"मुक्तछन्द": अवतरणों में अंतर

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बिन नीति जो राज्य दिलाए वो राजनीति कहलाई।
बिन नीति जो राज्य दिलाए वो राजनीति कहलाई।

वोट भिखाड़ी ने हमको कैसे ठेंगा दिखलाई।
वोट भिखाड़ी ने हमको कैसे ठेंगा दिखलाई।

एक दशक तक मौन रहे उनको तो हमने हटा दिया।
एक दशक तक मौन रहे उनको तो हमने हटा दिया।

और बोलने वाले ने तो बोलकर बोलकर पका दिया।
और बोलने वाले ने तो बोलकर बोलकर पका दिया।

वो नोच रहे गुड़िया को बड़बोला ने जो चुप्पी साधा है।
वो नोच रहे गुड़िया को बड़बोला ने जो चुप्पी साधा है।

साझेदारी दुष्कर्मी और नेताओं का आधा आधा है।
साझेदारी दुष्कर्मी और नेताओं का आधा आधा है।

गर मैं भी आऊं ओढ़ दुषाला क्या मुझको चुन लोगे।
गर मैं भी आऊं ओढ़ दुषाला क्या मुझको चुन लोगे।

अपने उत्साही विश्वासी मन में क्या स्वप्न नया बुन लोगे ।
अपने उत्साही विश्वासी मन में क्या स्वप्न नया बुन लोगे ।

मैं नहीं सियासी हूं लेकिन रग में तो भरा सियासत है।
मैं नहीं सियासी हूं लेकिन रग में तो भरा सियासत है।

मैं हूं फ़कीर के भांति और पहलू में भरा ख़िलाफत है।
मैं हूं फ़कीर के भांति और पहलू में भरा ख़िलाफत है।

इससे पहले कि कृष्ण पधारें मैं तो हुंकार भरूंगा।
इससे पहले कि कृष्ण पधारें मैं तो हुंकार भरूंगा।

शब्द सारथी बनकर के दीपक मैं तो प्रहार करूंगा।
शब्द सारथी बनकर के दीपक मैं तो प्रहार करूंगा।

परिवर्तन है सघन शाश्वत शिल्प नया बनवाओ ।
परिवर्तन है सघन शाश्वत शिल्प नया बनवाओ ।

और निशाचर के रक्तों से काली का प्यास बुझाओ।
और निशाचर के रक्तों से काली का प्यास बुझाओ।


विष विस्थापित होगा पीयूषम् से अच्छादित प्याला।
विष विस्थापित होगा पीयूषम् से अच्छादित प्याला।

अंधेरों में दिया जलेगा होगा अब यहां उजाला।
अंधेरों में दिया जलेगा होगा अब यहां उजाला।

लेकिन तुम भी खाओ कसमें मस्तक पर सूर्य मढ़ोगे ।
लेकिन तुम भी खाओ कसमें मस्तक पर सूर्य मढ़ोगे ।

और अभयगामी श्रोनित से इतिहास गढ़ोगे ।
और अभयगामी श्रोनित से इतिहास गढ़ोगे ।

किन्तु पुंजवान बन कर सदियों तक सरल नहीं चमकना।
किन्तु पुंजवान बन कर सदियों तक सरल नहीं चमकना।

सूरज को सूरज बनने को सदियों तक पड़ा दहकना ।
सूरज को सूरज बनने को सदियों तक पड़ा दहकना ।
सर्पों के जकड़न पर भी क्या चंदन सा महकोगे।
सर्पों के जकड़न पर भी क्या चंदन सा महकोगे।

या फिर वहशत से व्याप्त पटल को देख यहां बहकोगे।
या फिर वहशत से व्याप्त पटल को देख यहां बहकोगे।

संकलित करके सात व्यूह को चक्र व्यूह बनता है।
संकलित करके सात व्यूह को चक्र व्यूह बनता है।
सात महारथी मिलकर मारे तब अभिमन्यु मरता है।
सात महारथी मिलकर मारे तब अभिमन्यु मरता है।
बिन सीख लिए हमने रण कौशल अपने माता से पाया।
बिन सीख लिए हमने रण कौशल अपने माता से पाया।

और उसी माता ने हमको नैतिक मूल्य सिखाया ।
और उसी माता ने हमको नैतिक मूल्य सिखाया ।

अपने स्तन पर लात खाकर भी दुख मुझे पिलाई।
अपने स्तन पर लात खाकर भी दुख मुझे पिलाई।

और इसी चित्रण में उसने कर्तव्य अर्थ समझाई।
और इसी चित्रण में उसने कर्तव्य अर्थ समझाई।
स्नेह भाव से व्याप्त हुई तो गम को गले लगाई।
स्नेह भाव से व्याप्त हुई तो गम को गले लगाई।

क्रोध भाव में शिव के छाती पर उसने पैर अड़ाई।
क्रोध भाव में शिव के छाती पर उसने पैर अड़ाई।

और निशाचर के दल को ख़तम किए डाला।
और निशाचर के दल को ख़तम किए डाला।

विष विस्थापित होगा पीयूषम् से अच्छादित प्याला।
विष विस्थापित होगा पीयूषम् से अच्छादित प्याला।

अंधेरों में दिया जलेगा होगा अब यहां उजाला।
अंधेरों में दिया जलेगा होगा अब यहां उजाला।



16:34, 11 जनवरी 2021 का अवतरण

मुक्तछन्द (Free verse या vers libre) कविता का वह रूप है। जो किसी छन्दविशेष के अनुसार नहीं रची जाती, न ही तुकान्त होती है। मुक्तछन्द की कविता अक्सर सहज भाषण जैसी प्रतीत होती है, किंतु लय बद्ध और प्रवाह में लिखने की आजादी भी है। हिन्दी में मुक्तछन्द की परम्परा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' ने आरम्भ की।

हिन्दी का मुक्त छन्द फ्रेंच का 'वर्सलिब्र', अंग्रेजी का 'फ्री वर्स' या 'ब्लैकवर्स' का पर्यायवाची शब्द है। 'मुक्त काव्य' और 'स्वच्छन्द काव्य' प्रयोगकालीन कविता के महत्त्वपूर्ण भेद हैं।

फ्रेंच में - ‘वर्स लिब्र' और 'वर्स लिबेरे' ये दो समानप्रायः ध्वनि वाले पद इस सम्बन्ध में प्रयुक्त होते हैं। 'वर्स लिब्र' को ही अंग्रेजी में ‘फ्री वर्स' कहते हैं और हिन्दी में मुक्तकाव्य या मुक्त छन्द। ‘वर्स लिबेरे', को हम स्वच्छन्द काव्य कह सकते हैं।

पाश्चात्य आधुनिक कविता में मुक्त छन्द व्हिटमैन की सबसे बड़ी देन है। रूप के क्षेत्र में उनका यह खोज कथ्य से ही प्रसूत होता है। ‘न्यू पोएट्री' नामक अपने एक लेख में कवि लिखता है कि, "अब वह समय आ गया है। जब गद्य व पद्य के रूप में बनी बनाई सीमाओं को तोड़ डालना चाहिए"। अलंकृत विशेषणों, पुराने थीम व राइम की उपेक्षा करते हुए व्हिटमैन अपने लिए एक ऐसा माध्यम खोज निकालते है जो उन्हें पूरी की पूरी काव्यात्मक अभिव्यक्ति देने में सक्षम है। उनकी यही ताजी व अपारम्परिक प्रवृत्ति, मुक्त छन्द को आधुनिक रंग देती है, जो अतिशय भावात्मकता से दूर होती व यथार्थ की ओर जाती दीखती है।

हिंदी के जाने माने कवि दीपक झा "रुद्रा" के अनुसार जब कभी भावों की वेग अत्यंत तीव्र हो उस समय शब्दों को पारंपरिक शिल्प या छंद में ढालना अत्यंत कठिन हो जाता है। ऐसे में कवि विवश हो जाते हैं बिना किसी शिल्पिय बंधन में अपने भावों को व्यक्त करने के लिए ऐसे में ((छंद मुक्त)) कविताएं जन्म लेती है ।

उदाहरण के लिए कवि दीपक झा "रुद्रा" की प्रसिद्ध कविता देखिए।

बिन नीति जो राज्य दिलाए वो राजनीति कहलाई।

वोट भिखाड़ी ने हमको कैसे ठेंगा दिखलाई।

एक दशक तक मौन रहे उनको तो हमने हटा दिया।

और बोलने वाले ने तो बोलकर बोलकर पका दिया।

वो नोच रहे गुड़िया को बड़बोला ने जो चुप्पी साधा है।

साझेदारी दुष्कर्मी और नेताओं का आधा आधा है।

गर मैं भी आऊं ओढ़ दुषाला क्या मुझको चुन लोगे।

अपने उत्साही विश्वासी मन में क्या स्वप्न नया बुन लोगे ।

मैं नहीं सियासी हूं लेकिन रग में तो भरा सियासत है।

मैं हूं फ़कीर के भांति और पहलू में भरा ख़िलाफत है।

इससे पहले कि कृष्ण पधारें मैं तो हुंकार भरूंगा।

शब्द सारथी बनकर के दीपक मैं तो प्रहार करूंगा।

परिवर्तन है सघन शाश्वत शिल्प नया बनवाओ ।

और निशाचर के रक्तों से काली का प्यास बुझाओ।


विष विस्थापित होगा पीयूषम् से अच्छादित प्याला।

अंधेरों में दिया जलेगा होगा अब यहां उजाला।

लेकिन तुम भी खाओ कसमें मस्तक पर सूर्य मढ़ोगे ।

और अभयगामी श्रोनित से इतिहास गढ़ोगे ।

किन्तु पुंजवान बन कर सदियों तक सरल नहीं चमकना।

सूरज को सूरज बनने को सदियों तक पड़ा दहकना । सर्पों के जकड़न पर भी क्या चंदन सा महकोगे।

या फिर वहशत से व्याप्त पटल को देख यहां बहकोगे।

संकलित करके सात व्यूह को चक्र व्यूह बनता है। सात महारथी मिलकर मारे तब अभिमन्यु मरता है।

बिन सीख लिए हमने रण कौशल अपने माता से पाया।

और उसी माता ने हमको नैतिक मूल्य सिखाया ।

अपने स्तन पर लात खाकर भी दुख मुझे पिलाई।

और इसी चित्रण में उसने कर्तव्य अर्थ समझाई।

स्नेह भाव से व्याप्त हुई तो गम को गले लगाई।

क्रोध भाव में शिव के छाती पर उसने पैर अड़ाई।

और निशाचर के दल को ख़तम किए डाला।

विष विस्थापित होगा पीयूषम् से अच्छादित प्याला।

अंधेरों में दिया जलेगा होगा अब यहां उजाला।

इस कविता के प्रवाह से ऐसा प्रतीत होता है कि यह छंद में लिखी गई कविता है। किन्तु जब इस कविता का शिल्पिय अवलोकन करते हैं तो पता चलता है यह "प्रवाहमय छंद मुक्त" कविता ही है।