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पूर कली |
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उत्तर केरल में मंदिरों मे एक अनुश्टान कला है "पूर कली"। पाट उत्सव, कलियाटम उत्सव एक एक ताल मे हुआ उत्सव है पूरम और पूर कली |मंदिर को प्रार्थनालय क्षेत्र नामक जाना जाता है। पूर कली के प्रदर्शन अवर्न विभाग के लोगो के मंदिरों मे जैसे "अरा","मुन्डया" मे की जाती है| उत्सव के कर्यक्रमो के साथ यह मंदिरों को समर्पित करते है। थीया, मुखया, शालिया, थटटान,मूशारि,मूवारि जातियों के लोग ही इस कला को प्रदर्शन करते है। उस प्रदेश के "तीया" http://historicalleys.blogspot.in/2012/02/thiyyas-of-malabar.html समुधाय के सभि मंदिरों मे पुर कलि प्रतियोगिता के रूप मे आचरण करते है| कुछ मंदिरों मे "ओट कली" के नाम मे जाना जाता "पुरमाला" केवल प्रदर्शन करते है यानि भगवान को स्तुति करते है| ४०-५० वर्श के पेहले ३० घन्टे समय तक पूर कली की प्रदर्शन किये थे| |
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पुर कलि की इतिहस: |
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काम देव के पुनर्जन्म केलिये १८ युवतिया प्रदर्शन किये खेल को "पूर कली" कह्ते है|इन्मे से १८ कली ही प्रमुख रूप मे वर्णन किये हुए है|इस खेल के पेह्ले सम्पूर्ण श्रुति "नरयण॥॥हरि॥।नरयण" जैसे गाते है। दूसरा अपुड श्रुति है। इस्मे "शनकरा वर्निनि" "सैन्धावि"http://www.sangeethabhyas.com/RagamDetails.php?Name=Saindhavi आदि रागा है। भूमि मे अहल्य,द्रोपदी आदि ५ महिलाओं ने प्रदर्शन किये थे। इस्मे पेह्ला कली "नमो नमो नरयण नमो,नाधन नाधन नरयण नमो" है। ९ और १० कली इसी गाना ही है,पर राग और न्रुत्य अलग है। इस्मे अन्त कली "नमो नम नम नमो नाधन नम नम नमो वासुदेव शरणम ञान" है। मन्दोदरी https://sites.google.com/site/thewomenofindia/mandodari द्वरा खेली गयी इस कली को बडे गर्व प्रदर्शन किये जाते है। अन्तिम श्रुति "शडवश्रुति" है। भूमिदेवि http://www.rudraksha-ratna.com/goddess-bhumidevi.html,नदिदेवि जैसे ६ महिलाओं मिलकर धरती की कोख मे नाटक किये हुए माना जाता है। रामायण कली भी होते है। अनुष्ठान के अनुसार बहुत प्रधान पूर्वक कली है "अन्गम कली"। बहुत कम मंदिरों मे ही इसका प्रदर्शन किये जाते है।युवगजनओत्सव नामक बच्चो के राज्य प्रतियोगिता मे भी पूर कली की स्वीकार केरल भर छोटे स्तर मे लोग का आनंद करते है। रेडियो और टेलीविजन के माध्यम मे भी पूर कली को अधिक महत्त्व दिये जा रहे है। पूर काली की अन्तिम कली है "आन्डूम पल्लुम" है। इसे भी पूर माला जैसे ही महत्व दिये जाते है। |
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केरल मे छेरुवथुर नामक नगर के उत्तर भाग मे "पूर माला" नामक एक कली है। अनुष्ठान के अनुसार पूर माला के बाद "वन कलिकल" नामक जाना जाता है। पुराधन काल गनेश पाटु कली ज्यादातर मंदिरों मे प्रदर्शन किये जाते थे। इसमे गनेश,सरस्वति,श्री कृष्णा आदि भगवानो को स्तुति करते है। पूर कली के भविष्य मंदिरों चारों ओर मे ही है। इसके सम्पूर्ण भाग सिर्फ मंदिरों मे ही पाया जाता है। सांस्कृतिक और कृषि समन्धित कर्यो को दिखना ही इस कला का मुख्य लक्ष्य है। साथ ही गरीब लोगो के खेती सम्पूर्ण जीवन की झलक मिलती है। पूर कली उस प्रदेश के नागरिकों बडे ही हर्ष और सुख प्रधान करते है। वहां के लोग बडे ही श्रद्धा से आनंद करते है। आश्चर्य की बात यह है की आज भी हमारे बीच ऐसे लोग है जो हमारे पूर्वजों के रीति रिवाज़ को पालन करते हुए आज पूर कली जैसे कला की सुरक्षा विलुप्त होने के बिना करते है। |
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पूर कलि अन्य प्रकार के है। इस्मे सब ईश्वरीय आराधना के विवरण मिलता है। गणपति पाटु रामायण,इरटा अन्ग्गम,कामन पाटु पड,छायाल,छिन्दुगल आदि अन्य कलिया कुछ लोग पेश करते है। पुराने जमाने मे गणपति पाटु कलि ज़्यादतर मंदिरों मे प्रदर्शन करते है। इस्मे गणपति,सरस्वति,कृष्ण जैसे भगवानो के स्थुति का विवरण मिलता है। तीन कलियो के प्रकार इसे प्रदर्शन करते है। "कैतोऴुन्ने करिमुख पैदले ञन वानम कैधवगल कलञेन्निल कौधुगम नल्गे" इस गाने को गणपति के लिये गाते है। सरस्वति कलि मे "स्रस्वति देवि सखलेशे ताये नमस्ते निन पद मनवरधम" गान गाते है। कृष्ण स्थुति के रूप मे "कडल वर्न कनिवरुलेनम अएन्निल,कडाल मादिन मारु पुनर वोने" ऐसे वाक्यो से आरम्ब करते है। यह एक मनोहर कलि है। कुछ खिलाड़ियां इसे बहुत बडे रूप से प्रदर्शन करते है। प्रत्येक कदमो मे दिखाते है। आज कल शास्त्रीय मरुत कलि का प्राधान,समय की कमी के कारण नष्ट हो रहा है। ऐसे मे गणपति स्थुति भी नही हो पा रहा है। |
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आज कल मंदिरों मे सिर्फ रामयाण कलि प्रस्तुत करते है। प्राचीन काल से कलिया और न्न्रुत्य कदमो की कमी देख सकते है। दूर्दर्शन जैसे मध्यम से पुर कलि को ज़्यादा प्राधान दे आ रहे है। कुछ प्रदेशो मे इस कलि की प्रेरणा मिलते रेहने के साथ साथ इस कला रूप को अच्छे रूप से पेश करने की प्रोत्साहन भी मिल रहे है। आज कल पुर कलि की गाने बहुत कम रूप से पाया जाता है। पट्टवा परूर, कूटर कुडक्कल, मोऴन पेरयुम जैसे जातियो के लोगो के बारे मे कलि के कहानियो मे पाया जाता है। "पकल अवनुवधिचु पारुधयम छेय्ध पोले पच्छ पन थऴगलुम तथिग मुथिन कुड" यह एक प्रचीन गान है। इसमे पट्टवा परूर जाति के बारे मे विवरण मिलता है। उत्तर भाग के प्र्देशो मे इस इस गान को ही आज भी पेश करते है। |
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आज कल पुर कलि सिर्फ नाम से जाना जाता है। यह इस कला के उपर किये अत्याचार है। मरुत कलि के नाटक, सन्यासियो को बहुत आकर्शित करते है। यादव जाति भी आज कल तोडी सी मरुत कलि का आचरण करते है। कुछ ही घंटे मे इनके कर्यक्रम कतम हो जाता है। नाटक, योगि जैसे कलिया वो पेश नही करते है। दूसरे जातियो के लोग मरुत कलि का आचरण नही करते है। अपने अपने मंदिरों मे आराधना के रूप मे इसका पेश करते है। सभी जातियो के लोगो के पुर कलि ज़्यादातर एक जैसे होते है, इसमे बहुत थोडा थोडा अंतर होते है। |
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इस प्रकार पुर कलि हमारे पुर्वजो के एक आचरण है। इसे हम आज भी जीवित रखनी चाहिये। |
09:51, 6 सितंबर 2015 का अवतरण
पूर कली उत्तर केरल में मंदिरों मे एक अनुश्टान कला है "पूर कली"। पाट उत्सव, कलियाटम उत्सव एक एक ताल मे हुआ उत्सव है पूरम और पूर कली |मंदिर को प्रार्थनालय क्षेत्र नामक जाना जाता है। पूर कली के प्रदर्शन अवर्न विभाग के लोगो के मंदिरों मे जैसे "अरा","मुन्डया" मे की जाती है| उत्सव के कर्यक्रमो के साथ यह मंदिरों को समर्पित करते है। थीया, मुखया, शालिया, थटटान,मूशारि,मूवारि जातियों के लोग ही इस कला को प्रदर्शन करते है। उस प्रदेश के "तीया" http://historicalleys.blogspot.in/2012/02/thiyyas-of-malabar.html समुधाय के सभि मंदिरों मे पुर कलि प्रतियोगिता के रूप मे आचरण करते है| कुछ मंदिरों मे "ओट कली" के नाम मे जाना जाता "पुरमाला" केवल प्रदर्शन करते है यानि भगवान को स्तुति करते है| ४०-५० वर्श के पेहले ३० घन्टे समय तक पूर कली की प्रदर्शन किये थे|
पुर कलि की इतिहस: काम देव के पुनर्जन्म केलिये १८ युवतिया प्रदर्शन किये खेल को "पूर कली" कह्ते है|इन्मे से १८ कली ही प्रमुख रूप मे वर्णन किये हुए है|इस खेल के पेह्ले सम्पूर्ण श्रुति "नरयण॥॥हरि॥।नरयण" जैसे गाते है। दूसरा अपुड श्रुति है। इस्मे "शनकरा वर्निनि" "सैन्धावि"http://www.sangeethabhyas.com/RagamDetails.php?Name=Saindhavi आदि रागा है। भूमि मे अहल्य,द्रोपदी आदि ५ महिलाओं ने प्रदर्शन किये थे। इस्मे पेह्ला कली "नमो नमो नरयण नमो,नाधन नाधन नरयण नमो" है। ९ और १० कली इसी गाना ही है,पर राग और न्रुत्य अलग है। इस्मे अन्त कली "नमो नम नम नमो नाधन नम नम नमो वासुदेव शरणम ञान" है। मन्दोदरी https://sites.google.com/site/thewomenofindia/mandodari द्वरा खेली गयी इस कली को बडे गर्व प्रदर्शन किये जाते है। अन्तिम श्रुति "शडवश्रुति" है। भूमिदेवि http://www.rudraksha-ratna.com/goddess-bhumidevi.html,नदिदेवि जैसे ६ महिलाओं मिलकर धरती की कोख मे नाटक किये हुए माना जाता है। रामायण कली भी होते है। अनुष्ठान के अनुसार बहुत प्रधान पूर्वक कली है "अन्गम कली"। बहुत कम मंदिरों मे ही इसका प्रदर्शन किये जाते है।युवगजनओत्सव नामक बच्चो के राज्य प्रतियोगिता मे भी पूर कली की स्वीकार केरल भर छोटे स्तर मे लोग का आनंद करते है। रेडियो और टेलीविजन के माध्यम मे भी पूर कली को अधिक महत्त्व दिये जा रहे है। पूर काली की अन्तिम कली है "आन्डूम पल्लुम" है। इसे भी पूर माला जैसे ही महत्व दिये जाते है।
केरल मे छेरुवथुर नामक नगर के उत्तर भाग मे "पूर माला" नामक एक कली है। अनुष्ठान के अनुसार पूर माला के बाद "वन कलिकल" नामक जाना जाता है। पुराधन काल गनेश पाटु कली ज्यादातर मंदिरों मे प्रदर्शन किये जाते थे। इसमे गनेश,सरस्वति,श्री कृष्णा आदि भगवानो को स्तुति करते है। पूर कली के भविष्य मंदिरों चारों ओर मे ही है। इसके सम्पूर्ण भाग सिर्फ मंदिरों मे ही पाया जाता है। सांस्कृतिक और कृषि समन्धित कर्यो को दिखना ही इस कला का मुख्य लक्ष्य है। साथ ही गरीब लोगो के खेती सम्पूर्ण जीवन की झलक मिलती है। पूर कली उस प्रदेश के नागरिकों बडे ही हर्ष और सुख प्रधान करते है। वहां के लोग बडे ही श्रद्धा से आनंद करते है। आश्चर्य की बात यह है की आज भी हमारे बीच ऐसे लोग है जो हमारे पूर्वजों के रीति रिवाज़ को पालन करते हुए आज पूर कली जैसे कला की सुरक्षा विलुप्त होने के बिना करते है। पूर कलि अन्य प्रकार के है। इस्मे सब ईश्वरीय आराधना के विवरण मिलता है। गणपति पाटु रामायण,इरटा अन्ग्गम,कामन पाटु पड,छायाल,छिन्दुगल आदि अन्य कलिया कुछ लोग पेश करते है। पुराने जमाने मे गणपति पाटु कलि ज़्यादतर मंदिरों मे प्रदर्शन करते है। इस्मे गणपति,सरस्वति,कृष्ण जैसे भगवानो के स्थुति का विवरण मिलता है। तीन कलियो के प्रकार इसे प्रदर्शन करते है। "कैतोऴुन्ने करिमुख पैदले ञन वानम कैधवगल कलञेन्निल कौधुगम नल्गे" इस गाने को गणपति के लिये गाते है। सरस्वति कलि मे "स्रस्वति देवि सखलेशे ताये नमस्ते निन पद मनवरधम" गान गाते है। कृष्ण स्थुति के रूप मे "कडल वर्न कनिवरुलेनम अएन्निल,कडाल मादिन मारु पुनर वोने" ऐसे वाक्यो से आरम्ब करते है। यह एक मनोहर कलि है। कुछ खिलाड़ियां इसे बहुत बडे रूप से प्रदर्शन करते है। प्रत्येक कदमो मे दिखाते है। आज कल शास्त्रीय मरुत कलि का प्राधान,समय की कमी के कारण नष्ट हो रहा है। ऐसे मे गणपति स्थुति भी नही हो पा रहा है। आज कल मंदिरों मे सिर्फ रामयाण कलि प्रस्तुत करते है। प्राचीन काल से कलिया और न्न्रुत्य कदमो की कमी देख सकते है। दूर्दर्शन जैसे मध्यम से पुर कलि को ज़्यादा प्राधान दे आ रहे है। कुछ प्रदेशो मे इस कलि की प्रेरणा मिलते रेहने के साथ साथ इस कला रूप को अच्छे रूप से पेश करने की प्रोत्साहन भी मिल रहे है। आज कल पुर कलि की गाने बहुत कम रूप से पाया जाता है। पट्टवा परूर, कूटर कुडक्कल, मोऴन पेरयुम जैसे जातियो के लोगो के बारे मे कलि के कहानियो मे पाया जाता है। "पकल अवनुवधिचु पारुधयम छेय्ध पोले पच्छ पन थऴगलुम तथिग मुथिन कुड" यह एक प्रचीन गान है। इसमे पट्टवा परूर जाति के बारे मे विवरण मिलता है। उत्तर भाग के प्र्देशो मे इस इस गान को ही आज भी पेश करते है। आज कल पुर कलि सिर्फ नाम से जाना जाता है। यह इस कला के उपर किये अत्याचार है। मरुत कलि के नाटक, सन्यासियो को बहुत आकर्शित करते है। यादव जाति भी आज कल तोडी सी मरुत कलि का आचरण करते है। कुछ ही घंटे मे इनके कर्यक्रम कतम हो जाता है। नाटक, योगि जैसे कलिया वो पेश नही करते है। दूसरे जातियो के लोग मरुत कलि का आचरण नही करते है। अपने अपने मंदिरों मे आराधना के रूप मे इसका पेश करते है। सभी जातियो के लोगो के पुर कलि ज़्यादातर एक जैसे होते है, इसमे बहुत थोडा थोडा अंतर होते है। इस प्रकार पुर कलि हमारे पुर्वजो के एक आचरण है। इसे हम आज भी जीवित रखनी चाहिये।