अंश (वित्त)
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वित्त में, अंश अथवा शेयर का अर्थ किसी कम्पनी में भाग या हिस्सा होता है। एक कंपनी के कुल स्वामित्व को लाखों करोड़ों टुकड़ों में बाँट दिया जाता है। स्वामित्व का हर एक टुकड़ा एक शेयर होता है। जिसके पास ऐसे जितने ज्यादा टुकड़े, यानी जितने ज्यादा शेयर होंगे, कंपनी में उसकी हिस्सेदारी उतनी ही ज्यादा होगी। लोग इस हिस्सेदारी को खरीद-बेच भी सकते हैं। इसके लिए बाकायदा शेयर बाजार (स्टॉक एक्सचेंज) बने हुए हैं। भारत में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बी॰एस॰ई॰) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एन॰एस॰ई॰) सबसे प्रमुख शेयर बाजार हैं।
परिभाषा
[संपादित करें]कंपनी अधिनियम 2013, की धारा 2(84) के अनुसार - "अंश का आशय कंपनी की अंश-पूँजी के अंश से है और उसमें स्कन्ध को शामिल किया जाता है, जब तक कि स्कन्ध और अंश में स्पष्टतया या गर्भित रूप से अंतर न किया गया हो।"
प्रकार
[संपादित करें]प्रायः शेयर दो प्रकार के होते हैं: साधारण और वरीय शेयर।
साधारण शेयर्स
[संपादित करें]साधारण शेयर (ऑर्डिनरी शेयर) किसी भी औद्योगिक उपक्रम में निवेशक की आंशिक हिस्सेदारी का प्रतिनिधित्व करते हैं। आम शेयरधारक ने जिस कंपनी में निवेश किया है उसके लाभ से डिविडेंड पाता है। यदि वो कंपनी किसी वजह से बंद हो रही है तो पहले सारे हिस्सेदार जैसे कि सरकार, कर्मचारी, कर्जदाता, प्रिफरेंशियल शेयरधारक को भुगतान किया जाता है। इसके बाद यदि रकम बचती है जब भी डिविडेंड या कंपनी बंद होने की दशा में भुगतान की बात आती है तो प्रिफरेंस शेयरधारकों को प्राथमिकता दी जाती है।
पार वैल्यु
[संपादित करें]पार वैल्यू किसी शेयर का अनुमानित मान (National वैल्यू) होता है, यानी कि वो कीमत जो उसे जारी करने वाली कंपनी की बैलेंस शीट में दर्ज होती है। आमतौर पर कंपनियाँ १० या १०० रुपये की पार वैल्यू रखती है। लेकिन कंपनियाँ कोई भी पार वैल्यू तय कर सकती हैं लेकिन वह १० के गुणक या अंश में होनी चाहिए जैसे कि १३.५। कंपनी इनीशियल इश्यू के बाद पार वैल्यू में बदलाव कर सकती है। कोई कंपनी पार वैल्यू से अधिक मूल्य के शेयर जारी कर सकती है, जिसे प्रीमियम कहा जाता है, यदि वह सेबी के लाभप्रदता मानदंड (प्रॉफिटेबिलिटी क्राइटेरिया) या लाभ देन सकने के पैमाने पर खरी उतरती है। इसका अर्थ ये हुआ कि कोई कंपनी जरूरी रकम उगाहने के लिए कम शेयर जारी कर पाएगी और साथ ही उसकी डिविडेंड लाएबिलिटी या लाभांश की देनदारी भी उसी के हिसाब से कम हो जाएगी। उदाहरण के लिये किसी कंपनी के शेयर्स की पार वैल्यू ५० रुपये हैं लेकिन कंपनी सेबी के प्रॉफिटैबिलिटी क्राइटेरिया पर खरी उतरती है इसलिए वो अपने शेयरों को ७५ रुपये की कीमत पर जारी कर सकती है। यानी २५ रुपये के प्रीमियम पर जारी कर सकती है। यहाँ ये ध्यान योग्य है कि कंपनी अपना लाभांश या डिविडेंड शेयर के पार या फेस वैल्यू पर घोषित करती है, चाहे वो शेयर कितने भी प्रीमियम पर जारी क्यों ना हुआ हो।
शेयर का मूल्य
[संपादित करें]इनीशियल पब्लिक ऑफर के मामले में कंपनियाँ निम्न तीन तरीकों में से किसी एक तरीके का प्रयोग करते हुए शेयर का मूल्य तय करती हैं:
तय कीमत विधि
[संपादित करें]यानि फिक्स्ड प्राइस मेथड के अनुसार जिस मूल्य पर शेयर ऑफर किए जाते हैं उसे कंपनी तय कर देती है। ये काम इश्यू खुलने से पहले ही कर लिया जाता है। शेयरों की मांग कितनी है इसका पता कंपनी को तभी हो पाता है जब इश्यू बंद हो जाता है। इस विधि से शेयर्स प्रीमियम पर भी सूचित किए जा सकते हैं।
बुक बिल्डिंग विधि
[संपादित करें]इस विधि में निवेशक को ऑफर किए शेयर का शुद्ध मूल्य का अनुमान नहीं हो पाता है। इसकी बजाय कंपनी शेयर के लिए सांकेतिक मूल्य रेंज तय करती है। निवेशक अपनी क्षमता के अनुसार अलग-अलग शेयरों के लिए बोली लगाते हैं। ये बोली तय मूल्य परास के भीतर की कुछ भी हो सकती है। शेयरों के लिए आई बोली की मात्रा को देखते हुए शेयर की कीमत तय की जाती है और जितने भी निवेशकों ने इसके लिए आवेदन किया होता है उन्हें इसी कीमत पर शेयर दिए जाते हैं, चाहे उन्होंने बोली में कोई और रकम तय की हो। आर्थिक क्षेत्र में प्रचलित है कि बुक बिल्डिंग विधि के जरिए शेयर की बेहतर कीमत मिल पाती है। ओवरसब्सक्रिप्शन होने पर कंपनी ग्रीनहाउस ऑप्शन पर भी जा सकती है।
ग्रीनहाउस- ग्रीनसु विकल्प
[संपादित करें]प्रायः अधिकांश दातर अच्छी कंपनियों के आई॰पी॰ओ॰ तय सीमा से कई गुना अधिक बिकते हैं यानी ओवरसब्सक्राइब हो जाते हैं। ऐसे में कंपनी ग्रीनहाउस विकल्प का प्रयोग भी कर सकती है। इसके द्वारा कंपनी अतिरिक्त शेयर जारी कर सकती है ताकि वो निवेशकों की मांग को पूरा पाये। हालाँकि ओवरसब्सक्रिप्शन के अनुपात के बारे में कंपनी को अपने ऑफर डॉक्यूमेंट में पहले से ही बताना आवश्यक होता है।
इस प्रकार इन तीनों तरीकों से आवंटित हुए शेयर निवेशक, संस्थान या कंपनी के डीमैट अकाउंट में जमा हो जाते हैं।
शेयर, अंश या हिस्सा
[संपादित करें]व्यक्ति की चलसंपत्ति दो प्रकार की होती है - भोगाधीन वस्तु (Chose in possession) और वादप्राप्य स्ववस्तु (Chose in action)। भोगाधीन वस्तु के मायने हैं वह संपत्ति जो आपके वास्तविक व्यक्तिगत अधिकार में है लेकिन वादप्राप्य स्ववस्तु के मायने वह संपत्ति है जो आपके तात्कालिक अधिकार में नहीं है। उसपर आपका अधिकार है जिसे वैधानिक कार्यवाही द्वारा क्रियान्वित किया जा सकता है। यह अधिकार सामान्यतः एक आलेख (Document) द्वारा प्रमाणित होता है, उदाहरणार्थ - रेलवे की रसीद द्वारा। प्रमंडल (कंपनी या समवाय) में एक अंश (हिस्सा या शेयर) भी वादप्राप्य स्ववस्तु है और अंशपत्र उसका प्रमाण है। लेकिन भारतवर्ष में अंश माल (Goods, गुड्स) माना जाता है। प्रमंडल (समवाय) अधिनियम (Company act) 1956 की धारा 82 की परिभाषा में कहा गया है कि प्रमंडल में किसी व्यक्ति का अंश या अन्य निहित स्वार्थ 'चल संपत्ति' माना जाएगा। वस्तुविक्रय अधिनियम (Sale of Goods Act) में वस्तु या माल की परिभाषा में हर प्रकार की चल संपत्ति सम्मिलित है। इसलिए प्रमंडल के अंश केवल वादप्राप्य स्ववस्तु ही नहीं, अपितु वस्तु या माल (गुड्स) भी हैं।
अंश का वास्तविक स्वरूप सरलता से स्पष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रमंडल उसका निर्माण करने वाले अंशधारियों के समूह से सर्वथा भिन्न है। संस्थापित प्रमंडल (Incorporated Company) की अंशपूँजी (Capital stock) का होना सार्वत्रिक है, यद्यपि अनिवार्य नहीं। यह भी समान रूप से सार्वत्रिक है, अनिवार्य नहीं, कि पूँजी को अभिहितमूल्य (nominal value) के अंशों में बाँटा जाए। वह व्यक्ति जिसके पास इस प्रकार का अंश है, अंशधारी (Shareholder) कहलाता है। इसलिए प्रत्येक अंशधारी के पास प्रमंडल की पूँजी का एक भाग रहता है। लेकिन विधिक दृष्टि से अंशधारी उस उद्यम या कारखाने का आंशिक स्वामी नहीं है। उद्यम अंशधारियों की संपूर्ण पूँजी से कुछ भिन्न वस्तु हैं। प्रमंडल की समस्त परिसंपत्ति (Assets) उक्त सुसंगठित संस्थान में निहित है, उसे बनाने वाले व्यक्तियों में नहीं।
विधान की दृष्टि में अंशधारियों के कुछ अधिकारों और निहित स्वार्थों के साथ साथ कुछ दायित्व भी हैं। अंशधारी का हित या स्वार्थ महज चल संपत्ति से नहीं, वरन् स्वयं प्रमंडल से होता है। यह स्वार्थ स्थायी ढंग का होता है। अंश प्रमंडल में अंशधारी का वह हित है जो दो दृष्टियों से धन की रकम के रूप में मापा जाता है, एक तो दायित्व और लाभांश की दृष्टि से, दूसरे ब्याज की दृष्टि से। और इसमें प्रमंडल की अंतर्नियमावली (Article of Association) में निहित संविदाएँ भी सम्मिलित हैं। अंश मुद्रा या धन (money) नहीं, अपितु मुद्र के रूप में आँका गया वह हित है जिसमें विभिन्न अधिकार और दायित्व जुड़े हुए हैं। अंश अधिकारों या हकों का विद्यमान समूह है। उदाहरणार्थ, अंश के कारण अंशधारी प्रमंडल के लाभों का एक समानुपातिक भाग प्राप्त करने, अंतर्नियमों के आधार पर प्रमंडल के कारोबार में हाथ बँटाने, कारोबार की समाप्ति पर संपत्ति का आनुपातिक भाग पाने तथा सदस्यता के सभी अन्य लाभों का अधिकारी हो जाता है। अंश के कुछ दायित्व भी हैं। उदाहरणार्थ - प्रमंडल की परिसमाप्ति पर पूर्ण मूल्य की देयता। यह सभी अधिकार और दायित्व प्रमंडल के अंतर्नियमों द्वारा नियमित अधिकार और दायित्व शेयर या अंश का मूलभूत तत्त्व है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- भागीदार या साझीदार या अंशधारक
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- कार्पोरेट कार्य मंत्रालय कंपनी अधिनियम 2013