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गीतारहस्य

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गीतारहस्य

गीतारहस्य नामक पुस्तक की रचना लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने माण्डले जेल (बर्मा) में की थी। इसमें उन्होने श्रीमदभगवद्गीता के कर्म योग की वृहद व्याख्या की। उन्होंने इस ग्रन्थ के माध्यम से बताया कि गीता चिन्तन उन लोगों के लिए नहीं है जो स्वार्थपूर्ण सांसारिक जीवन बिताने के बाद अवकाश के समय खाली बैठ कर पुस्तक पढ़ने लगते हैं। गीता रहस्य में यह दार्शनिकता निहित है कि हमें मुक्ति की ओर दृष्टि रखते हुए सांसारिक कर्तव्य कैसे करने चाहिए। इस ग्रंथ में उन्होंने मनुष्य को उसके संसार में वास्तविक कर्तव्यों का बोध कराया है।

तिलक ने गीतारहस्य लिखी ही इसलिए थी कि वह मान नहीं पा रहे थे कि गीता जैसा ग्रन्थ केवल मोक्ष की ओर ले जाता है। उसमें केवल संसार छोड़ देने की अपील है। वह तो कर्म को केंद्र में लाना चाहते थे। वही शायद उस समय की मांग थी। जब देश गुलाम हो, तब आप अपने लोगों से मोक्ष की बात नहीं कर सकते। उन्हें तो कर्म में लगाना होता है। वही तिलक ने किया।

गांधीजी तो गीता के अत्यन्त प्रशंसक थे। उसे वह अपनी माता कहते थे। उन्होंने भी गीतारहस्य को पढ़ कर कहा था कि गीता पर तिलकजी की यह टीका ही उनका शाश्वत स्मारक है। एक तरफ गीतारहस्य लिखना और दूसरी ओर गणपति बप्पा के उत्सव को सार्वजनिक तौर पर मनाने की शुरुआत करना तिलक महाराज के मास्टरस्ट्रोक थे।

अग्रेजों की गुलामी का दौर था। 1910 के नवम्बर की शुरुआत ही हुई थी। तबके बर्मा की मांडले जेल में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक कैद थे। वहीं पर एक सुबह उन्होंने महसूस किया कि बरसों से जिस गीता पर लिखना चाहते थे, वह समय आ गया है।

अपने धुआंधार राजनीतिक जीवन से उन्हें कोई समय मिल नहीं पाता था। लेकिन जब भी वह जेल में होते, तो गीता उनके जेहन में चली आती। वह गीता से बेहद प्रभावित थे। लेकिन उसकी व्यात्रया को ले कर परेशान रहते थे। अपने समय और समाज के मुताबिक गीता को देखना और समझना चाहते थे। एक थके हुए गुलाम समाज को जगाने के लिए वह गीता को संजीवनी बनाना चाहते थे।

जब उन्हें तीसरी बड़ी जेल हुई, तो उन्होंने उस पर काम शुरू कर दिया। वह काम, जिसकी नींव बहुत पहले शायद उनके मन पर पड़ गई थी। 16 साल की उम्र में अपने मरणासन्न पिता को मराठी में गीता सुनाई थी। तभी से गीता को लेकर एक किस्म का लगाव हो गया था। बाद में जब धीरे-धीरे उम्र पकने लगी और समझ बढ़ने लगी, तो गीता के तमाम रहस्य खुलने लगे। उन्हें दिक्कत यह हुई कि गीता की तमाम टीकाएं संसार से दूर ले जानेवाली यानी निवृत्ति मार्ग दिखाने वाली थीं। और तिलक का मन यह मानने को तैयार ही नहीं था कि गीता जैसी किताब आपको महज मोक्ष की ओर ले जाने वाली है। आखिर अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करनेवाली गीता निरे मोक्ष की बात कैसे कर सकती है! इसीलिए उन्होंने कहा, "मूल गीता निवृत्ति प्रधान नहीं है। वह तो कर्म प्रधान है।"

गीतारहस्य को महज पांच महीने में पेंसिल से ही उन्होंने लिख डाला था। एक दौर में लगता था कि शायद ब्रिटिश हुकूमत उनके लिखे को जब्त ही कर ले। लेकिन उन्हें अपनी स्मरणशक्ति पर बहुत भरोसा था। इसीलिए अपने बन्धुओं से कहा था, "डरने का कोई कारण नहीं। हालांकि बहियां सरकार के पास हैं। लेकिन तो भी ग्रंथ का एक-एक शब्द मेरे दिमाग में है। विश्राम के समय अपने बंगले में बैठकर मैं उसे फिर से लिख डालूंगा।"

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