"प्राच्यवाद": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नया पृष्ठ: समाज-विज्ञान की दुनिया में चर्चित होने से पहले '''प्राच्यवाद'...
(कोई अंतर नहीं)

03:26, 16 दिसम्बर 2013 का अवतरण

समाज-विज्ञान की दुनिया में चर्चित होने से पहले प्राच्यवाद ( ओरिएंटलिज़म ) का मतलब था - पश्चिमी विश्व के लेखकों, डिज़ाइनरों और कलाकारों द्वारा पूर्वी देशों की संस्कृतियों का वर्णन और अध्ययन। उन्नीसवीं सदी के फ़्रांसीसी कलाकार उत्तरी अफ़्रीका और पश्चिमी एशिया की यात्राओं के दौरान ग्रहण किये गये प्रभावों को अपनी कलाकृतियों में इस्तेमाल करते थे। लॉर्ड बायरन ने 1812 में 'ओरिएंटल स्टडीज़' जैसी अभिव्यक्ति का प्रयोग किया था।

लेकिन, 1978 में प्रकाशित एडवर्ड सईद की रचना 'ओरिएंटलिज़्म' ने प्राच्यवाद के इस निर्दोष प्रतीत होने वाले अर्थ को पूरी तरह बदल दिया। आज का समाज-विज्ञान प्राच्यवाद को उस विचारधारा की तरह देखता है जिसके तहत अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के दौरान ख़ुद को केंद्र में रख कर अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए पश्चिम द्वारा पूर्वी संस्कृतियों की स्थावर संरचना बनायी गयी थी। ज्ञान की बेहद परिष्कृत राजनीति के अंतर्गत युरोकेंद्रित पूर्वग्रहों का प्रयोग करके एशिया और मध्य-पूर्व की भ्रांत और रोमानी छवियाँ गढ़ी गयीं ताकि पश्चिम की औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं को तर्क प्रदान किया जा सके।

परिचय

एडवर्ड सईद ने अपना यह विश्लेषण अरब और इस्लामी सभ्यता के संदर्भ में किया था। लेकिन, इसका प्रभाव वहीं तक सीमित नहीं रहा। आज सईद द्वारा प्रवर्तित प्राच्यवाद की अवधारणा का सकारात्मक उपयोग मानविकी के विभिन्न अनुशासनों (इतिहास लेखन, संस्कृति-अध्ययन, साहित्य-सिद्धांत) में काम करने वाले विद्वानों द्वारा युरोकेंद्रीयता का प्रतिरोध रचने और पूर्वी सभ्यता व विचार की स्वायत्त दावेदारियों के लिए किया जाता है। प्राच्यवाद का विमर्श उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांत के आधारभूत प्रतिपादनों में से एक है। भारत का अध्ययन करने वाले ज्ञान प्रकाश, निकोलस डिर्क और रोनाल्ड इण्डेन जैसे समाज वैज्ञानिकों, और हामिद दुबोशी, होमी भाभा और गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक जैसे साहित्यशास्त्रियों पर भी ओरिएंटलिज़म की थीसिस का प्रभाव देखा जा सकता है।

प्राच्यवाद की आलोचना दावा करती है कि युरोपीय विद्वानों और अनुसंधानकर्ताओं ने अफ़्रीका, एशिया और मध्य-पूर्व का जो चित्रण किया है वह तथ्यों अथवा यथार्थ पर आधारित न हो कर कुछ पूर्व-निर्धारित रूढ़ियों पर टिका हुआ है। यह सभी पूर्वी समाजों को तर्कबुद्धि से वंचित, दुर्बल और स्त्रैण ‘अन्य’ के रूप में पेश करता है। उसके बरक्स पश्चिम को बुद्धिसंगत, बलवान और पौरुषपूर्ण दिखाया जाता है। यह दुराग्रह पश्चिमी विद्वत्ता में इतना रच-बस गया है कि बहुत से पश्चिमी प्रेक्षक भी इसे नहीं देख पाते, और साम्राज्यवादी प्रभुत्व के तहत बहुत से पूर्वी विद्वानों ने भी इसे आत्मसात कर लिया है। इस प्रक्रिया में हुआ यह है कि पश्चिम सभ्यता का मानक बन गया है जिसमें ‘एग्ज़ॉटिक’ प्राच्य फ़िट नहीं हो सकता। इस प्रकार ऑक्सीडेंट (पश्चिम) अपने विपरीत ध्रुव की तरह ओरिएंट (पूर्व) को रचता है। कई उत्तर-औपनिवेशिक विद्वानों के अनुसार इसी प्रक्रिया में पश्चिम ने अधिकांशतः अपनी परिभाषा इस नकारात्मक दावे के माध्यम से ही की है कि वह उस ‘अन्य’ के विपरीत है जो कि पूर्व है। इस परियोजना के गर्भ से पश्चिम के मिथक ने जन्म लिया है जिसके आधार पर वह पूर्व पर थोपे गये अपने राजनीतिक-आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व को जायज़ ठहराता है।

समाज-विज्ञान को गहरायी से प्रभावित करने वाली प्राच्यवाद की यह अवधारणा तुलनात्मक साहित्य के औज़ारों से गढ़ी गयी है। इसके लिए फ़ूको द्वारा प्रवर्तित सत्ता और ज्ञान के अंतर्संबंधों के साथ-साथ एंटोनियो ग्राम्शी द्वारा विकसित वर्चस्व की अवधारणा का इस्तेमाल किया गया है। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य के प्रोफ़ेसर के रूप में अंर्स्ट रेनन (जिनकी रचनाओं पर नस्लवाद का प्रभाव माना जाता है) का अध्ययन करते समय सईद यूरोकेंद्रीयता के उद्गम की शिनाख्त करने में कामयाब रहे। उन्होंने देखा कि रेनन ने किस तरह प्राधिकार की परिभाषा बदल दी और दैवी समझे जाने वाले ग्रंथों के बजाय उसका आधार पश्चिम की श्रेष्ठता पर बल देने वाले भाषाशास्त्रीय तर्क में तलाशा। परिणामस्वरूप सामी भाषाओं और ‘प्राच्य’ का अवमूल्मन हुआ। युरोकेंद्रीयता के स्रोतों की खोज करने के बाद सईद ने साबित किया कि प्राच्य दरअसल पश्चिमी विमर्श की गढ़ंत है और इस गढ़ंत का मकसद है अरब और इस्लामिक दुनिया पर अपना प्रभुत्व न्यायसंगत सिद्ध करना। इसके लिए सईद ने ब्रिटिश, फ़्रांसीसी और अमेरिकी आधुनिक इतिहास द्वारा इस्लामिक विश्व के साथ किये गये सुलूक की जाँच-पड़ताल की। उन्होंने प्राचीन यूनानी दुखांत नाटक द पर्शियंस से लेकर मैकाले, रेनन और मार्क्स तक के उदाहरण दिये। उन्होंने गुस्ताव वॉन ग्रुनबाउम और केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इस्लाम का सहारा लेकर दिखाया कि इस्लाम और पूर्व को किस तरह से विकृतियों और रूढ़ छवियों में गढ़ा गया है।  सईद ने दिखाया कि प्राच्यवादी विचारधारा ने इस्लाम को ईसाइयत की विधर्मी प्रतिकृति करार दिया और पूर्व की स्त्रियों की यौनिकता को लुभावने रंगों में रँग डाला। इस्लाम को एक ऐसी विलक्षण एकात्मक परिघटना और संस्कृति के रूप में पेश किया गया जिसमें किसी तरह के नवाचार की कोई गुंजाइश नहीं थी। सईद द्वारा प्रवर्तित प्राच्यवाद की आलोचना यह भी कहती है कि पश्चिम का यह विमर्श उन्नीसवीं सदी के साथ ख़त्म नहीं हुआ और आज भी जारी है। तीसरी दुनिया के देशों के बारे में पश्चिम की समझ इसी आधार पर गढ़ी गयी है।

प्राच्यवाद के सिद्धांत को कड़ी आलोचना का सामना भी करना पड़ा है। ख़ास तौर से ख़ुद को प्राच्यवादी कहने वाले विद्वानों ने तर्क दिया कि समग्र प्राच्यवादी बौद्धिकता को एक ही खाने में रख कर सईद ने ग़लती की है। दरअसल, इसमें दो तरह की प्रक्रियाएँ हैं।  एक वास्तविक और सकारात्मक प्राच्यवाद है जिसकी नुमाइंदगी सर विलियम जोंस, सेमुअल जानसन, विलियम बेकफ़र्ड और लॉर्ड बायरन जैसे लोग करते हैं। यह प्राच्यवाद मानवतावाद से उपजा है, न कि साम्राज्यवाद से। इसने धार्मिक जड़सूत्रवाद को ख़ारिज करते हुए इस्लाम का अध्ययन किया है जिससे वैकल्पिक संस्कृतियों की खोज का रास्ता खुला है। प्राच्यवाद की दूसरी प्रवृत्ति धार्मिक और राजनीतिक मकसदों से किये गये भ्रांत और प्रचारात्मक साहित्य की है।

इतिहासकार बर्नार्ड लेविस के मुताबिक सईद ने ज्ञानोदय और विक्टोरियाई दौर में पश्चिमी विद्वानों द्वारा किये गये पूर्व की संस्कृतियों के कई बेहतरीन अध्ययनों को नज़रअंदाज़ किया है। उनकी व्याख्या यह नहीं बताती कि सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में फ़्रांसीसी और ब्रिटिश अध्येताओं द्वारा इस्लाम का अध्ययन क्यों किया गया था, जबकि उस समय तो दूर-दूर तक मध्य-पूर्व पर उनके साम्राज्यवाद की कोई सम्भावना नहीं दिख रही थी। इसी तरह सईद इतालवी, डच और जर्मन विद्वानों के ज़बरदस्त योगदान पर भी ध्यान नहीं देते, जबकि इस बौद्धिक परियोजना के साथ किसी भी तरह का साम्राज्यवादी इरादा नहीं जुड़ा हुआ था।

सईद के समर्थकों का जवाबी तर्क है कि ये आलोचनाएँ सही होते हुए भी प्राच्यवाद की बुनियादी थीसिस को ख़ारिज नहीं करतीं। पश्चिमी मीडिया, साहित्य और फ़िल्मों में उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दौरान हुआ पूर्व का निरूपण इसका प्रमाण है। ओरिएंटलिज़म के एक परवर्ती संस्करण में सईद ने यह तो स्वीकार कर लिया कि जर्मन विद्वत्ता उनकी थीसिस के दायरे से बाहर रह गयी, लेकिन प्राच्यवाद की उनकी समझ का दूसरा चरण 1993 में प्रकाशित रचना 'कल्चर ऐंड इम्पीरियलिज़म' के साथ सामने आया। उन्होंने तर्क दिया कि बीसवीं सदी का इलेक्ट्रॉनिक और उत्तर-आधुनिक अमेरिका अरबों और इस्लाम के अमानवीय बिम्बों को पुष्ट करता है। अपने विश्लेषण को आगे बढ़ाते हुए वे अफ़्रीका, भारत और सुदूर पूर्व तक गये और साम्राज्यवादी सांस्कृतिक परियोजना के दायरे में जोसेफ़ कोनराड, जेन आस्टिन और अल्बैर कामू जैसे रचनाकारों को भी समेट लिया।

देखें

उत्तर-औपनिवेशिकता, एडवर्ड विलियम सईद, एंतोनियो ग्राम्शी, क्लॉद लेवी-स्त्रॉस, गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक, प्राधिकार, भारतीय इतिहास-लेखन-1 से 4 तक, मिशेल पॉल फूको-1 और 2, रणजीत गुहा, वर्चस्व, संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद।

संदर्भ

1. एडवर्ड सईद (1979), ओरिएंटलिज़म, न्यूयॉर्क, विंटेज.

2. एडवर्ड सईद (1993), कल्चर ऐंड इम्पीरियलिज़म, न्यूयॉर्क, विंटेज.

3. बर्नार्ड लेविस (1993), इस्लाम ऐंड द वेस्ट, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस.

4. जे.एम. मेकेंज़ी (1995), ओरिएंटलिज़म  : हिस्ट्री, थियरी ऐंड आर्ट्स, मेंचेस्टर युनिवर्सिटी प्रेस, मेंचेस्टर.

5. रोनाल्ड इंडेन (1986), ‘ओरिएंटलिस्ट कंस्ट्रक्शंस ऑफ़ इण्डिया’, मॉडर्न एशियन स्टडीज़, खण्ड 20, अंक 3.