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आत्मप्रीति

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आत्मप्रीति या आत्मप्रेम जिसे "स्वयं के प्रति प्रेम" या "अपनी सुख या लाभ हेतु सम्मान" के रूप में परिभाषित किया गया है, [1] को एक मौलिक मानवीय आवश्यकता [2] और एक नैतिक दोष, घमण्ड और स्वार्थ, [3] दम्भ, अहंकार, आत्मरति, आदि का पर्यायवाची के समान माना गया है। यद्यपि, इस शताब्दी में आत्मप्रीति ने गौरव परेड, स्वाभिमान आन्दोलन, हिप्पी युग, आधुनिक नारीवादी आन्दोलन के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता, जो मादक द्रव्यों के सेवन और आत्महत्या के प्रतिरोध हेतु कार्य करने वाले स्व-सहायता समूहों हेतु आत्मप्रीति को आंतरिक रूप से बढ़ावा देती है, के माध्यम से अधिक सकारात्मक अर्थ अपनाया है।

आत्मप्रीति का अर्थ है स्वयं से प्यार करना एक बहुत अच्छी बात है जो एक सशक्त और सुरक्षित व्यक्ति बनाती है। यह स्वयं की सराहना करने और निज सर्वश्रेष्ठ मित्र बनने में सहायता करता है। जब आप स्वयं से प्यार करते हैं, तो आपको प्यार करने हेतु किसी और की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए स्वयं से प्यार करने और प्यार पाने में कुछ भी गलत नहीं है, किन्तु परेशानी तब आती है जब यदा-कदा लोग इस आत्मप्रीति को आत्मरति या आत्ममुग्धता के साथ भ्रमित कर देते हैं। आत्मग्रस्तता की सीमा तक आत्मप्रीति होना आत्मरति है। आत्मरति व्यक्ति को असुरक्षित, उथली और छिछोरी व्यक्तित्व में बदल देती है। यह आपको एक व्यक्ति के रूप में स्वार्थी और बेकार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता।

सन्दर्भ

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  1. Hall, Willis (1844). An Address Delivered August 14, 1844: Before the Society of Phi Beta Kappa in Yale College. Harvard University: B. L. Hamlen, 1844. पृ॰ 20.
  2. B. Kirkpatrick (ed.), Roget's Thesaurus (1998), pp. 592 and 639