वैशाली की नगरवधू
वैशाली की नगरवधू, आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा रचित एक हिन्दी उपन्यास है जिसकी गणना हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में की जाती है। यह उपन्यास दो भागों में हैं, जिसके प्रथम संस्करण दिल्ली से क्रमशः 1948 तथा 1949 ई. में प्रकाशित हुए। इस उपन्यास के सम्बन्ध में इसके आचार्य चतुरसेन जी ने कहा था,मेरी अब तक की सारी रचनाओं को रद्द करता हूँ और ‘वैशाली की नगरवधू’ को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूँ।’
इसमें भारतीय जीवन का एक जीता-जागता चित्र अंकित हैं। इस उपन्यास का कथात्मक परिवेश ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक है। इसकी कहानी बौद्ध काल से सम्बद्ध है और इसमें तत्कालीन लिच्छिवि संघ की राजधानी वैशाली की पुरावधू 'आम्रपाली' को प्रधान चरित्र के रूप में अवतरित करते हुए उस युग के हास-विलासपूर्ण सांस्कृतिक वातावरण को अंकित करने हुए चेष्टा की गयी है।
उपन्यास में घटनाओं की प्रधानता है किन्तु उनका संघटन सतर्कतापूर्वक किया गया है और बौद्धकालीन सामग्री के विभिन्न स्रोतों का उपयोग करते हुए उन्हें एक सीमा तक प्रामाणिक एवं प्रभावोत्पादक बनाने की चेष्टा की गयी है। उपन्यास की भाषा में ऐतिहासिक वातावरण का निर्माण करने के लिए बहुत से पुराकालीन शब्दों का उपयोग किया गया है। कुल मिलाकर चतुरसेन की यह कृति हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासों में उल्लेखनीय है।
आचार्य चतुरसेन ने इस उपन्यास की भूमिका में लिखा है कि उन्होंने इस उपन्यास की रचना के लिए दस वर्ष तक आर्य, बौद्ध, जैन और हिन्दुओं के साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन किया। उनके अनुसार इस उपन्यास का उद्देश्य ‘‘आर्यों के धर्म, साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय और मिश्रित जातियों की प्रगतिशील संस्कृति की विजय’’ दिखाना है, जिसे छुपाया जाता रहा। ध्यातव्य है कि यह सन् 1949 की रचना है और उस समय भारत के निर्माण और विकास की चुनौती भारतीय बौद्धिकता का बुनियादी सवाल थी। इसके उत्तर की सम्भावना अतीत में भी थी।
इस उपन्यास में दो जगहों का बुनियादी महत्व है: वैशाली और मगध। मगध आर्य जाति का प्रतीक है, साम्राज्य (वादी) है। उसमें राजतंत्र है। राजा की इच्छा ही वहाँ कानून है। उसमें प्रायः अधिकारों की बात की जाती है। दूसरी तरफ वैशाली है जो मिश्रित जातियों का प्रतिनिधित्व करती है। उसमें गणतंत्र है, चुनी हुई राज्य-परिषद् का मत उसके लिए कानून है। उसमें अक्सर कर्त्तव्यों की बात की जाती है। उपन्यास वस्तुतः मगध और वैशाली के रूप में साम्राज्य और गणतंत्र के टकराव को रूप देता है।
आचार्य चतुरसेन वैशाली के पक्षधर हैं। कारण यह कि राजतन्त्र और तानाशाह की विजय, शत्रु का पूरी तरह नाश कर देती है जबकि लोकतन्त्र और जनप्रतिनिधियों की विजय उतनी हिंसक नहीं होती।
उपन्यास के उद्देश्य के अनुसार आर्यों की नीचता बताते हुए उपन्यासकार एक पात्र द्वारा कहता है-
- यह आर्यों की पुरानी नीचता है। सभी धूर्त कामुक आर्य अपनी कामवासना-पूर्ति के लिए इतर जातियों की स्त्रियों के रेवड़ों को घर में भर रखते हैं। लालच-लोभ देकर कुमारियों को ख़रीद लेना, छल-बल से उन्हें वश कर लेना, रोती-कलपती कन्याओं का बलात् हरण करना, मूर्च्छिता- मदबेहोशों का कौमार्य भंग करना- यह सब धूर्त आर्यों ने विवाहों में सम्मिलित कर लिया। फिर बिना ही विवाह के दासी रखने में भी बाधा नहीं।
इसी तरह अनार्यों की श्रेष्ठता बताते हुए उपन्यासकार एक पात्र द्वारा कहता है-
- सर्वजित् निर्ग्रंथ महावीर और शाक्यपुत्र गौतम ने आर्यों के धर्म का समूल नाश प्रारम्भ कर दिया है। उन्होंने नया धर्म-चक्र प्रवर्तन किया है जहाँ वेद नहीं हैं, वेद का कर्त्ता ईश्वर नहीं है, बड़ी-बड़ी दक्षिणा लेकर राजाओं के पापों का समर्थन करने वाले ब्राह्मण नहीं हैं। ब्रह्म और आत्मा का पाखण्ड नहीं है। उन्होंने जीवन का सत्य देखा है, वे इसी का लोक में प्रचार कर रहे हैं।
प्रमुख पात्र
[संपादित करें]वैशाली के
[संपादित करें]महानामन्। अम्बपाली। सिंह। युवराज स्वर्णसेन। युवराज का साथी सूर्यमल्ल। दस्यु बलभद्र (सोम)। कृतपुण्य सेठ (हर्षदेव)। कृतपुण्य का पुत्र भद्रगुप्त। महाबलाधिकृत सुमन सेनापति और सिंह उपसेनापति। संधिवैग्राहिक जयराज। कीमियागर गौड़पाद। वेश्या भद्रनंदिनी (कुंडनी)। एक काली छाया। गणदूत काप्यक। वादरायण मठ के अधीश्वर भगवान् वादरायण। एक वन्य युवक।
मगध के
[संपादित करें]राजधानी : राजगृह। राजा: बिम्बिसार या श्रेणिक। अमात्य: वर्षकार। राजकुमार अभयकुमार। आचार्य शाम्बव्य काश्यप। मातंगी—सोम, कुंडनी, अम्बपाली। कुंडनी मातंगी की बेटी। सोम—कुंडनी का भाई। मातंगी का बेटा। मगध के महासेनापति चंडभद्रिक। सेनापति: सोमप्रभ।
अन्य
[संपादित करें]कोसल: राजधानी : श्रावस्ती। राजा : प्रसेनजित्। उनका पुत्र: विदूडभ। विदूडभ की माता दासी थी, जो बाद में राजमाता नंदिनी बनी। सेनापति: कारायण। आचार्य अजित केसकम्बली।
चम्पा: राजा: दधिवाहन। राजकुमारी राजनंदिनी।
अवन्ति का राजा चंडमहासेन प्रद्योत, मथुरा का राजा अवंतिवर्मन। कौशाम्बी का राजा उदयन। कुशीनारा का योद्धा बंधुल मल्ल। गांधार की कलिंगसेना, जो श्रावस्ती में रही।
धार्मिक पात्र: गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, शालिभद्र और धन्य, हरिकेशबल।
कथावस्तु
[संपादित करें]महानामन वैशाली के प्रहरी-प्रमुख हैं। उनको आम के पेड़ के नीचे एक नवजात कन्या मिली। इसलिए उन्होंने उसका नाम रखा- अम्बपाली। अम्बपाली ने उनको अड़तीस साल के बाद पिता बनने का सुख दिया। वे वैशाली की नौकरी छोड़ गाँव में कन्या का पालन-पोषण करने लगे। कारण यह कि अम्बपाली अत्यन्त सुन्दर थी। वैशाली में कानून था कि उसकी सर्वाधिक सुन्दर कन्या उसकी नगरवधू/जनपद-कल्याणी बनेगी। उसे सभी राजकीय सुविधाएँ मिलेंगी पर साधारण स्त्री की तरह अपनी पसन्द के पुरुष से विवाह करने, बच्चे पैदा करने और घर बसाने का अधिकार नहीं होगा। अम्बपाली के शब्दों में आचार्य चतुरसेन ने इस कानून को बार-बार ‘धिक्कृत कानून’ कहा है। इस कानून से बचाने के लिए महानामन् अम्बपाली को वैशाली से दूर ले गए पर बचा नहीं पाए।
हुआ यह कि बच्ची के साथ-साथ उसकी इच्छाएँ भी बड़ी होने लगीं। हर इच्छा की पूर्ति गॉंव में होना सम्भव नहीं था। उदाहरण के लिए वैशाली की लड़कियाँ जो कपड़े पहनती थीं, वे गॉंव में नहीं मिल सकते थे। अम्बपाली उनके लिए रोती थी। उसका रोना न सह पाने के कारण महानामन् उसे पुनः वैशाली लाए।
अम्बपाली सुन्दरता में अनुपम थी। उसके सामने नगरवधू बनने का लगभग बाध्यकारी प्रस्ताव था। उसने अपने साहस का परिचय देते हुए सब राजपुरुषों के सामने वैशाली के कानून को ‘धिक्कृत’ कहा। आपत्ति हुई तो उसे और बल देकर ‘धिक्कृत’ कहा। ऐसा कहकर उसने सिद्ध किया कि वह सुन्दर और साहसी ही नहीं, बुद्धिमती भी है। उसके साहस का प्रमाण है कि वह नगरवधू बनने के लिए वैशाली के राजपुरुषों के सामने तीन शर्तें रखती है और उनके न मानने पर वैशाली के हत्यारों का इंतज़ार करने को तैयार है पर समझौता या आत्मसमर्पण करने को नहीं। उसकी तीन शर्तें ये हैं: (१) राजसी रहन-सहन की सारी सुविधाऍं मिलें ; (२) उसके महल की सुरक्षा का प्रबन्ध दुर्ग की तरह हो ; (३) उसके महल में आने-जाने वालों की जाँच न हो। इस तरह उसने अपने लिए सम्पन्नता, सुरक्षा और स्वतन्त्रता सुनिश्चित की। तीसरी शर्त संशोधन सहित मानी गई कि जाँच की आवश्यकता पड़ी तो एक सप्ताह पहले सूचना दी जाएगी।
अम्बपाली अपने देश से प्रेम करती है। उसका अपना सपना एक साधारण स्त्री की तरह जीने का है। वह नगरवधू नहीं बनना चाहती। उसपर दबाव डाला जाता है। वैशाली के गणपति उससे वैशाली की अखण्डता के लिए उसके नौजवानों की एकता और शत्रुओं के विरुद्ध सक्रियता सम्भव करने की भीख माँगते हैं तो वह अपनी तीसरी शर्त में संशोधन स्वीकार कर लेती है। उसका पहला प्रेमी हर्षदेव, महानामन् के पुराने मित्र का बेटा था। उसके साथ उसकी सगाई हो चुकी थी। फिर भी वह वैशाली की भलाई के लिए अपने व्यक्तिगत सुख को छोड़ने के लिए तैयार हो जाती है लेकिन उसके मन में वैशाली के ‘धिक्कृत कनून’ के लिए भरपूर घृणा है। उसका प्रिय हर्षदेव जब उसके महल ‘सप्तभूमिप्रासाद’ आता है तो वह उसे वैशाली को भस्म कर देने के लिए कहती है। वह यही करने का संकल्प करता है तो कहती है कि वह संकल्प–पूर्ति की प्रतीक्षा करेगी। इतनी घृणा उसमें है धिक्कृत कानून के प्रति। इसका परिचय उस समय भी मिलता है, जब वह वैशाली और राजगृह के बीच रास्ते पर स्थित वादरायण मठ में मगध के राजा से मिलती है। राजा उससे प्रेम की याचना करता है तो वह धिक्कृत कानून की पीड़िता होने के लिए वैशाली को दंडित करने को कहती है। राजा लिच्छवि गणतंत्र के समूल नाश की प्रतिज्ञा करता भी है। अपने स्त्रीत्व को गुलाम बनने पर मजबूर करनेवाले कानून के लिए वह वैशाली को कभी माफ नहीं कर पाती।
वह वैशाली की नगरवधू बन गई थी। एक बार अम्बपाली से मिलने कौशाम्बीपति संगीतज्ञ महाराज उदयन आए। उन्होंने महान् वीणा बजाई और अम्बपाली ने अवश नृत्य किया। तीन ग्रामों में एक ही बार में वे वीणा-वादन कर जादुई संगीत पैदा कर सकते थे। मधुपर्व के दिन वैशाली में अम्बपाली की सवारी निकली। युवकों की भीड़ अपार थी। मार्ग नरमुंडों से भरा था। सभी मधुबन पहुँचे। युवक आखेट कर शिकार अम्बपाली के सामने डालने लगे। शाम को अम्बपाली के सामने आखेट का प्रस्ताव रखा गया। वह पुरुष-वेश में घोड़े पर चली। वैशाली का युवराज स्वर्णसेन साथ था। दोनों गहन वन में पहुँचे। स्वर्णसेन ने प्रणय-निवेदन किया। सहसा सिंह आया। दोनों अश्वों पर सवार हुए। सिंह गरजा। एक भारी वस्तु अम्बपाली के घोड़े पर आ पड़ी। घोड़ा और अम्बपाली गड्ढे में गिर गए। स्वर्णसेन अपने घोड़े पर भागे। स्वर्णसेन अकेले मधुबन पहुँच और बताया कि अम्बपाली को सिंह आक्रान्त कर गया। सर्वत्र शोक। खोज की गई तो अम्बपाली का शरीर नहीं मिला। उसके घोड़े का मिला। सोचा गया- देवी को सिंह गुफा में ले जाकर खा गया।
उधर जब अम्बपाली को होश आया तो देखा कि सिंह मरा पड़ा है। एक छरहरा युवक वहाँ है। शाम का समय है। दिन रहते मधुबन पहुँचना असम्भव है। युवक ने पुरुषवेश अम्बपाली को अपनी कुटिया में रात बिताने को कहा। युवक चित्र बनाता था। सिंह को मार सकता था। कुटी तक जाते-जाते सूर्यास्त हो गया। पत्थर घिसकर आग जला रौशनी कर वह ईंधन लेने गया। कुटी में महान् वीणा थी। वीणा असाधारण थी। महाराज उदयन की दिव्य वीणा ‘मंजुघोषा’ थी वह। युवक लौटा। बोला कि उसकी इच्छा है कि एक बार अम्बपाली उसके सामने वही अवश नृत्य करे। वीणा देख अम्बपाली को अपने नृत्य की याद इस कदर आई कि वह नृत्य करने लगी। पुरुष-वेश गिर गया। युवक ने देखा। वह वीणा बजाने लगा। उदयन की तरह वह भी उस वीणा को बजाने में निपुण था। दोनों बाह्य ज्ञान-शून्य हो गए। दोनों में शरीर-सम्बन्ध हुआ। युवक ने अपने को स्मरण रखने के लिए अपना नाम ‘सुभद्र’ बताया और इच्छा व्यक्त की कि पुनः वही नृत्य हो और वह प्रत्येक मुद्रा में अम्बपाली का चित्र बनाए। इसके लिए अम्बपाली ने उसे अपने आवास पर आने को कहा तो युवक ने मना कर दिया। यह कहकर कि वह धिक्कृत कानून से मिला स्थान है, जो घृणित है। यह सुनकर अम्बपाली हृदय हार बैठी। अम्बपाली ने वहीं मुद्राएँ प्रस्तुत कीं, उसने चित्र बनाए। सात दिन में चित्र पूरे हुए। युवक उसे वैशाली के द्वार छोड़ वन में लौट गया। अम्बपाली के लौट आने से नगर में हलचल मच गयी। तरुणों ने मद्य पी। देवी के जयकार किए। मगध की राजधानी राजगृह थी, सम्राट बिम्बसार थे, अमात्य वर्षकार थे। गोविन्द स्वामी ने बिम्बसार के पिता को अश्वमेध यज्ञ करा 'सम्राट्' की उपाधि दी थी। गोविन्द स्वामी अपने पीछे आठ साल की बालिका छोड़ गए थे। उसका नाम था- मातंगी। स्वामी जी का एक शिष्य ब्राह्मण-कुमार था, जिसका नाम वर्षकार था। युवराज बिम्बसार और वर्षकार मित्र थे। बिम्बसार को मातंगी की ओर आकृष्ट दृष्टि से देखते देखा तो वर्षकार ने विरोध किया। बिम्बसार का मातंगी के प्रति आकर्षण प्रकट हो गया। मातंगी विवाह किए बिना गर्भवती हुई। शिशु को वर्षकार ने कूड़े के ढेर पर फेंकवा दिया। आचार्य शाम्बव्य काश्यप ने शिशु को उठाया। अपने मठ में ले आए। पता लगा कि यह मातंगी का पुत्र है। सम्राट ने मृत्यु से पहले बिम्बसार को बुलाकर कहा- तुम राजा बनोगे और वर्षकार अमात्य। एक पत्र दिया और कहा- इसे तीन साल बाद खोलना, तब मातंगी का विवाह करना। खोला गया तो लिखा था- मातंगी वर्षकार की बहिन है। विचित्र यह था कि मातंगी को वर्षकार ने ही पेल के गर्भवती किया था। सम्राट बिम्बसार ने यह सत्य वर्षकार को नहीं बताया और दोनों को वैशाली भेजा। वहाँ गुप्त रूप से एक कन्या को जन्म देकर मातंगी राजगृह लौट आई। सत्य जाना। जानकर एकांतवास ले लिया। विवाह से भी इन्कार कर दिया और सम्राट से मिलने से भी। उधर वर्षकार ने भी विवाह नहीं किया। मातंगी के पुत्र-पुत्री की जन्मकथा आचार्य शाम्बव्य काश्यप ही जानते थे। सोमप्रभ मातंगी से जन्मे अवैध पुत्र थे और कुंडनी पुत्री। सोम के पिता कौन, यह केवल मातंगी जानती थी।
मगध की राजधानी राजगृह थी, सम्राट बिम्बसार थे, अमात्य वर्षकार थे। गोविन्द स्वामी ने बिम्बसार के पिता को अश्वमेध यज्ञ करा 'सम्राट्' की उपाधि दी थी। गोविन्द स्वामी अपने पीछे आठ साल की बालिका छोड़ गए थे। उसका नाम था- मातंगी। स्वामी जी का एक शिष्य ब्राह्मण-कुमार था, जिसका नाम वर्षकार था। युवराज बिम्बसार और वर्षकार मित्र थे। बिम्बसार को मातंगी की ओर आकृष्ट दृष्टि से देखते देखा तो वर्षकार ने विरोध किया। बिम्बसार का मातंगी के प्रति आकर्षण प्रकट हो गया। मातंगी विवाह किए बिना गर्भवती हुई। शिशु को वर्षकार ने कूड़े के ढेर पर फेंकवा दिया। आचार्य शाम्बव्य काश्यप ने शिशु को उठाया। अपने मठ में ले आए। पता लगा कि यह मातंगी का पुत्र है। सम्राट ने मृत्यु से पहले बिम्बसार को बुलाकर कहा- तुम राजा बनोगे और वर्षकार अमात्य। एक पत्र दिया और कहा- इसे तीन साल बाद खोलना, तब मातंगी का विवाह करना। खोला गया तो लिखा था- मातंगी वर्षकार की बहिन है। विचित्र यह था कि मातंगी को वर्षकार ने ही गर्भवती किया था। सम्राट बिम्बसार ने यह सत्य वर्षकार को नहीं बताया और दोनों को वैशाली भेजा। वहाँ गुप्त रूप से एक कन्या को जन्म देकर मातंगी राजगृह लौट आई। सत्य जाना। जानकर एकांतवास ले लिया। विवाह से भी इन्कार कर दिया और सम्राट से मिलने से भी। उधर वर्षकार ने भी विवाह नहीं किया। मातंगी के पुत्र-पुत्री की जन्मकथा आचार्य शाम्बव्य काश्यप ही जानते थे। सोमप्रभ मातंगी से जन्मे अवैध पुत्र थे और कुंडनी पुत्री। सोम के पिता कौन, यह केवल मातंगी जानती थी।
राजगृह में गांधार से तक्षशिला के आचार्य बहुलाश्व के पास से आचार्यपाद शाम्बव्य काश्यप से मिलने मठ में सोमप्रभ आया। मठ में कुंडनी को विषकन्या बनने के लिए सर्प-दंश दिया जा रहा था। सोम और कुंडनी को चम्पा भेजा गया। चम्पा के मार्ग में सोम और कुंडनी असुरों के राजा शम्बर की नगरी में गए। कुंडनी ने असुरों को मृत्यु–चुम्बन से मारा और शम्बर को भी मारा। वहां उनको एक निष्ठावान् सेवक मिला। नाम रखा- शम्ब।मगध सेनापति चण्डभद्रिक ने चम्पा का किला घेर रखा था। तीन मास बीत गए थे। इस बीच सेना तक कोई सहायता नहीं पहुँची थी। ऐसे में सोम वहाँ पहुँचा। चम्पा में अपने मित्र की सहायता से किला जीता। चम्पा में मागध रहते थे। कुंडनी ने राजा दधिवाहन को मृत्यु–चुम्बन दिया। इस तरह चम्पा के किले पर मगध का अधिकार हुआ।
सोम, कुंडनी, शम्ब और चम्पा की राजकुमारी राजनन्दिनी श्रावस्ती की तरफ़ जा रहे थे। राजकुमारी का तीनों ने आतिथ्य किया। सोम उसपर आसक्त हो मगध से विद्रोह कर उसे चम्पा-साम्राज्ञी बनाने तक के लिए तैयार हो गया। कुंडनी ने उसे समझाया कि पहला काम राजकुमारी को कहीं सुरक्षित पहुँचाना है। इसीलिए श्रावस्ती जाना होगा। रास्ते मे दास-व्यापारी दस्युओं से मुकाबला हुआ। दस्युओं ने उनको घेर लिया। अपने साथ ही श्रावस्ती चलने को कहा। कुंडनी मौका देख भाग निकली, राजकुमारी मूर्च्छित हो गई, सोम घायल हो गया। शम्ब उसे एक गुफा में ले गया और उसकी सुरक्षा/सेवा करने लगा।
श्रावस्ती में दास-दासियों का बाजार लगा था। वहाँ अनायास मिल गए सोम को कुंडनी ने बताया कि राजकुमारी राजनन्दिनी को दासी की तरह खरीदकर अंतःपुर में ले जाया गया ताकि कलिंगसेना-प्रसेनजित् के विवाह में उसे दासी के रूप में राजा को पट्टराजमहिषी मल्लिका द्वारा भेंट किया जाए। कुंडनी ने सोम को स्त्री-वेश में अपने साथ अंतःपुर में जाने को तैयार कर लिया। अमात्य वर्षकार से मिलने को भी। सोम स्त्री-वेश में कुंडनी के साथ अंतःपुर में गया। दोनों युक्ति से राजनन्दिनी तक पहुँचे। कुंडनी ने राजकुमारी को भागने के लिए कहा। राजनन्दिनी ने कहा- भगवान् महावीर तक मेरी सूचना पहुँचाओ। फिर वे जैसा कहें, वैसा किया जाए। सोम भगवान् के पास गए। उन्हें राजकुमारी चंद्रभद्रा की खबर दी। सब जानकर महावीर ने उसे प्रतीक्षा करने के लिए उपाश्रय भेज दिया और राजकुमार विदूडभ से मिलने की इच्छा की। महावीर के निर्देशानुसार सामनेर (महावीर का शिष्य/सेवक) ने सोम को विदूडभ से मिलवाया। विदूडभ ने राजकुमारी का संरक्षण स्वीकार किया पर सोम ने पहले राजकुमारी से मिलने की शर्त रखी। महावीर ने उसे अपने मन का मैल दूर करने को कहा। विदूडभ ने उसे आश्वस्त किया कि राजकुमारी उसके पास भगिनीवत् रहेगी। सोम ने गले लगकर अपनी अविनय की क्षमा मांगी।
विदूडभ अपनी माता महारानी नन्दिनी के पास गया और उनके साथ कलिंगसेना के पास। बताया राजनंदिनी चंद्रभद्रा शीलचंदना के बारे में। दोनों गईं। उन्होंने राजकुमारी को गुप्त रूप से श्रावस्ती से बाहर भेजा। दस दासियाँ अर्पित कीं और कहा- महावीर जैसा कहेंगे, किया जाएगा। कुंडनी ने राजकुमारी से विदा ली। राजकुमारी को साकेत भेज दिया गया।
राजनंदिनी साकेत में सुखी थी। कुंडनी और सोम उससे मिले। राजनंदिनी ने कहा कि सोम महावीर से मिल अपने मन की बात कहें, फिर वे जैसा निर्देश करें। सोम ने यही किया। महावीर बोले- अभी उनसे दूर रहो। यथासमय कर्त्तव्य-निर्देश दूँगा। फिर भी सोम साकेत गए। राजनंदिनी से मिले। राजनंदिनी ने कहा कि महावीर की आज्ञा लिए बिना फिर कभी यहाँ मत आना। सोम चले गए।
कोसल, मगध का पड़ोसी राज्य था जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी। राजा का नाम प्रसेनजित् था। वह एक कामुक राजा था। युवराज विदूडभ को उसने एक दासी से पैदा किया था। विदूडभ अपने पिता से नफरत करता था। कभी-कभार उनपर हमले किया करता था। एक बार ऐसा ही हमला किया तो उनको एक अजनबी योद्धा ने बचा लिया। वह योद्धा बन्धुल मल्ल था जो कुशीनारा का रहनेवाला था तथा तक्षशिला का विद्यार्थी था। कुशीनारा के मल्ल उससे ईर्ष्या करते थे। इस कारण कुशीनारा में उसे न योग्यतानुसार पद मिला, न सम्मान। वह कुशीनारा छोड़ श्रावस्ती आ गया था। वहीं जब उसने राजा को युवराज के हमले से बचाया तो राजा ने उसे कोसल का सेनापति बनाने का वचन दिया।
एक बार विदूडभ ने मगधेश को लिख दिया कि यही कोसल पर आक्रमण करने का उचित समय है। मगधेश ने आक्रमण किया पर पराजित हुए। वर्षकार ने उनको रोका भी था पर वे माने नहीं। हुआ यह कि कौशाम्बीपति उदयन को श्रावस्ती पर हमला करना था पर उसने किया नहीं। पहले मगध-श्रावस्ती युद्ध का परिणाम देखना तय किया। हमला कलिंगसेना के लिए करना था पर कलिंगसेना ने कहा कि वह कोसलेश को आत्मसमर्पण कर चुकी है। श्रावस्ती में कलिंगसेना का राजसी स्वागत हुआ। वह विदुषी, वीर, सुन्दर थी और मन में उदयन पर आसक्त थी। बूढ़े प्रसेनजित् से विरक्ति थी पर अपने पिता के राजनीतिक स्वार्थ की रक्षा के लिए समर्पण किया था। वह गान्धार की थी । कोसलेश ने गांधार की सीमा पर सेना भेजी थी। गांधारों के लिए साकेत का सार्थमार्ग (व्यापार करने का रास्ता) बंद करने की धमकी दी थी। राजकुमारी कलिंगसेना ने अपनी बलि देकर युद्ध को टाला था। विदूडभ की माँ राजमाता नंदिनी उसे श्रावस्ती के अंतःपुर में मिली। कलिंगसेना ने उसे कहा कि वह प्रसेनजित् की गुलामी नहीं करेगी। राजमाता ने उसका साथ देने को कहा।
कलिंगसेना-प्रसेनजित् का विवाह हुआ। दासी के भागने की सूचना प्रसेनजित् को मिली। वे कलिंगसेना के पास गए, जिसने उनको सच बता दिया, किन्तु यह नहीं बताया कि वह गई कहाँ। अपने लिए दण्ड मांगा। राजा क्रुद्ध हो चले गए।
आचार्य अजित केसकम्बली कोसल में रहते थे। वे संन्यासी किन्तु शक्तिशाली थे। उन्होंने राजपुत्र विदूडभ को गौतम बुद्ध के विरुद्ध उकसाया ताकि कोसल की सारी सम्पदा गौतम को अर्पित न कर दी जाए और राजकोष रिक्त न हो जाए। बात यह थी कि राजा प्रसेनजित् गौतम बुद्ध के भक्त थे। उनकी सेवा में खर्च किया करते थे। उन्होंने ही बंधुल के बारहों पुत्रों के वध का षड्यंत्र रचा। बंधुल की पत्नी मल्लिका, गौतम के पास दीक्षा ले, यह निश्चित करने को कहा। वर्षकार ने सोम को मल्ल बन्धुल को नष्ट करने को कहा। विदूडभ ने प्रसेनजित् और बंधुल को सेनापति कारायण का एक गुप्त मित्र के नाम लिखा पत्र दिया जिसमें था कि कौशाम्बीपति यज्ञ के समय कोसल पर आक्रमण करेंगे। विदूडभ ने कहा कि बंधुल की यहाँ आवश्यकता है, सीमा पर उनके बारहों पुत्र बिना सेना के जाएँ। कारायण को राजधानी बुलाकर उचित दण्ड दिया जाए।
श्रावस्ती में राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ की गईं। चारों ओर चहल-पहल थी। बन्धुल मल्ल के बारह पुत्रों को दस्युओं ने मार डाला और लूट लिया। कारायण को श्रावस्ती में बन्दीगृह में रखा गया। बंधुल को यह कहकर सीमान्त पर भेजा गया कि उसके पुत्रों की हत्या कौशाम्बी का षड्यन्त्र भी हो सकता है। श्रावस्ती में यज्ञ चल रहा था। आचार्य अजित केसकम्बली उसके सर्वेसर्वा थे। उन्होंने विदूडभ को आश्वस्त किया था कि राजा वही बनेगा। विदूडभ ने सेनापति कारायण को बन्दीगृह से मुक्त किया और उसे कोसल का प्रधान सेनापति बनाया। उसने विदूडभ को कोसलपति कहकर आदेश माँगा। विदूडभ ने कहा कि प्रसेनजित् जब गौतम के दर्शन कर लौटें तो उनको बन्दी बना पूर्वी सीमान्त पर अकेले छोड़ आओ। अंगरक्षक विरोध करें तो उनको काट डालो। काम गुपचुप हो। बन्धुल सीमांत से लौट आए तो उसे रोको और मार डालो।
कारायण ने प्रसेनजित् को बंदी बनाया। यह सीमान्त से लौटे बन्धुल ने देख लिया। विदूडभ का षड्यन्त्र वह जान गया। बंधुल ने अपनी सुरक्षा की ओर से लापरवाह विदूडभ का अपहरण कर लिया। बन्धुल अजित केसकम्बली के पास गया। उसे देख अजित सब समझ गए कि विदूडभ कहाँ लुप्त हुआ है। अजित ने कारायण से नगर-रक्षा-प्रबंध और बंधुल पर सतर्क दृष्टि रखने को कहा। कहा कि वह विदूडभ के पास जब जाए तो गुप्त रूप से पीछा कर पता लगाया जाए कि विदूडभ कहाँ बन्दी है। यह भी कहा कि कुमार का एक मित्र मागध तरुण श्रावस्ती में है, उसका भी पता लगाया जाए। कारायण ने सीमान्त पर पहुँचकर प्रसेनजित् और रानी मल्लिका को मुक्त किया। स्वर्ण की छोटी-सी थैली पाथेय के रूप में दी, जो कहीं गिर गई। दोनों ने राजगृह जाना तय किया। द्वारपाल ने राजगृह के द्वार रात को नहीं खोले, इसलिए दोनों बाहर चैत्य में रहे। उसी रात दोनों की मृत्यु हो गई।
सोम और कुंडनी एक नाउन के घर ठहरे थे। कुंडनी को कलिंगसेना और आचार्य अजित की बातचीत से ज्ञात हुआ कि राजधानी में न राजा है, न राजकुमार। महाराज को राजकुमार ने बंदी बनाया है और राजकुमार को बंधुल ने। राजकुमार का पता दीहदन्त के अड्डे से मिलना सम्भव है। सोम ने एक लुच्चे मद्यप का रूप धारण किया और कुंडनी ने ‘देहाती अल्हड़ बछेड़ी’ का। दीहदन्त के अड्डे पर सोम ने पैसा दे सबको मद्य देने के लिए दीहदंत को कहा। सब ख़ुश हो गए। नाउन ने सोम की तरफ इशारा कर दीहदंत से पूछा- इसी ने राजपुत्र को उड़ाया? दीहदंत बोला- ‘यह नहीं, वह है (दो जुआरियों की ओर इशारा)। नाउन ने कुंडनी को इशारा कर बताया। कुंडनी ने दोनों को लीला-विलास से सम्मोहित किया। सोम संकेत पाकर उनके पास आ बैठा। उन्हें मद्य पिलाई। बातों-बातों में जाना कि विदूडभ कोसल-दुर्ग में बंदी है। जलगर्भ में बंदीगृह का द्वार है। सोम ने उसे झूठा कहा। शर्त लगाई सौ दम्म की। उसे साथ ले गया।
जलगर्भ में बन्दीगृह दुर्गम स्थान पर था। कारायण, सैन्य, कुंडनी, नाउन, सोम, शम्ब; सभी की सहायता से सोम ने बन्धुल मल्ल को मार डाला। इस युद्ध में विदूडभ घायल हुए पर मुक्त हो गए। राजधानी गए जहाँ यज्ञ चल रहा था। सोम ने विदूडभ को यज्ञ में कोसलपति की जगह बैठाया। जिन्होंने इसका विरोध किया, वे कट मरे। विदूडभ का अभिषेक हुआ। उसने आचार्य अजित को कोसल का महामात्य बनाया। भगवान महावीर ने सोम से कहा कि वह राजनंदिनी को कोसल की पट्टराजमहिषी बनने दे। सोम ने निराशापूर्वक यन्त्रवत् स्वीकार किया। सोम ने राजनन्दिनी को अपना निर्णय बताया। उसे कोसल-पट्टराजमहिषी बनने को तैयार किया। वह तैयार हुई पर यह कहकर कि उसका हृदय हमेशा सोम का रहेगा। सोम, कुण्डनी और शम्ब वैशाली की ओर चले।
ज्ञातिपुत्र सिंह तक्षशिला से रण-चातुरी और राजनीति पढ़ स्नातक हो वैशाली लौटे थे। तक्षशिला के आचार्य बहुलाश्व ने अपनी एकलौती पुत्री रोहिणी उनको ब्याह दी थी। वे लौटे तो वैशाली में उनका स्वागत हुआ।
हर्षदेव वीतिभय नगरी में गया। एक वृद्धा ने उसको अपने स्वर्गीय पुत्र की चार वधुओं से एक-एक पुत्र पैदा करने को नियुक्त किया ताकि राज्य-सेवक उसके परिवार का धन राजकोष हेतु न ले जाएँ। हर्षदेव वृद्धा का कृतपुण्य नामक पुत्र बन गया। उसके तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ जन्मीं। काम हो जाने पर वृद्धा ने उसे निकाल दिया। मध्यमा वधू उससे प्रेम करने लगी थी। उसने उसे पाथेय रूप में दो मधुगोलक दिए। एक में रत्न भर दिए पर उसे बताया नहीं। कहा- चम्पा में उसके पिता के पास वह उसकी प्रतीक्षा करे। अवसर पाते ही वह उससे आ मिलेगी। हर्षदेव पथिक था। चलते-चलते वह अस्थिक ग्राम पहुँचा। वहाँ एक ब्राह्मण को एक मधुगोलक खाने को दिया। उसमें रत्न थे। ब्राह्मण ने उसका सत्य परिचय जान लिया। ब्राह्मण ने कहा कि वह उसका अनुगत हो वैशाली का उच्छेद करे। वह अनुगत बना। ब्राह्मण ने उसके रत्न उसी को दिए। अपने मित्र के पास अपनी मुद्रिका देकर पावापुरी भेजा। कहा- वहाँ जाकर रत्न बेच, सार्थवाह बन चम्पा जा। श्वसुर से कृतपुण्य बनकर जितना उधार ले सके, ले। अन्य क्षेत्रों में व्यापार कर। फिर वैशाली में मिलेंगे।
हर्षदेव गया। वैशाली और राजगृह के बीच रास्ते पर स्थित वादरायण मठ के अधीश्वर भगवान् वादरायण थे। उन्होंने एक रात अपने शिष्य को एक विशिष्ट अतिथि के लिए सत्कार की व्यवस्था करने को कहा। रात को एक वृद्ध भट और अम्बपाली आए। अम्बपाली ने सम्राट के लिए नियोजित व्यवस्था का भोग किया। बाद में मगध सम्राट आए। सम्राट ने शिष्य (मधु) की कुटिया में रात बिताई। दोनों सुबह भगवान् वादरायण से मिले तो यह सत्य सबके सामने आया। वादनारायण मठ में ही अम्बपाली मगध-सम्राट से मिली। सम्राट ने प्रणय-निवेदन किया। अम्बपाली ने शर्त रखी- मेरा पुत्र ही मगधेश हो। सम्राट ने इसका वचन दिया। अम्बपाली ने धिक्कृत कानून की पीड़िता होने के लिए वैशाली को दण्डित करने की प्रार्थना की। सम्राट ने लिच्छवि गणतन्त्र के समूल नाश की प्रतिज्ञा भी की। भगवान् वादरायण ने अम्बपाली को कहा कि वह मगध सम्राट की माता होगी पर मगध की साम्राज्ञी नहीं। वह प्रसिद्ध साध्वी होगी। यह भी कहा कि वह वैशाली का अनिष्ट न करे। अनिष्ट होता देखे तो महान् त्याग करे, वह टल जाएगा। मगध-सम्राट को उन्होंने राजगृह भेजा। कहा- वहाँ श्रमण गौतम पहुँचकर उनको समुचित आदेश देंगे।
सम्राट राजगृह लौटे। अवंतिपति (मालवपति) चण्ड महासेन प्रद्योत ने राजगृह को घेरा हुआ था। उसकी सहायतार्थ मथुरापति अवंतिवर्मन भी आ रहा था। सहसा चण्ड नगर का घेरा छोड़कर भाग गया और उसकी सेना भी भाग गई। हुआ यह कि सेना के पड़ाव जहाँ लगने थे, वहाँ मगध मुद्रांकित सोना जगह-जगह गड़वा दिया गया। आचार्य काश्यप ने प्रद्योत को कहा कि उसकी सेना मगध से मिल गई है। प्रमाणस्वरूप सोना बरामद हो गया। प्रद्योत भागा। वर्षकार कूटनीति के आगार थे। उन्होंने बुद्ध से वैशाली के बारे में पूछा। बुद्ध ने बताया कि वैशाली के गण जब तक मूल्यनिष्ठ और एक रहेंगे, सम्पन्न होते रहेंगे। वर्षकार ने अनेक गुप्तचर वैशाली भेजे, वे वहाँ फूट पैदा करने के प्रयास करने लगे। वर्षकार वैशाली से पहले अवन्ती पर आक्रमण चाहते थे जबकि सम्राट पहले वैशाली पर। इसी पर दोनों में विवाद हो गया। वर्षकार ने पद और मगध छोड़ा, फिर सम्राट ने वैशाली पर हमले का आदेश दिया।
राजगृह के चौराहे पर एक नापित (प्रभंजन) की छोटी-सी खरकुटी थी। वहाँ वेश बदले हुए वर्षकार आए। उसे पत्र देकर श्रावस्ती में सेनापति के पास भेजा। स्वयं उसकी कुटी में रहने लगे। नापित प्रभंजन वेश बदलकर गया। वैशाली में दस्यु बलभद्र का आतंक था। मद्य पीते स्वर्णसेन के पास उसका मित्र सूर्यमल्ल आया। बोला- महाबलाधिकृत का आदेश है कि दस सहस्र सेना (रक्षक) लेकर मधुबन को घेरो। बलभद्र वहीं है। स्वर्णसेन मद्यासक्त और रूपासक्त होकर उसे अम्बपाली के यहाँ ले गया। वैशाली में कृतपुण्य की धूम मची। वह वैभव-संपन्न था। विशेषता यह कि उसके पास असाधारण आठ समुद्री घोड़े थे।
वर्षकार वैशाली आए। उन्होंने वैशाली के संथागार से अन्न की याचना की। बदले में राजकार्य करना चाहा। वैशाली के सत्तापुरुष उनको अतिथि का मान-सम्मान देते रहे। कहा कि इस बारे में बाद में निर्णय होगा। तब तक वर्षकार दक्षिण ब्राह्मण कुंडग्राम में सोमिल श्रोत्रिय का अंतेवासी होकर रहे। वैशाली की ओर से सत्कार-व्यवस्था की जाएगी। वैशाली में विदिशा की अपूर्व सुन्दरी वेश्या भद्रनन्दिनी आ बसी थी। सौ स्वर्ण देकर कोई भी उसके पास जा सकता था। वैशाली में यह प्रसिद्ध था कि वह विदिशा के राजा नागराज शेष के पुत्र पुरंजय भोगी की अन्तेवासिनी है। यह भी कि वह किसी मूल्य पर शरीर-स्पर्श नहीं करने देती। उसके पास एक तरुण आया। उसने भद्रनंदिनी के पास मद्य पी। कहा कि वह मगध से संबंधित है। उसने इन्कार किया तो राजगृह के शिल्पी का बना कुंडल उसके कानों में दिखाया। वह चला गया।
भद्रनंदिनी ने नन्दन साहू को बुलाया। नन्दन साहू एक दुकानदार था और जरूरत की सभी वस्तुएं बेचा करता था। उसका एक गूढ़/गुप्त व्यवसाय भी था। वर्षकार, सोमिल ब्राह्मण के अतिथि बन गए थे। लिच्छवि राजकीय विभाग से नित्य एक सहस्र स्वर्ण आता था। अन्य लोग भी उपहार भेजते पर वह उन्हें याचकों में बाँट देते। वैशाली में हरिकेशबल नाम के सन्त थे जो कभी स्नान न करते थे और मुर्दों के उतरे गुदड़े पहनते थे। कहते थे, मैं चांडाल कुलोत्पन्न संयमी हूँ, मुझे भिक्षा दो। वह सोमिल के यहाँ पहुँचे। ब्राह्मणों ने उनका अपमान किया। उनको लाठियों से मारा। पूर्व विदेह की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा महापद्म की पुत्री जयन्ती ने उनको बचाया। कहा कि मेरे पिता ने मुझे इनको दिया पर इन्होंने मुझे स्वीकार नहीं किया। यह दिव्य शक्ति सम्पन्न तपस्वी हैं। तभी नन्दन साहू आया। उसने हरिकेश के चरण पूजे। जयन्ती वाली बात उसने भी कही। उसे भिक्षार्थ आदरपूर्वक अपने घर ले गया।
हरिकेश-सेवक यक्ष का प्रकोप ब्राह्मणों पर टूटा। सोमिल, अनेक ब्राह्मणों के साथ नन्दन साहू के घर गया । हरिकेश से क्षमा माँगी। हरिकेश ने कहा कि शूलपाणि यक्ष की शरण में जाओ। वे वहाँ गए, तब क्षमा मिली। मगध द्वारा आक्रमण की आशंका के कारण वैशाली में युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं। सेनापति व अन्य पदों के लिए चुनाव हुआ। महाबलाधिकृत सुमन सेनापति बने। सिंह उपसेनापति हुए। मोहनगृह वैशाली का गुप्त मंत्रणा-स्थल था। वहाँ मंत्रणा से निर्णय हुआ कि मगध एक कुशल दूत मैत्री-संदेश लेकर जाए। इस बहाने शत्रु की तैयारियों को देखे/परखे। वैशाली में मगध के गुप्तचर न हमारी सावधानी जानें, न योजना। कोष-अन्न-सैन्य को एकत्र करने की गुपचुप व्यवस्था की जाए। दूत के साथ जयराज गुप्त रूप में मगध जाएँगे। एक माह में लौटेंगे। तब पुनः मंत्रणा होगी।
एक बार वैशाली में एक काली भयानक छाया घूमती देखी गई। अटकलें लगाई गई। कई आशंकाएँ होने लगीं। कृतपुण्य का पुत्र भद्रगुप्त बड़वाश्व पर जहाँ सांध्य-भ्रमण को जाया करता, वह छाया वहाँ विशेषतः देखी गई। उसका सांध्य-भ्रमण बन्द कर दिया गया। कृतपुण्य ने पुत्र का विवाह ठाठ-बाट से किया। सुहागरात को वही छाया वहाँ आई। शयन-कक्ष में गई। वह सेट्ठिपुत्र के मुख द्वारा उसके भीतर प्रविष्ट हो गई। सेट्ठिपुत्र जागा तो सभी ने उसकी नजर और आवाज में विचित्रता लक्षित की। उठते ही उसने बड़वाश्व माँगा। पिता के मना करने पर भी नहीं माना। उसे अचानक अश्व–संचालन में अभूतपूर्व निपुणता हासिल हो गई थी। यह समाचार कृतपुण्य ने अमात्य वर्षकार और नन्दन साहू को दिया। उसने नंदन के जरिये कृतपुण्य को हिदायत दी कि वह बेटे पर कड़ी नज़र रखे।
कीमियागर गौड़पाद अपनी प्रयोगशाला में देश-विदेश के विद्यार्थियों को रसायन के रहस्य बता रहे थे। तभी उन्होंने अप्रत्याशित ध्वनि सुनी। आचार्य ने देखा तो सेट्ठिपुत्र के चरणों में गिर पड़े। सेट्ठिपुत्र ने बताया कि कृतपुण्य कालिका द्वीप से उसका रत्न-भंडार और बड़वाश्व हर लाया। इसके अलावा उसे इस शरीर में आम्रपाली का रूप भी खींच लाया। वह भद्रनंदिनी (कुंडनी/विषकन्या) का मदभंजन भी करेगा। युद्ध में रक्तपान भी करेगा। यह भी कहा कि ये रहस्य अपने तक ही रखे। देवजुष्ट सेट्ठिपुत्र पुंडरीक भद्रनंदिनी के पास गया। उसकी जूठी मदिरा पी। चुम्बन द्वारा उसका प्राणहरण किया।
अम्बपाली का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। सप्तभूमिप्रासाद में जनसाधारण को उत्सव के लिए बेरोकटोक आने की आजादी थी। वहाँ युवराज स्वर्णसेन ने कहा कि आज दस्यु बलभद्र यहाँ होता तो खड्ग मदिरा में डुबो उसके आरपार कर देता। दस्यु वहाँ आया। एक चषक मद्य माँगने लगा। सूर्यमल्ल खड्ग ले उसपर झपटा। अम्बपाली ने उसे रोका। पहले मद्य देने को कहा। उसने मद्य पीया। युवराज को चुनौती दी। युवराज ने हमला किया पर दस्यु बचा गया। उसने युवराज के कंठ पर खड्ग रख उसे प्राण-भिक्षा माँगने को कहा। सामन्त-पुत्रों ने खड्ग उठाए तो कक्ष में अनेक दस्यु आ गए। दस्यु ने सभी को गहने आदि उतार अपने चरणों में रखने को कहा। सबने यही किया। कक्ष के बाहर भी अनेक दस्यु थे। अम्बपाली ने कहा कि सब कुछ लूट लो पर उन्होंने अन्न ही लूटा। वे दस्यु नहीं, भूखे कृषक थे। फिर दस्यु-समुदाय चला गया।
जयराज छद्मवेश में राजगृह जा रहे थे। मार्ग में मागध गुप्तचर मिले तो उनसे निपटे। कुछ को धोखा दिया, दो को मार डाला। फिर राजगृह की ओर चले। दस्यु बलभद्र, आम्रपाली, स्वर्णसेन और सूर्यमल्ल मधुबन पहुँचे। वे पहाड़ी पर चढ़ गए। नीचे जगह-जगह आग जल रही थी। दस्यु थे। तभी वैशाली की सेना ने दस्यु-दल पर हमला किया। दस्यु सहसा गायब हो गए। सारी सेना घाटी में आ गई तो दस्यु-सेना उसके पीछे फैल गई। सेना को तीन ओर से घेरा। मारने लगी। स्वर्णसेन और सूर्यमल्ल ने आत्मसमर्पण कर नरसंहार रुकवाया। फिर दस्यु बलभद्र ने अतिथियों के आतिथ्य की समुचित व्यवस्था गुफाओं में कराई।
अम्बपाली जहाँ ठहरी थी, वहाँ सोम आया। सोम ने अपना हृदय समर्पित किया। अम्बपाली को सोम के मागध होने से बुरा लगा। उसने सोम से अपनी रक्षा की याचना की। जयराज राजगृह पहुँचे। पांथागार-अध्यक्ष से पूछा किन्तु वहाँ जगह नहीं थी। वैशाली के राजदूत वहीं ठहरे थे। जयराज ने स्वर्ण दिया तो एक अन्यनागरिक के मकान में ठहरने की व्यवस्था हुई। वहाँ एक 18 वर्षीय युवक सेवक भी मिला। प्रतिहार ने जयराज को बताया कि उसकी पत्नी वणिक सुखदास के पास गई थी ताकि सौदा ठीक से पट जाए। पत्नी सुंदर थी, सुखदास मोहित हो गया। बोला- आज रात मेरी सेवा में रहे तो 500 घोड़े और एक सहस्र चीनांशुक भेंट कर दूँगा। उसने मुझसे पूछा तो मैंने कहा- एक ही रात में इतना मिले तो हर्ज क्या है। उसने अश्व और चीनांशुक तो मेरे पास भेज दिए पर स्वयं नहीं आ रही। जयराज ने उसे यह कहकर सोने भेज दिया कि कल कुछ करेंगे। अगले दिन जयराज सुखदास के घर गए। सुखदास को डराया। प्रतिहार की पत्नी से बात की। पत्नी ने वही कहा कि उस लोभी पति से तो यह अच्छा जो एक रात के लिए इतना दे दे। जयराज ने उसका समर्थन किया। लौट आए।
वैशाली के दूत का बिम्बसार ने स्वागत किया। प्रतिहार के जरिये उस दूत से गुपचुप जयराज मिलता रहा। यह मागध संधिवैग्राहिक अभय कुमार को भी पता नहीं लगा। जयराज राजगृह में घूम-घूम जानकारियाँ जुटाते रहे। प्रतिहार की पत्नी उनको अंतःपुर के समाचार देने लगी। वैशाली के दूत ने उनसे मिल तय किया कि गणदूत बनकर जयराज ही सम्राट से मिलें। जयराज अनायास ही गणदूत बन सम्राट के सामने पेश हुए। मगध-नरेश ने गणदूतों का स्वागत किया। जयराज ने लिच्छवि कुमारी से विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे बिम्बसार ने अस्वीकार कर दिया। जयराज और सम्राट में तनातनी हुई। जयराज क्रोधित और चिंतित होकर लौटे। अभयकुमार ने सम्राट को बताया कि गणदूत कोई और था तथा पेश कोई और हुआ। सम्राट ने दोनों को बंदी बना लाने का आदेश दिया। दोनों राजगृह से जा चुके थे। सम्राट ने सीमांत रक्षक को यही आदेश किसी भी मूल्य पर पूरा करने को कहा। जयराज जब सम्राट के सामने गए, उससे पहली रात ही गणदूत काप्यक ने महत्वपूर्ण जानकारियाँ ले वैशाली की ओर प्रस्थान कर दिया था। जयराज सम्राट से मिलकर अपने डेरे पर न जाकर युवक सेवक के साथ सीधे प्रस्थान कर गए।
अभयकुमार ने जयराज का रास्ता घेर ही लिया। जयराज भाग रहे थे और सोच रहे थे- युद्ध अनिवार्य। देवी अम्बपाली द्वारा ही मगध-साम्राज्य पर विजय सम्भव होगी। देखा कि वैशाली में जो युद्ध की आशंका है, वह मगध में नहीं है। सब निश्चिन्त हैं। जयराज और युवक सेवक के बीच बातचीत हुई। युवक की ससुराल पास ही थी। वहीं चलना तय किया पर शत्रुओं ने घेर लिया। जयराज ने युवक को ससुराल की ओर भगा दिया ताकि तुरन्त सहायता ला सके। स्वयं युद्ध किया। घायल हुए पर युद्ध जारी रखा। सेवक सहायता ले आया। सभी शत्रु मृत/बंदी हुए। अभयकुमार बंदी बनाए गए। सब गाँव की ओर चले। जयराज ने युवक सेवक को स्वर्ण दे घोड़ा मँगवाया और वैशाली प्रस्थान किया। युवक से कहा कि अभय राजकुमार है। इसे राजगृह भेज देना। तुम सुबह वैशाली के लिए चल देना। -मगध सेनापति चण्डभद्रिक और सम्राट ने युद्ध-तैयारियों का जायज़ा लिया। सेना को कूच की आज्ञा देने को कहा। -मोहन-गृह में वैशाली की दूसरी मंत्रणा हुई। उसमें जयराज ने बताया कि दस्यु बलभद्र ही सोम है और वह वैशाली में सदलबल मौजूद है। मगध-सेना व्यवस्थित है। वे सैनिक नौकरी के लिए लड़ते हैं, वैशाली के सैनिक अपने संघ की स्वतंत्रता के लिए। मगध-सेना कई जगह फँसी है। सेनापति सिंह ने वैशाली की सेना की तैयारियों की ख़बर दी। निर्णय हुआ कि मगध आक्रमण की प्रतीक्षा करने की बजाय उसपर अवसर आते ही आक्रमण हो। वर्षकार व उनके सहायक बन्दी बनाए जाएँ। वैशाली में वर्षकार, सोमिल, नन्दन साहू, सेट्ठि कृतपुण्य बंदी बना लिए गए। सेट्ठिपुत्र को घर में नजरबंद किया गया। सर्वत्र सैन्य हलचल थी। सभी स्वस्थ वयस्क पुरुष अनिवार्यतः सैनिक बना दिए गए। अम्बपाली-आवास भी फीका पड़ गया।
मगध सम्राट ने सेना सहित राजगृह से वैशाली की ओर प्रयाण किया। वे स्कंधावार पहुँचे। सेनापति सिंह ने वैशाली की नौसेना व्यवस्था का निरीक्षण किया। चरों ने उनको मगधराज की संपूर्ण गतिविधि की खबर दी। मगधराज ने चंडभद्रिक को महासेनापति और सोमप्रभ को सेनापति बनाया। सारी सैन्य-व्यवस्था में सबके कर्त्तव्य निश्चित किए। युद्ध शुरू हो गया। दोनों ने एक-दूसरे के व्यूह भेदे। भयंकर युद्ध किया। एक ही दिन में दोनों पक्षों की अपार हानि हुई। दो लोग छिपते हुए वैशाली पहुँचे। सप्तभूमि प्रासाद गए। उनमें एक मगध सम्राट थे। सम्राट के साथ आर्य गोपाल। अम्बपाली ने सत्कार किया। दोनों के गायब होने से मगध सेनापति चिंतित हुए। भद्रिक और सोम ने वैशाली को नेस्तनाबूद करने का संकल्प किया। सम्राट के गायब होने का समाचार गुप्त रखा गया। नौसेना युद्ध में मगध की क्षति ज्यादा हुई। सोम ने कोसलराज विदूडभ और सेना द्वारा वैशाली को घेरा। एक लौह-यंत्र था- रथमूसल। उसकी चपेट में जो आता, उसी की चटनी बन जाती। वैशाली का पतन सन्निकट था। सम्राट ने सोम को संदेश भिजवाया कि अम्बपाली-आवास की रक्षा हो, सम्राट वहीं हैं। सोम ने युद्ध रोक दिया। वैशाली ने साँस ली। दूसरे मोर्चे पर भद्रिक को सिंह सेनापति और सेना ने तीन ओर से घेरा। महाशिलाकंटक विनाश यंत्र से वैशाली ने मगध सेना का खूब नाश किया। सोम से कोई सहायता भद्रिक को नहीं मिली। उलटे सोम द्वारा युद्ध रोक देने का समाचार मिला।
अम्बपाली ने सम्राट को बताया कि भद्रिक घिर गए, कभी भी आत्मसमर्पण कर सकते हैं। सोम ने युद्ध बन्द कर दिया। सम्राट सोम पर कुपित हुए। सोम की दृष्टि में एक नगरवधू को राजमहिषी बनाने के उद्देश्य से युद्ध छेड़ा गया था। अतः उन्होंने युद्ध बन्द किया। सम्राट गुप्त मार्ग से सोम तक पहुँचे। दोनों में विवाद हुआ फिर् युद्ध हुआ। सम्राट को गिरा उनके वक्ष पर सोम ने पाँव और कण्ठ पर खड्ग रखा। तभी अम्बपाली ने वहाँ आकर सम्राट के प्राणों की भिक्षा माँगी। कहा कि वह मगध साम्राज्ञी कभी नहीं बनेगी। सोम ने सम्राट को प्राणदान दिए पर बन्दी बना लिया। अम्बपाली को लिच्छवि सेनापति के अधिकार-क्षेत्र में पहुँचा दिया गया। भद्रिक ने आत्मसमर्पण कर दिया। माँग की कि वर्षकार से परामर्श करने दिया जाए ताकि संधि-वार्ता ठीक से हो सके और मगध सैनिकों को उनके अस्त्रों व अश्वों के साथ लौटने दिया जाए। सिंह ने वचन दिया कि यही होगा।
सिंह ने युद्ध-क्षेत्र का निरीक्षण किया। अनेक मागध भी घायल थे। उनके उपचार की व्यवस्था भी की। वैशाली के संथागार में पराजित शत्रु द्वारा प्रस्तावित संधि पर विचार हुआ। वैशाली की तीन शर्तें थीं : शत्रु का सैन्य-बल दुर्बल हो। शत्रु यथेष्ट युद्ध-क्षति दे। सुदूर पूर्वी तट हमारे व्यापार के लिए खुला रहे। सर्वसम्मति से प्रस्ताव स्वीकार हो गया। गणोत्सव मनाया गया पर अम्बपाली-आवास सूना रहा, अंधकाराच्छन्न। सोम था युद्ध-क्षेत्र में। उसकी माँ वहाँ आई। उसकी गोद में वह रोया। माँ ने बताया कि उसके पिता बन्दी हैं। सम्राट ही उसके पिता हैं। उन्हें वह मुक्त करे। मरने से पहले माँ ने बताया कि उसकी बहिन के पिता वर्षकार हैं और उसके बिम्बसार। सोम ने बन्दीगृह जाकर पिता से क्षमा माँगी। दोनों ने मातंगी का अंतिम संस्कार किया। सोम ने कसम खाई कि अम्बपाली का पुत्र ही मगध सम्राट होगा। युद्ध के परिणामस्वरूप विजय पाने पर भी वैशाली का सुख सूख गया। अम्बपाली का द्वार सदैव बन्द रहता। उसने पुत्र को जन्म दिया, जिसे मगध सम्राट के पास पहुँचा दिया गया।
उरुबेला तीर्थ में गौतम बुद्ध थे। उनके धर्म व संघ के प्रथम दो उपासक थे- भिल्लक और तपस्सू। उरुबेला में ही बुद्ध ने बुद्धत्व पाया। उनके विविध भिक्षु बने। इकसठ अर्हत् (शिष्य) बने। उन्हें दीक्षित करने का अधिकार दिया। गौतम बुद्ध राजगृह पधारे। सोण कटिविंश भी दर्शनार्थ गया, प्रव्रज्या ली। शरीर सुकुमार था, तलवों में रोम उग आए। बुद्ध ने उसे एक तल्ले का जूता पहनने की अनुमति दी। उसके कहने पर सारे संघ के भिक्षुओं को भी यह अनुमति मिली। श्रेष्ठी अनाथीपिंडक ने राजगृह में बुद्ध का माहात्म्य जाना। श्रावस्ती में वर्षावास कराया। बहुत स्वर्ण खर्च किया। मगधेश बिम्बसार श्रेणिक, शालिभद्र को देखने गए । शालिभद्र को पहली बार पराधीनता का अनुभव हुआ। महावीर दर्शन। देशना-श्रवण। वैराग्य। दीक्षा। धन्य ने भी।
बुद्ध आए और अम्बपाली की बाड़ी में ठहरे। सप्तभूमि प्रासाद का द्वार बहुत दिनों के बाद खुला। वह बुद्ध के दर्शनार्थ गई। उनको भोजन का निमन्त्रण दिया।लिच्छवि राजपुरुष भी उसी दिन उसी समय भोजन-निमन्त्रण देना चाहते थे। किन्तु बुद्ध वचनबद्ध थे। उन्होंने अम्बपाली से निमन्त्रण खरीदना चाहा किन्तु अम्बपाली ने कहा- पूरी वैशाली के बदले भी नहीं। प्रसाद के सप्तम खण्ड पर बुद्ध ने भोजन किया। अम्बपाली ने सर्वस्व त्यागा और संघ को अर्पित किया और दीक्षा ली। सोम ने भी दीक्षा ली।
सन्दर्भ
[संपादित करें]अन्य विकि परियोजनाओं में
[संपादित करें]विकिस्रोत पर इस लेख से संबंधित मूल पाठ उपलब्ध है: |