हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, २००५

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हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, २००५
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, १९५६ को संशोधित करने के लिए अधिनियम
शीर्षक Act No. 39 of 2005
द्वारा अधिनियमित भारत की संसद
अनुमति-तिथि ५ सितम्बर २००५
शुरूआत-तिथि ९ सितम्बर २००५
स्थिति : प्रचलित

हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, २००५, १९५६ के अधिनियम में एक संशोधन है, जो ५ सितंबर २००५ को भारत के राष्ट्रपति से सहमति प्राप्त कर ९ सितंबर २००५ से लागू हुआ।[1] यह विधेयक लाने के पीछे मूल उद्देश्य हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, १८५६ में निहित संपत्ति अधिकारों में लैंगिक भेदभावपूर्ण प्रावधानों को हटाना था। यह भारत में महिला-अधिकारों को लेकर भारतीय कानून के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम था।

इतिहास[संपादित करें]

हिंदू कानून के तहत महिलाओं को एक पुत्री के रूप में या एक पत्नी के रूप में अपने पूर्वजों की अचल या चल संपत्ति में, कुछ भी हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। हालांकि, कुछ क्षमताओं में महिलाओं को संपत्ति इन्हेरिट करने का अधिकार दिया गया था, लेकिन वह केवल संपत्ति का सीमित उपयोग करने का अधिकार था।[2]

भारत के स्वतंत्र होने के बाद, संपत्ति से संबंधित हिंदू कानून को संहिताबद्ध किया गया और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 बनाया गया। वर्ष 1956 के इस अधिनियम द्वारा ही महिलाओं के संपत्ति के अधिकार यानी संयुक्त हिंदू परिवार में विरासत के अधिकार को मान्यता दी गई। हालांकि तब भी एक पुत्री को सहदायक (कोपार्सनर) का दर्जा नहीं दिया गया था।[2]

भारत में, हिंदू कानून की दो पद्धतियां/पक्ष हैं, जिन्हें 'मिताक्षरा' और 'दायभाग' के नाम से जाना जाता है। दायभाग पद्धति का सीमित क्षेत्रों में अनुसरण किया जाता है, जबकि मिताक्षरा पद्धति को देश के बड़े हिस्सों में व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है। दोनों के बीच मुख्य अंतर, इनहेरिटेंस और संयुक्त परिवार प्रणाली के संबंध में है। मिताक्षरा कानून या पद्धति, संपत्ति के विचलन (devolution of property) के दो तरीकों, उत्तरजीविता (Survivorship) और उत्तराधिकार (Succession) को मान्यता देती है। उत्तरजीविता का नियम संयुक्त परिवार की संपत्ति पर लागू होता है और उत्तराधिकार के नियम, मृतक के पूर्ण स्वामित्व वाली अलग संपत्ति पर लागू होते हैं। हालांकि, दायभाग पद्धति, विचलन के केवल एक तरीके को पहचान देती है, जो है उत्तराधिकार (succession)।[2]

एक संयुक्त हिंदू परिवार में ऐसे सभी व्यक्ति शामिल होते हैं जो सामान्य रूप से एक समान पूर्वज के वंशज होते हैं और जिसमे उनकी पत्नियों और अविवाहित पुत्रियों को भी शामिल किया जाता है। हालांकि, एक हिंदू कोपार्सनरी (सहदायिकी), संयुक्त परिवार की तुलना में एक छोटा समूह है और इसमें केवल उन व्यक्तियों को शामिल किया जाता है, जो संपत्ति में अपने जन्म के द्वारा कोपार्सनरी (सहदायिकी) अधिकार प्राप्त करते हैं। ये पुत्र, पौत्र और महान पौत्र होते हैं। मिताक्षरा स्कूल का प्रमुख सिद्धांत यह है कि अपने पिता, पिता के पिता या पिता के पिता के पिता से एक हिंदू को विरासत में मिली संपत्ति, पैतृक संपत्ति है, जिसका अर्थ अपनी पुरुष संतानों के संबंध में अप्रतिबंधित विरासत से है। अन्य संबंधों से एक हिंदू को विरासत में मिली संपत्ति उसकी अलग संपत्ति है।[2]

सहदायिका (कोपार्सनरी) की सबसे महत्वपूर्ण घटना यह है कि मिताक्षरा स्कूल के तहत एक 'महिला' कोपार्सनर (सहदायक) नहीं हो सकती है। यहां तक कि एक पत्नी, हालांकि वह अपने पति की संपत्ति के रख-रखाव की हकदार है और उसकी संपत्ति में एक हद तक उसे अधिकार प्राप्त है, पर वह अपने पति की सहदायक (कोपार्सनर) नहीं है। एक मां अपने बेटे के संबंध में सहदायक (कोपार्सनर) नहीं है, इसलिए, संयुक्त परिवार की संपत्ति में एक महिला को पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं था और कोपार्सनरी (सहदायिकी) में तो बिलकुल भी नहीं, जिसमें उसे मान्यता भी प्राप्त नहीं थी।[2]

हालांकि वर्ष 2005 में संसद ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 6 में संशोधन किया और पुत्रियों को एक बेटे के साथ एक सहदायक (कोपार्सनर) के रूप में मान्यता दी और जिसके जरिये महिला को संविधान के अनुसार समान दर्जा दिया गया था। यह हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005, 9 सितंबर 2005 को लागू हुआ।[2]

2005 के अधिनियम में बदलाव किए गए, क्योंकि संसद ने यह महसूस किया कि बेटियों को मिताक्षरा कोपार्सनरी (सहदायिकी) संपत्ति में शामिल नहीं करने से उनके साथ भेदभाव हो रहा है। इसलिए यह बदलाव लाए गए थे, जिनका आशय 2005 के संशोधन अधिनियम के वस्तु और कारणों (Object and Reasons) के विवरण से स्पष्ट है, जो इस प्रकार है -[2]

"2... मिताक्षरा कोपार्सनरी (सहदायिकी) प्रॉपर्टी को, महिलाओं को इसमें शामिल किए बिना, बनाए रखने का मतलब यह है कि महिलाएं, पैतृक संपत्ति को अपने पुरुष समकक्षों के रूप में प्राप्त नहीं कर सकती हैं। एक पुत्री को कोपार्सनरी (सहदायिकी) स्वामित्व में भाग लेने से बाहर करने के कानून ने न केवल लिंग के आधार पर उनके साथ भेदभाव में योगदान दिया है, बल्कि इससे अत्याचार बढ़ा है और संविधान द्वारा गारंटीकृत समानता के उसके मौलिक अधिकार की अवहेलना हुई है… "[2]

इसलिए, संसद ने अपने विवेक से 2005 के संशोधन अधिनियम द्वारा समानता लाने के लिए यह करना उचित समझा।[2]

संशोधन[संपादित करें]

वर्ष 1956 के प्रधान अधिनियम ने विभाजन और विभाजन की मांग करने के संबंध में एक पुत्री को किसी भी प्रकार के स्वतंत्र अधिकार देने का प्रावधान नहीं किया था। पुत्रियां केवल अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा पाने में सक्षम थीं और वह भी तब जब उनके पूर्वज की मृत्यु होती थी। इसके कारण लैंगिक भेदभाव बढ़ा और पुत्रियों को कोपार्सनरी (सहदायिकी) प्रॉपर्टी का आनंद लेने से वंचित किया गया जो कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के उल्लंघन में था।[2]

इस द्वंद्व और लैंगिक भेदभाव को महसूस करते हुए, संसद ने भारत के विधि आयोग की सिफारिश को स्वीकार करते हुए उस गलती को सही किया जो सदियों से जारी थी, और इसके फलस्वरूप हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संशोधन करते हुए कोपार्सनरी (सहदायिकी) में 'पुत्री' को शामिल किया गया, जिसके कारण उसे अब पिता की संपत्ति के संबंध में 'पुत्र' के समान अधिकार दिया गया है। एक कोपार्सनर (सहदायक) की बेटी को कोपार्सनरी (सहदायिकी) में शामिल कराया गया है और संशोधन के लागू होने के बाद, वह अपने आप में एक कोपार्सनर (सहदायक) बन गई है। अब पुत्री भी अपने अधिकार की कोपार्सनरी (सहदायिकी) संपत्ति का निपटान करने की हकदार है, और यह निपटान वसीयत के मुताबिक भी हो सकता है।[2]

संशोधन एक्ट ने, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 को प्रतिस्थापित करके अब एक बेटी के अधिकार को अपने आप में एक कोपार्सनर (सहदायक) के रूप में मान्यता दे दी है और कोपार्सनरी (सहदायिका) की मूल अवधारणा को ओवरराइड कर दिया है जिसमें एक कोपार्सनरी (सहदायिकी) का गठन, एक संयुक्त हिंदू परिवार के केवल पुरुष सदस्यों को शामिल करते हुए होता है। हालांकि, इस अवधारणा को अब जब काफी हद तक संशोधित किया गया है, तब भी एक विधवा, एक मां और एक पत्नी, कोपार्सनरी (सहदायिकी) में अपने प्रवेश के लिए कतार में हैं।[2]

वर्ष 2005 के संशोधन अधिनियम द्वारा हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 23 को भी निरस्त कर दिया गया है, जिससे संयुक्त परिवार के पुरुष सहदायक द्वारा पूरी तरह से कब्ज़ा किए गए आवास गृह में भी पुत्रियों को विभाजन की मांग करने का समान अधिकार/मान्यता प्रदान की गयी है। इस प्रकार, अब एक पुत्री को 9 सितंबर, 2005 के बाद संयुक्त परिवार के सदस्य के कब्जे वाले एक आवासीय घर के विभाजन की मांग करने का समान अधिकार है, यदि 20 दिसंबर 2004 तक परिवार की उस संपत्ति का विभाजन नहीं हुआ है।[2]

संशोधन के आने के बाद से, सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न उच्च न्यायालयों के पास इस मुद्दे से निपटने का अवसर आया है, जो समग्र रूप से समाज के लिए अत्यधिक महत्व का है, मुख्य रूप से इसलिए क्यूंकि समाज के अधिकार, आजीविका और सामाजिक ताने-बाने का निर्धारण, एक महिला के पक्ष में मौजूद अधिकारों से होता है, जिन अधिकारों से उसे सदियों से वंचित किया गया है। हाल के कुछ निर्णयों पर, जिनकी विशेष उल्लेख की आवश्यकता है, नीचे चर्चा की गई है।[2]

गंडूरी कोटेश्वरम्मा बनाम चकिरी यानदी [(2011) 9 SCC 788] के मामले में जो सवाल उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया था, वह यह था कि "क्या 19 मार्च 1999 को निचली अदालत द्वारा पारित प्रीलिमिनरी डिक्री, जिसे 27 सितंबर, 2003 को संशोधित किया गया, वर्ष 2005 के संशोधन अधिनियम के लाभ से अपीलार्थी को वंचित करती है, जबकि विभाजन के लिए अंतिम निर्णय (फाइनल डिक्री) अभी तक पारित नहीं किया गया है?"[2]

सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2005 के संशोधन अधिनियम की धारा 6 का हवाला देते हुए कहा कि यदि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने से पहले विभाजन को लेकर अंतिम डिक्री पारित नहीं की गयी है, तो पुत्रियों के हिस्से को देखते हुए प्रारंभिक डिक्री में संशोधन किया जाना होगा।[2]

प्रकाश एवं अन्य बनाम फूलवती एवं अन्य [(2016) 2 SCC 36] के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय लेते हुए, कि क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 का पूर्वव्यापी प्रभाव होगा या यह भावी रूप से लागू होगा, यह कहा कि धारा 6 (1) का प्रोविजो और धारा 6 की उपधारा (5) से यह स्पष्ट होता है कि इसका इरादा, 20 दिसंबर, 2004, जिस तिथि पर विधेयक पेश किया गया था, से पहले होने वाले लेन-देन को इसके प्रभाव से बाहर करने का था। यह संशोधन उन विभाजनों को फिर से खोलने की अनुमति नहीं दे सकता है जो जब प्रभाव में आये तब वे वैध थे। इसलिए, यह माना गया कि 20 दिसंबर, 2004 से पहले हो चुके लेनदेन को अंतिम रूप देने का उद्देश्य, मुख्य प्रावधान को किसी भी तरीके से पूर्वव्यापी बनाना नहीं है।[2]

प्रकाश एवं अन्य बनाम फूलवती एवं अन्य [(2016) 2 SCC 36] के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय लेते हुए, कि क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 का पूर्वव्यापी प्रभाव होगा या यह भावी रूप से लागू होगा, यह कहा कि धारा 6 (1) का प्रोविजो और धारा 6 की उपधारा (5) से यह स्पष्ट होता है कि इसका इरादा, 20 दिसंबर, 2004, जिस तिथि पर विधेयक पेश किया गया था, से पहले होने वाले लेन-देन को इसके प्रभाव से बाहर करने का था। यह संशोधन उन विभाजनों को फिर से खोलने की अनुमति नहीं दे सकता है जो जब प्रभाव में आये तब वे वैध थे। इसलिए, यह माना गया कि 20 दिसंबर, 2004 से पहले हो चुके लेनदेन को अंतिम रूप देने का उद्देश्य, मुख्य प्रावधान को किसी भी तरीके से पूर्वव्यापी बनाना नहीं है।[2]

अदालत ने आगे कहा कि "संशोधन के तहत यह अधिकार 9 सितंबर, 2005 को जीवित कोपार्सनर्स की जीवित पुत्रियों पर लागू होते हैं, भले ही ऐसी पुत्रियां कभी भी पैदा हुई हों ..."[2]

जबकि, दानम्मा @ सुमन सुरपुर एवं अन्य बनाम अमर एवं अन्य [(2018) 3 SCC 343] के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय इस प्रश्न से निपट रहा था कि क्या, अपीलकर्ता, अर्थात, गुरुलिंगप्पा सावदी की पुत्रियों को इस आधार पर उनके हिस्से से वंचित किया जा सकता है कि वे वर्ष 1956 अधिनियम से पहले पैदा हुई थीं और, इसलिए, उन्हें कोपार्सनर के रूप में नहीं माना जा सकता है? वैकल्पिक प्रश्न जो न्यायालय के समक्ष उठाया गया था, वह यह था कि क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के पारित होने के साथ, अपीलार्थी अपने 'जन्म से ही' एक 'पुत्र के समान' अधिकार हासिल करेंगी और इसलिए, वे एक पुत्र के रूप में समान हिस्सेदारी की हकदार होंगी?[2]

इस मामले में पिता की वर्ष 2001 में मृत्यु हो गई थी और हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के बाद, पुत्रियों ने प्रारंभिक डिक्री के संशोधन के लिए एक आवेदन दायर किया था, जिसे ट्रायल कोर्ट द्वारा इस आधार पर खारिज कर दिया था कि अपीलकर्ताओं (पुत्रियों) का जन्म अधिनियम के लागू होने से पहले हुआ था इसलिए वे अपने पिता की संपत्ति में किसी भी हिस्से की हकदार नहीं होंगी। ट्रायल कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने यह देखते हुए कि संशोधित धारा 6 के प्रावधानों के अनुसार, संशोधित अधिनियम, 2005 के प्रारंभ होने और उसके बाद, एक पुत्री अपने 'जन्म' के साथ ही एक पुत्र के सामान अपने आप में एक कोपार्सनर बन सकती है, विशेष अवकाश याचिका को अनुमति दी।[2]

इस मामले में पिता की वर्ष 2001 में मृत्यु हो गई थी और हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के बाद, पुत्रियों ने प्रारंभिक डिक्री के संशोधन के लिए एक आवेदन दायर किया था, जिसे ट्रायल कोर्ट द्वारा इस आधार पर खारिज कर दिया था कि अपीलकर्ताओं (पुत्रियों) का जन्म अधिनियम के लागू होने से पहले हुआ था इसलिए वे अपने पिता की संपत्ति में किसी भी हिस्से की हकदार नहीं होंगी। ट्रायल कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने यह देखते हुए कि संशोधित धारा 6 के प्रावधानों के अनुसार, संशोधित अधिनियम, 2005 के प्रारंभ होने और उसके बाद, एक पुत्री अपने 'जन्म' के साथ ही एक पुत्र के सामान अपने आप में एक कोपार्सनर बन सकती है, विशेष अवकाश याचिका को अनुमति दी।[2]

निष्कर्ष[संपादित करें]

उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर, यह स्पष्ट है कि अब हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन के साथ, महिलाओं को विरासत के संबंध में समान अधिकार और दर्जा देने के साथ-साथ कानून के समक्ष उन्हें समानता प्रदान करके उनके साथ 'न्याय' किया गया है, जैसा कि अनुच्छेद 14 के रूप में हमारे संविधान में उल्लिखित है। इसलिए, एक कोपार्सनर की पुत्री एक 'कोपार्सनर' बन जाती है, यदि वह संपत्ति जिस पर वह दावा कर रही है, उसका विभाजन 20 दिसंबर 2004 से पहले नहीं किया गया है। इस प्रकार, एक पुत्री के अधिकारों को उससे छीना नहीं जा सकता है, यदि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के बाद, विभाजन को लेकर एक अंतिम निर्णय पारित नहीं किया गया है। जबकि, भले ही 2005 के संशोधित अधिनियम को पारित करने से पहले, एक प्रारंभिक डिक्री को सक्षम न्यायालय के न्यायालय द्वारा पारित किया गया हो, फिर भी पुत्री की मांग पर उसमें संशोधन किया जा सकता है।[2]

मुख्य विशेषताएं और प्रभाव[संपादित करें]

इस संशोधन ने पुरुष और महिला भाई-बहनों के संपत्ति अधिकारों को संतुलित करने में जबरदस्त भूमिका निभाई है। 2008 में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि इस कानून का प्रभाव पूर्वव्यापी है, और बेटी को अपने (पुरुष) भाइयों के साथ सह-हिस्सेदार बनने के लिए केवल एक शर्त पूरी होनी चाहिए, यह कि पिता को ९ सितंबर २००५ को जीवित हो। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी फैसला दिया कि संशोधन उन सभी सम्पत्ति-विभाजनों पर भी लागू होगा जो २००५ से पहले दायर हुए थे और संशोधन होने के समय उनपर कार्यवाही लंबित थी। [3]

  • यह संशोधन भारत के संविधान के अनुच्छेद १४, १५ और २१ के तहत समानता के अधिकार के अनुरूप है।[4]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "Hindu Succession (Amendment) Act, 2005 comes into force from today". www.pib.nic.in. मूल से 24 जून 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 July 2018.
  2. "क्या हैं संपत्ति से संबंधित हिंदू महिलाओं के अधिकार? जानिए महत्वपूर्ण बातें". लाइव लॉ.
  3. "Daughters Born Before 2005 Have Equal Rights To Ancestral Property: SC". The Economic Times. 28 March 2018. मूल से 21 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 December 2018.
  4. "Effect of the Hindu Succession (Amendment) Act 2005". www.papers.ssrn.com. मूल से 4 जून 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 July 2018.