हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद

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मार्क्सवादी विचारधारा का साहित्य में प्रगतिवाद के रूप में उदय हुआ। यह समाज को शोषक और शोषित के रूप में देखता है। प्रगतिवादी शोषक वर्ग के खिलाफ शोषित वर्ग में चेतना लाने तथा उसे संगठित कर शोषण मुक्त समाज की स्थापना की कोशिशों का समर्थन करता है। यह पूँजीवाद, सामंतवाद, धार्मिक संस्थाओं को शोषक के रूप में चिन्हित कर उन्हें उखाड़ फेंकने की बात करता है।

हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद का आरंभ १९३६ से १९४३ तक माना जा सकता है। इसी वर्ष लखनउ में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की। इसके बाद साहित्य की विभिन्न विधाओं में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रचनाएँ हुई। प्रगतिवादी धारा के साहित्यकारों में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शिवमंगल सिंह सुमन, त्रिलोचन, रांघेय राघव प्रमुख हैं।

इतिहास[संपादित करें]

1935 ई० में पेरिस में इ० एम० फोस्टर ने प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना की। इसी वर्ष लंदन में सज्जाद ज़हीर ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। १९३६ में सज्जाद जहिर ने भारत लौटने पर अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। १ और १० अप्रैल १९३६ को इसका पहला अधिवेशन लखनऊ में हुआ जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी।

१९३६ ई. में एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में शुरु हुआ प्रगतिवाद अगले दो दशकों तक हिंदी साहित्य का प्रमुख स्वर बना रहा।

प्रगतिवादी रचनाकार[संपादित करें]

प्रगतिवाद की विशेषताएं[संपादित करें]

  • सामाजिक यथार्थ का चित्रण-
  • सांप्रदायिकता का विरोध
  • जनभाषा का प्रयोग
  • जनसंस्कृति से जुड़ाव
  • मुक्त छंद का प्रयोग
  • ग्राम्य गीतों जैसे कजरी, लावनी, ठुमरी का ्परयोग
  • मुक्तक रचनाएं

प्रगतिवाद और छायावाद[संपादित करें]

प्रगतिवाद छायावाद के बाद आया। इसमें छायावाद की तुलना में वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में कमी आयी। कवियों ने सामाजिक यथार्थ को छायावाद की तुलना में अधिक अभिव्यक्त किया। कल्पना की अतिशयता समाप्त हुई। उपमानों की लड़ियों का प्रयोग नहीं होने लगा। प्रकृति के काल्पनिक रूप नहीं बल्कि यथार्थ और स्वाभाविक दृश्य चित्रित किए जाने लगा। रहस्यवादी कविताओं का अभाव हो गया। रचनाएँ मुक्तकों में हुई। लंबी कविताएं तो लिखी गई किंतु प्रबंध नहीं लिखा गया।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]