एकयान

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एकयान ( परम्परागत चीनी : 一乘 ; फीनयिन : Yīchéng ; जापानी : いちじょう; कोरियाई : 일승) एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ "एक पथ" या "एक वाहन" है। यह एक म्हत्वपूर्ण अवधारण आ है जिसका उपयोग उपनिषदों और महायान सूत्र दोनों में किया गया है।

उपनिषदों में[संपादित करें]

बृहदारण्यक उपनिषद में "एकयान" को आध्यात्मिक यात्रा के रूपक के रूप में विशेष महत्व दिया गया है। वेदानां वाक् एकयानम् वाक्यांश का अनुवाद लगभग " वेदों का एकमात्र गंतव्य" है। [1] [2]

महायान बौद्धधर्म[संपादित करें]

सद्धर्मपुण्डरीकत्र, श्रीमालादेवी सिंहनाद सूत्र, [3] रत्नगोत्रविभाग और तथागतगर्भ सूत्र प्राथमिक प्रभाव वाले एकयान सूत्र हैं। [4] इसी प्रकार की शिक्षा लंकावतार सूत्र और अवतमासक सूत्र में भी मिलती है। [4] सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र में घोषणा की गई है कि " श्रावक , प्रत्यक्षबुद्ध , और बोधिसत्व के तीन वाहन वास्तव में प्राणियों को एक बुद्ध वाहन की ओर आकर्षित करने के लिए केवल तीन समीचीन उपकरण ( उपायकौशल्य ) हैं, जिसके माध्यम से वे सभी बुद्ध बन जाते हैं।" [3] [5] [6]

चीनी बौद्धधर्म[संपादित करें]

यद्यपि भारत से "एकयान" बौद्ध धर्म सहित का शेष बौद्ध धर्म का पतन हो गया, किन्तु वही "एकयान" यह चीन में बौद्ध धर्म के संस्कृतिकरण और स्वीकृति का एक प्रमुख पहलू बन गया। चीन ने जब बौद्ध धर्म को आत्मसात किया तब बौद्ध ग्रंथों की महान विविधता के कारण इस बात की समस्या सामने आ गयी कि इसमें से बौद्ध शिक्षाण के मूल को कैसे छाँटा जाय।

इस समस्या को चीनी बौद्ध गुरुओं ने एक या एक से अधिक एकयान सूत्रों को लेकर हल किया। तियानताई (जापानी तेंडाई ) और हुआयेन (जापानी केगॉन ) बौद्ध संप्रदायों के सिद्धांत और प्रथाएं बौद्ध धर्म की विविधता का एक संश्लेषण प्रस्तुत करने में सक्षम थीं जो चीनी विश्वदृष्टि के लिए समझने योग्य और सुखद था।

चान बौद्धधर्म[संपादित करें]

चान बौद्ध धर्म ने उपरोक्त कार्य के लिये लंकावतार सूत्र में सिखाए गए ध्यान के अभ्यास पर ध्यान केंद्रित किया। साथ ही साथ अवतंसक सूत्र और सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र द्वारा प्रस्तुत पारलौकिक और भक्ति के पहलुओं को स्वीकार किया। भारतीय बौद्ध भिक्षु बोधिधर्म (लगभग 5वीं से 6वीं शताब्दी), जिन्हें चान बौद्ध धर्म का संस्थापक माना जाता है, के बारे में कहा जाता है कि वे "दक्षिणी भारत के एकयान सम्प्रदाय" को चीन ले गये और लंकावतारसूत्र के साथ इसे अपने प्राथमिक शिष्य, दाज़ु हुईके (487-593) को इसकी शिक्षा दी।माना जाता है कि दाजु हुइके, चान वंश के दूसरे संस्थापक पूर्वज थे। [7] , [8] 

गुइफ़ेंग ज़ोंग्मी (780 - 841) की मान्यता चान और हुयान दोनों वंशों के गुरु के रूप में थी। उनके ग्रंथ में, द ओरिजिनल पर्सन डिबेट ( चीनी : 原人論) ), वह स्पष्ट रूप से एकयान शिक्षाओं को आध्यात्मिक अनुभूति के सबसे गहन प्रकार के रूप में पहचानते हैं और इसे स्वयं की प्रकृति के प्रत्यक्ष बोध के साथ जोड़ते हैं।

इस प्रकार, ज़ोंगमी के अनुसार, जो हुयान और चान दोनों के वंश गुरु थे, उन्होंने स्पष्ट रूप से एकयान को महायान से अलग किया तथा योगाचार और माध्यमक की महायान शिक्षाओं पर एकयान की शिक्षाओं ने ग्रहण लगा दिया।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Bṛhadaraṇyaka Upaniṣad in romanized Sanskrit (sanskritdocuments.org)
  2. Brihadaranyaka Upanishad, translated by Swami Madhavananda (II.iv.11,p. 363 and IV.v.12, p. 780)
  3. Buswell, Robert E., Lopez, Donald S. Jr. (2014). The Princeton Dictionary of Buddhism, Princeton: Princeton University Press, p.281-2
  4. Grosnick, William (1981). Nonorigination and Nirvana in the Early Thatagatagarbha Literature, Journal of the International Association of Buddhist Studies 4/2, 34
  5. Kern, Johan Hendrik, tr. (1884). Saddharma Pundarîka or the Lotus of the True Law, Sacred Books of the East, Vol. XXI, Oxford: Clarendon Press. Reprints: New York: Dover 1963, Delhi 1968. (Upaya chapter)
  6. Vaidya, P. L. (1960). Saddharmapuṇḍarīkasūtram Archived 2014-10-13 at the वेबैक मशीन, Darbhanga: The Mithila Institute of Post-Graduate Studies and Research in Sanskrit Learning. (Romanized Sanskrit)
  7. D.T. Suzuki in his Studies in the Lankavatara Sutra relates a portion of the biography of Fa-ch'ung on his special relationship with the Lankavatara Sutra: "Fa-ch'ung, deploring very much that the deep signification of the Lankavatara had been neglected for so long, went around everywhere regardless of the difficulties of travelling in the far-away mountains and over the lonely wastes. He finally came upon the descendants of Hui-k'e among whom this sutra was being studied a great deal. He put himself under the tutorship of a master and had frequent occasions of spiritual realisation. The master then let him leave the company of his fellow-students and follow his own way in lecturing on the Lankavatara. He lectured over thirty times in succession. Later he met a monk who had been instructed personally by Hui-k'e in the teaching of the Lankavatara according to the interpretations of the Ekayana (one-vehicle) school of Southern India." (pp. 51-52.)
  8. Yampolsky, Philip B. (1967). The Platform Sutra of the Sixth Patriarch (PDF). Columbia University Press. मूल (PDF) से 21 मई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 May 2015. In the biography of Fa-ch'ung in the Hsu kao-seng chuan, T50, p. 666b, there is mention of the 'One-vehicle sect of India (Nan-t'ien-chu i-ch'eng tsung)' in reference to Bodhidharma's teaching.