"रहस्यवाद": अवतरणों में अंतर
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रहस्यवाद वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकर उस अलौकिक, परम , अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है ; वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है | और जव वह व्यक्ति इस चरम आनंद की अनुभूति करता है|तो उसको वाह्य जगत में व्यक्त करने में उसे अत्यंत कठिनाई होती है | लौकिक भाषा ,वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकती . इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है,जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते है| |
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'''रहस्यवाद''' हिंदी या समस्त भारतीय साहित्य का एक साहित्यिक आंदोलन है जिसका समय १९५० के आसपास समझा जाता है। इसका जन्म छायावाद के बाद हुआ। कुछ लोग इसको [[छायावाद]] की ही एक शाखा मानते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि रहस्यवाद और छायावाद आपस में मिलेजुले हैं। रहस्यवाद के अंतर्गत प्रेम के कई स्तर होते हैं। |
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हिंदी साहित्य में रहस्यवाद सर्वप्रथम मध्य काल में दिखाई पड़ता है | संत या निर्गुण काव्यधारा में कबीर के यहाँ, तो प्रेममार्गी या सूफी काव्यधारा में जायसी के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है | दोनों परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमे लीन होना चाहते हैं, कबीर योग के माध्यम से तो जायसी प्रेम के माध्यम से ;इसलिए कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है ; जायसी का बहिर्मुखी व भावनात्मक रहस्यवाद है | |
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रहस्यवाद के अंतर्गत प्रेम के कई स्तर होते हैं। |
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*प्रथम स्तर है अलौकिक सत्ता के प्रति आकर्षण। |
*प्रथम स्तर है अलौकिक सत्ता के प्रति आकर्षण। |
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*द्वितीय स्तर है- उस अलौकिक सत्ता के प्रति दृढ अनुराग। |
*द्वितीय स्तर है- उस अलौकिक सत्ता के प्रति दृढ अनुराग। |
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*तृतीय स्तर है विरहानुभूति। |
*तृतीय स्तर है विरहानुभूति। |
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*चौथा स्तर है- मिलन का मधुर आनंद। |
*चौथा स्तर है- मिलन का मधुर आनंद। |
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आधुनिक काल में भी छायावाद में रहस्यवाद दिखाई पड़ता है | महादेवी वर्मा के काव्य में रहस्यवाद की पर्याप्तता है ; लेकिन आधुनिक काल में रहस्यवाद उस अमूर्त,अलौकिक या परम सत्ता से जुड़ने की चाहत के कारण नहीं उत्पन्न हुआ अपितु यह लौकिक प्रेम में आ रही बाधाओं की वजह से उत्पन्न हुआ है | |
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महादेवी और निराला में आध्यात्मिक प्रेम का मार्मिक अंकन मिलता है। यद्यपि छायावाद और रहस्यवाद में विषय की दृष्टि से अंतर है। जहाँ रहस्यवाद का विषय - आलंबन अमूर्त, निराकार ब्रह्म है, जो सर्व व्यापक है, वहाँ छायावाद का विषय लौकिक ही होता है। |
महादेवी और निराला में आध्यात्मिक प्रेम का मार्मिक अंकन मिलता है। यद्यपि छायावाद और रहस्यवाद में विषय की दृष्टि से अंतर है। जहाँ रहस्यवाद का विषय - आलंबन अमूर्त, निराकार ब्रह्म है, जो सर्व व्यापक है, वहाँ छायावाद का विषय लौकिक ही होता है। |
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08:07, 31 जुलाई 2012 का अवतरण
रहस्यवाद वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकर उस अलौकिक, परम , अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है ; वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है | और जव वह व्यक्ति इस चरम आनंद की अनुभूति करता है|तो उसको वाह्य जगत में व्यक्त करने में उसे अत्यंत कठिनाई होती है | लौकिक भाषा ,वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकती . इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है,जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते है| हिंदी साहित्य में रहस्यवाद सर्वप्रथम मध्य काल में दिखाई पड़ता है | संत या निर्गुण काव्यधारा में कबीर के यहाँ, तो प्रेममार्गी या सूफी काव्यधारा में जायसी के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है | दोनों परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमे लीन होना चाहते हैं, कबीर योग के माध्यम से तो जायसी प्रेम के माध्यम से ;इसलिए कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है ; जायसी का बहिर्मुखी व भावनात्मक रहस्यवाद है | रहस्यवाद के अंतर्गत प्रेम के कई स्तर होते हैं।
- प्रथम स्तर है अलौकिक सत्ता के प्रति आकर्षण।
- द्वितीय स्तर है- उस अलौकिक सत्ता के प्रति दृढ अनुराग।
- तृतीय स्तर है विरहानुभूति।
- चौथा स्तर है- मिलन का मधुर आनंद।
आधुनिक काल में भी छायावाद में रहस्यवाद दिखाई पड़ता है | महादेवी वर्मा के काव्य में रहस्यवाद की पर्याप्तता है ; लेकिन आधुनिक काल में रहस्यवाद उस अमूर्त,अलौकिक या परम सत्ता से जुड़ने की चाहत के कारण नहीं उत्पन्न हुआ अपितु यह लौकिक प्रेम में आ रही बाधाओं की वजह से उत्पन्न हुआ है |
महादेवी और निराला में आध्यात्मिक प्रेम का मार्मिक अंकन मिलता है। यद्यपि छायावाद और रहस्यवाद में विषय की दृष्टि से अंतर है। जहाँ रहस्यवाद का विषय - आलंबन अमूर्त, निराकार ब्रह्म है, जो सर्व व्यापक है, वहाँ छायावाद का विषय लौकिक ही होता है।