तिरुमूलर
सन्त तिरुमूलर शिवभक्त तथा प्रसिद्ध तमिल ग्रंथ तिरुमंत्रम् के रचयिता थे।
अप्रिचय
[संपादित करें]तमिल भाषा का सबसे महत्वपूर्ण अंग उसका भक्ति साहित्य है। विद्वानों ने उसे दो भागों में विभाजित किया है-
- (1) शैव भक्तिसाहित्य और
- (2) वैष्णव भक्तिसाहित्य।
शैव भक्तिसाहित्य के रचयिता नायन्मार और वैष्णव भक्तिसाहित्य के रचयिता आलवार के नाम से विख्यात हैं। शैव संतों की संख्या 63 और वैष्णव संतों की संख्या 12 है। इनके अतिरिक्त और भी अनेक संत तथा भक्त कवि हुए हैं, जिन्होने भक्तिसाहित्य की धारा बहाई है। शैव संतों में अप्पर, संबंधर, सुंदरर, माणिक्कवाचगर और तिरुमूलर अधिक विख्यात हैं। समस्त तमिल प्रदेश में इन संतों की रचनाओं का व्यापक प्रचार है। संत तिरुमूलर के ग्रथ 'तिरुमंत्रम्' में 3000 पद्य हैं। इन पद्यों में यौगिक सिद्धांतों का सरल रूप में विवेचन किया गया है। तमिल के विद्वान् शैव संत तिरुमूलर को महान् सिद्ध संत मानते हैं। इन सिद्धों ने तमिल भाषा में योगशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, मंत्रशास्त्र, ज्ञानशास्त्र और रसायनशास्त्र का निर्माण किया है। सिद्धों का यह विश्वास बतलाया जाता है कि नंदी और अगस्तय आदि मुनियों ने भगवान् शिव से औषधि तथा चिकित्सापद्धति का ज्ञान प्राप्त किया।
तिरुमूलर का जीवनवृत संक्षेप में शेक्किषार के पैरिय पुराण में 28 चतुष्पदों मे मिलता है। वे कैलास के सिद्ध थे और स्वयं शिवजी से ज्ञान प्राप्त कर उन्होने जनता में उसका प्रचार किया था। उनका लक्ष्य जातिनिरपेक्ष मानव की सेवा करना था। उन्होंने रूढ़िग्रस्त शास्त्रों का विरोध किया और समन्वयवादी ढंग से भक्ति का प्रचार किया। उनका एकमात्र प्रसिद्ध ग्रंथ तिरुमंत्रम् है। अधिकांश विद्वान् इन्हें छठी या सातवीं शताब्दी का मानते है। पेरिय पुराण के अनुसार संत तिरुमूलर ने कैलाश, केदान, नेपाल, काशी, विंध्याचल और श्रीशैल आदि स्थानों का भ्रमण किया और अंत में अगस्तय मुनि से मिलने दक्षिणापथ में पधारे।
उनके जन्म की कथा इस प्रकार मिलती है। सांतमूर नामक ग्राम में गौपालक यादव परिवार में मूलन नामक एक चरवाहा रहता था। वह ब्राह्मणों की गाएँ चराया करता था। एक दिन चरागाह में उसकी मृत्यु हो गई। उसके वियोग से गाएँ आँसू बहाने लगी। उसी समय कैलासनिवासी सिद्ध उस ओर आए। उन्होंने पशुओं की दयनीय दशा का अनुभव किया। उनके दु:खनिवारणार्थ और कोई मार्ग न देखकर उन्होंने स्वयं मूलन के शरीर में प्रवेश किया। मूलन के जी उठने पर गायों ने प्रसन्नता व्यक्त की। मूलन ने उन गायों को, चरने के बाद, उनके घर यथास्थान पहुँचा दिया ओर स्वयं एक सार्वजनिक मठ में चले गए। वहाँ उन्होंने योगाभ्यास किया। मूलन की पत्नी उन्हें घर ले जाने के लिए आई। उसने बहुत आग्रह किया किंतु वे न गए और पुन: योग में लीन हो गए। उनका ग्रंथ तिरुमंत्रम् शैवों के 12 स्तोत्र ग्रथों में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस ग्रंथ से ज्ञात होता है कि तिरुमूलर महान् योगी, सिद्ध दार्शनिक एवं सर्व धर्म समन्यमार्ग को अपनानेवाले थे। उनके सिद्धांत विश्वजनीन हैं।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- Thirumoolar's SivaYoga — Thirumoolar's meditation techniques
- Thirumanthiram — Tamil version of Thirumanthiram
- Tirumantiram — English version of Thirumanthiram