), एमील दुर्ख़ाइम, हिज़ लाइफ़ ऐंड वर्क्स : अ हिस्टोरिकल ऐंड क्रिटिकल स्टडी, स्टैनफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, स्टैनफ़र्ड.
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4. जी. पोग्गी (2000), दुर्ख़ाइम, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, ऑक्सफ़र्ड. गया