जमाल

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जमाल हिन्दी के कवि थे।

परिचय[संपादित करें]

'शिवसिंहसरोज' में इन्हें जमालुद्दीन, पिहानी (हरदोई) निवासी और सं. १६२५ में उपस्थित कहा गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जमाल को मुसलमान कवि और उनका रचना-काल संवत् १६२७ अनुमानत: माना है। विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने इनके विषय में एक दंतकथा का उल्लेख किया है जो उन्होंने प्रसिद्ध कवि दीनदयाल गिरि के प्रशिष्य चुन्नीलाल से सुनी थी। उसके अनुसार जमाल सुकवि अब्दुर्रहीम खानखाना के पुत्र थे। विलास में डूबे रहने के कारण जमाल अंत:पुर से बाहर बहुत कम ही निकलते थे। पिता रहीम को यह बुरा लगता था। पुत्र को भोग से दूर खींचने और उसमें काव्यरचनाशक्ति जगाने के लिए रहीम ने प्रतिदिन रंगमहल के द्वार पर एक कूट दोहा लिखवाने का उपाय किया। जमाल नित्य उस दोहे को पढ़ते, देर तक उसका अभिप्रय समझते और प्रत्युत्तर में एक अन्य दोहा उसी द्वार पर अंकित कर देते थे। प्रश्नोत्तर रूप में इस दोहांकन का शुभ परिणाम यह हुआ कि जमाल भोग से भागकर काव्यरचना में लग गए। इस कपोलकथा से इतना पता लग जाता है कि जमाल सम्राट् अकबर के समय में अवश्य विद्यमान थे।

अब तक जमाल के पौने चार सौ के लगभग फुटकर दोहे और कतिपय छप्पय ही प्राप्त हो सके हैं। वैसे 'जमाल पचीसी' और 'भक्तमाल की टिप्पणी' इनके दो और ग्रंथ कहे जाते हैं। इन्होंने प्रमुख रूप से कूट दोहों की ही रचना की है जिनका प्रधान विषय शृंगार है। इनकी संपूर्ण रचनाएँ प्रेम, नीति और कृष्ण-कथा से संबंधित हैं। इन्होंने 'चित्रकाव्य' की रचना में विशिष्ट प्रकार की विचित्रता दिखाई है। भावव्यंजना की सहज मार्मिकता, शब्दक्रीड़ा की निपुणता और कूट काव्यरचना की प्रवीणता इनमें थी।


सन्दर्भ[संपादित करें]