आदमी को कितनी ज़मीन चाहिए?

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आदमी को कितनी ज़मीन चाहिए? (रूसी: Много ли человеку земли нужно?) लेव तालस्तोय की 1886 में लिखी कहानी है। 'इस में दो बातें बड़े पत्तों की कही गई हैं। पहली यह कि आदमी की इच्छाएँ, कभी पुरी नहीं होती। जैसे-जैसे आदमी उनका ग़ुलाम बनता जाता है, वह ओर बढ़ती जातीं हैं। दूसरे, आदमी आपाधापी करता है, भटकता है, लेकिन आख़िर में उससे कुछ भी नहीं जाता।' इस कहानी से महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने इसका गुजराती में अनुवाद किया था।[1]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. यशपाल जैन. "आदमी को कितनी ज़मीन चाहिए?". मूल से 11 जुलाई 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 मई 2015.