सदस्य:Tarun1997/छायावाद

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द्विवेदी युग के पश्चात हिंदी साहित्य में जो कविता-धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। छायावाद हिन्दी कविता में समाज-कल्याण का स्वर इतना प्रखर था कि मनुष्य की प्रेम और सौन्दर्य की उन्मुक्त भावनाओं को वाणी मिलना बन्द हो गया। फलतः नये समर्थ कवियों ने एक नयी काव्यधारा को जन्म दिया जिसमें प्रेम और सौन्दर्य का सूक्ष्म चित्रण हुआ। इस धारा का छायावाद नाम पड़ा। इसका काल सन् १९२०  ई० से सन् १९३५ ई० तक रहा। छायावादी कवियों ने सचेतन प्रकृति के पीछे किसी अज्ञात चेतन सत्ता के अस्तित्व को अनुभव किया है। उन्हें लगता है कि प्रकृति की नाना वस्तुओं के पीछे छिपी एक रहस्यमयी सत्ता (परमात्मा) उनकी आत्मा को  सहज रूप से अपनी ओर खींच रही है। यह रहस्य-भावना छायावादी कविता की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। सौंन्दर्य का सरस और सूक्ष्म चित्रण इस कविता की प्रमुख विशेषता है। प्रकृति-सौन्दर्य और मानव-सौन्दर्य के असंख्य मोहक चित्र छायावादी काव्य में भरे पड़े है। छायावादी कविता का मूल भाव प्रेम है। प्रेम की सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभूतियों को छायावादी कवियों ने मुक्त भाव से व्यक्त किया है। प्रेम के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों की मादक,मोहक और मार्मिक झाँकी छायावादी काव्य में मिल जाती है। इस कविता में वेदना की गहराई है, करुणा तथा निराशा की भावना है। यों तो सभी कवियों में यह व्यथा और करुणा है, पर महादेवी वर्मा में यह प्रवृत्ति सर्वाधिक है। छायावादी काव्य में नारी के महिमामय रूप  की प्रतिष्ठा हुई है।वह पुरुष की प्रेरणा है। भाषा और शैली की दृष्टि से भी इस काव्य में नवीनता के दर्शन होते हैं। इस युग के कवियों ने खड़ीबोली को ब्रजभाषा जैसी कोमलता और सरसता प्रदान करने के साथ ही उसकी अर्थशक्ति का भी विस्तार किया है। छायावादी कवियों ने नये-नये छन्दों का निर्माण किया। निराला का प्रसिध्द मुक्त छन्द इसी युग की देन है। अलंकारों में नवीनता मिलती है। इस युग की कविता में मानवीकरण, विशेषण विपर्यय, ध्वन्यर्थ व्यंजना जैसे नवीन अलंकारों का भी प्रयोग मिलता है। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त, निराला, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा आदि इस युग के प्रमुख कवि है।

महादेवी वर्मा ने छायावाद का मूल सर्वात्मवाद दर्शन में माना है। उन्होंने लिखा है कि "छायावाद का कवि धर्म के अध्यात्म से अधिक दर्शन के ब्रह्म का ऋणी है, जो मूर्त और अमूर्त विश्व को  मिलाकर पूर्णता पाता है।डॉ॰ राम कुमार वर्मा ने छायावाद और रहस्यवाद में कोई अंतर नहीं माना है।जयशंकर प्रसाद ने छायावाद को अपने ढ़ग से परिभाषित करते हुए कहा है - "कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया।"

जयशंकर प्रसाद (1889-1937) छायावादी काव्‍य के प्रमुख कवि छायावादी प्रवृत्तियों के दर्शन सबसे पहले झरना में होते हैं. उसमें कवि ने सूक्ष्‍म मानसिक भावनाओं को व्‍यक्‍त करके कविता में चिन्‍तन का एक नया आयाम जोड़ा है. आंसू शीर्षक रचना को प्रारम्‍भ में सामान्‍य पाठक ने व्‍यक्‍तिगत वेदना का काव्‍य समझने की भूल की थी, किन्‍तु आंसू में विश्‍व-कल्‍याण की भावना को वेदना के स्‍तर पर अभिव्‍यक्‍त किया गया.कामायनी प्रसाद की अन्‍तिम और सर्वश्रेष्‍ठ रचना है. यह कृति मानव सभ्‍यता के विकास की मनोवैज्ञानिक कथा प्रस्‍तुत करती है. कथानक संक्षिप्‍त है किन्‍तु जीवन के अनेक पक्षों को समन्‍वित करके कवि ने मानव जीवन के विकास के लिए एक व्‍यापक आदर्श व्‍यवस्‍था की स्‍थापना का प्रयास किया है. कामायनी में पात्रों का जमघट नहीं है. तीन प्रमुख पात्रों (मनु, श्रद्धा, इड़ा) के जीवन की अनुभूतियों, कामनाओं, आकांक्षाओं का गम्‍भीर स्‍तर पर वर्णन किया गया है.

सुमित्रानंदन पंत (1900-1977ई.) के काव्य संग्रह-

'वीणा', 'ग्रंथि', 'पल्लव', 'गुंजन', 'युगांत', 'युगवाणी', 'ग्राम्या', 'स्वर्ण-किरण', 'स्वर्ण-धूलि', 'युगान्तर', 'उत्तरा', 'रजत-शिखर', 'शिल्पी', 'प्रतिमा', 'सौवर्ण', 'वाणी', 'चिदंबरा', 'रश्मिबंध', 'कला और बूढ़ा चाँद', 'अभिषेकित', 'हरीश सुरी सुनहरी टेर', 'लोकायतन', 'किरण वीणा'।

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (1898-1961 ई.) के काव्य-संग्रह-

'अनामिका', 'परिमल', 'गीतिका', 'तुलसीदास', 'आराधना', 'कुकुरमुत्ता', 'अणिमा', 'नए पत्ते', 'बेला', 'अर्चना'।

महादेवी वर्मा (1907-1988 ई.) की काव्य रचनाएँ-

'रश्मि', 'निहार', 'नीरजा', 'सांध्यगीत', 'दीपशिखा', 'यामा'।

डॉ॰ रामकुमार वर्मा की काव्य रचनाएँ-

'अंजलि', 'रूपराशि', 'चितौड़ की चिता', 'चंद्रकिरण', 'अभिशाप', 'निशीथ', 'चित्ररेखा', 'वीर हमीर', 'एकलव्य'।

हरिकृष्ण 'प्रेमी' की काव्य रचनाएँ-

'आखों में', 'अनंत के पथ पर', 'रूपदर्शन', 'जादूगरनी', 'अग्निगान', 'स्वर्णविहान'।

जयशंकर प्रसाद[संपादित करें]

हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। प्रसाद जी ने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में 

कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभिन्न साहित्यिक विधाओं में प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध सभी में उनकी गति समान है। किन्तु अपनी हर विद्या में उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विधाओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिये अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है, उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है। उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं। अभिनेयता को दृष्टि में रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिये न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल। उनका यह कथन हीनाटक रचना के आन्तरिक विधान को अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्व कर देता है। 

ये पहले ब्रजभाषा की कविताएँ लिखा करते थे जिनका संग्रह ‘चित्राधार’ में हुआ है। संवत् 1970 से वे खड़ी बोली की ओर आए और ‘कानन कुसुम’, ‘महाराणा का महत्त्व’, ‘करुणालय’ और ‘प्रेमपथिक’ प्रकाशित हुए। ‘कानन कुसुम’ में तो प्राय: उसी ढंग की कविताएँ हैं जिस ढंग की द्विवेदीकाल में निकला करती थीं। ‘महाराणा का महत्त्व’ और ‘प्रेमपथिक’ (सं. 1970) अतुकांत रचनाएँ हैं जिसका मार्ग पं. श्रीधर पाठक पहले दिखा चुके थे। प्रसाद जी की पहली विशिष्ट रचना ‘आँसू’ (संवत् 1988) है। आँसू वास्तव में तो हैं शृंगारी विप्रलंभ के, जिनमें अतीत संयोगसुख की खिन्न स्मृतियाँ रह-रहकर झलक मारती हैं; पर जहाँ प्रेमी की मादकता की बेसुधी में प्रियतम नीचे से ऊपर आते और संज्ञा की दशा में चले जाते हैं, जहाँ हृदय की तरंगें ‘उस अनंत कोने’ को नहलाने चलती है, वहाँ वे आँसू उस ‘अज्ञात प्रियतम’ के लिए बहते जान पड़ते हैं। ‘आँसू’ के बाद दूसरी रचना ‘लहर’ है, जो कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। ‘लहर’ से कवि का अभिप्राय उस आनंद की लहर से है जो मनुष्य के मानस से उठा करती है और उसके जीवन को सरस करती रहती है।

किसी एक विशाल भावना को रूप देने की ओर भी अंत में प्रसाद जी ने ध्यान दिया, जिसका परिणाम है- ‘कामायनी’। इसमें उन्होंने अपने प्रिय ‘आनंद’ की प्रतिष्ठा दार्शनिकता के ऊपरी आभास के साथ कल्पना की मधुमती बनकर भूमिका बनाकर दी है। यह आनंदवाद वल्लभाचार्य के ‘काय’ या आनंद के ढंग का न होकर, तंत्रियों और योगियों की अंतर्भूमि पद्धति पर है। प्राचीन जलप्लावन के उपरांत मनु द्वारा मानवी सृष्टि के पुनर्विधान का आख्यान लेकर इस प्रबंध काव्य की रचना हुई है। काव्य का आधार है मनु का पहले श्रद्धा को फिर इड़ा को पत्नी रूप में ग्रहण करना तथा इड़ा को बंदिनी या सर्वथा अधीन बनाने का प्रयत्न करने पर देवताओं का उन पर कोप करना ‘रूपक’ की भावना के अनुसार श्रद्धा विश्वास समन्वित रागात्मिका वृत्ति है और इड़ा व्यवसायात्मिका बुध्दि। कवि ने श्रध्दा को मृदुता, प्रेम और करुणा का प्रवर्तन करने वाली और सच्चे आनंद तक पहुँचाने वाली चित्रित किया है। इड़ा या बुध्दि अनेक प्रकार के वर्गीकरण और व्यवस्थाओं में प्रवृत्त करती हुई कर्मों में उलझाने वाली चित्रित की गई है।

रचनाएँ[संपादित करें]

प्रसाद जी की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है-

कामायनी[संपादित करें]

कामायनी महाकाव्य कवि प्रसाद की अक्षय कीर्ति का स्तम्भ है। भाषा, शैली और विषय-तीनों ही की दृष्टि से यह विश्व-साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है। 'कामायनी' में प्रसादजी ने प्रतीकात्मक पात्रों के द्वारा मानव के मनोवैज्ञानिक विकास को प्रस्तुत किया है तथा मानव जीवन में श्रद्धा और बुद्धि के समन्वित जीवन-दर्शन को प्रतिष्ठा प्रदान की है।

आँसू[संपादित करें]

आँसू कवि के मर्मस्पर्शी वियोगपरक उदगारों का प्रस्तुतीकरण है।

लहर[संपादित करें]

यह मुक्तक रचनाओं का संग्रह है।

झरना[संपादित करें]

प्रसाद जी की छायावादी शैली में रचित कविताएँ इसमें संगृहीत हैं।

चित्राधार[संपादित करें]

चित्राधार प्रसाद जी की ब्रज में रची गयी कविताओं का संग्रह है।

गद्य रचनाएँ[संपादित करें]

प्रसाद जी की प्रमुख गद्य रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

नाटक[संपादित करें]

चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, स्कन्दगुप्त, जनमेजय का नागयज्ञ, एक घूँट, विशाख, अजातशत्रु आदि।

कहानी-संग्रह[संपादित करें]

प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आँधी तथा इन्द्रजाल आपके कहानी संग्रह हैं।

उपन्यास[संपादित करें]

तितली और कंकाल।

निबन्ध[संपादित करें]

काव्य और कला।

भाषा[संपादित करें]

प्रसाद जी की भाषा के कई रूप उनके काव्य की विकास यात्रा में दिखाई पड़ते हैं। आपने आरम्भ ब्रजभाषा से किया और फिर खड़ीबोली को अपनाकर उसे परिष्कृत, प्रवाहमयी, संस्कृतनिष्ठ भाषा के रूप में अपनी काव्य भाषा बना लिया। प्रसाद जी का शब्द चयन ध्वन्यात्मक सौन्दर्य से भी समन्वित है; यथा-

खग कुल कुल कुल-सा बोल रहा,

किसलय का अंचल डोल रहा।

प्रसाद जी ने लाक्षणिक शब्दावली के प्रयोग द्वारा अपनी रचनाओं में मार्मिक सौन्दर्य की सृष्टि की है।

शैली[संपादित करें]

प्रसाद जी की काव्य शैली में परम्परागत तथा नव्य अभिव्यक्ति कौशल का सुन्दर समन्वय है। उसमें ओज, माधुर्य और प्रसाद-तीनों गुणों की सुसंगति है। विषय और भाव के अनुकूल विविध शैलियों का प्रौढ़ प्रयोग उनके काव्य में प्राप्त होता है। वर्णनात्मक, भावात्मक, आलंकारिक, सूक्तिपरक, प्रतीकात्मक आदि शैली-रूप उनकी अभिव्यक्ति को पूर्णता प्रदान करते हैं। वर्णनात्मक शैली में शब्द चित्रांकन की कुशलता दर्शनीय होती है।

अलंकरण[संपादित करें]

प्रसाद जी की दृष्टि साम्यमूलक अलंकारों पर ही रही है। शब्दालंकार अनायास ही आए हैं। रूपक, रूपकातिशयोक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीक आदि आपके प्रिय अलंकार हैं।

छन्द[संपादित करें]

प्रसाद जी ने विविध छन्दों के माध्यम से काव्य को सफल अभिव्यक्ति प्रदान की है। भावानुसार छन्द-परिवर्तन 'कामायनी' में दर्शनीय है। 'आँसू' के छन्द उसके विषय में सर्वधा अनुकूल हैं। गीतों का भी सफल प्रयोग प्रसादजी ने किया है। भाषा की तत्समता, छन्द की गेयता और लय को प्रभावित नहीं करती है। 'कामायनी' के शिल्पी के रूप में प्रसादजी न केवल हिन्दी साहित्य की अपितु विश्व साहित्य की विभूति हैं। आपने भारतीय संस्कृति के विश्वजनीन सन्दर्भों को प्रस्तुत किया है तथा इतिहास के गौरवमय पृष्ठों को समक्ष लाकर हर भारतीय हृदय को आत्म-गौरव का सुख प्रदान किया है। हिन्दी साहित्य के लिए प्रसाद जी माँ सरस्वती का प्रसाद हैं।

जयशंकर प्रसाद जी का देहान्त 15 नवम्बर, सन् 1937 ई. में हो गया। प्रसाद जी भारत के उन्नत अतीत का जीवित वातावरण प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। उनकी कितनी ही कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें आदि से अंत तक भारतीय संस्कृति एवं आदर्शो की रक्षा का सफल प्रयास किया गया है। और ‘आँसू’ ने उनके हृदय की उस पीड़ा को शब्द दिए जो उनके जीवन में अचानक मेहमान बनकर आई और हिन्दी भाषा को समृद्ध कर गई।

संदर्भ[संपादित करें]

http://kavitakosh.org/kk

आचार्य रामचंद्र शुक्ल; हिन्दी साहित्य का इतिहास; नागरीप्रचारिणी सभा, काशी; संस्करण संवत् 2035; पृष्ठ- 459-464

http://bharatdiscovery.org/