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औचित्यवाद

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भारतीय काव्यशास्त्र में आचार्य अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमेंद्र ने अपनी कृति "औचित्यविचारचर्चा" में 'औचित्य' तत्व को रससिद्ध काव्य का जीवित या आत्मभूत घोषित कर एक नए सिद्धान्त की स्थापना की थी, जो औचित्यवाद के नाम से प्रसिद्ध है। (औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्)

आचार्य क्षेमेन्द्र औचित्य को ही रस का प्राण मानते हैं। औचित्य को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं-

उचितं प्राहुराचार्याः सदृशं किल यस्य यत्। (औचित्यविचारचर्चा)
उचितस्य च यो भावस्तदौचित्य प्रचक्षते॥

आचार्य क्षेमेन्द्र अनौचित्य को रसभंग का सबसे बड़ा कारण मानते हैं या यों कहना चाहिए कि अनौचित्य को ही एक मात्र रसभंग का कारण कहा हैं:-

अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गञंस्य कारणम्।
( अर्थात अनौचित्य के अतिरिक्त रसभंग का दूसरा कोई कारण नहीं है।)

क्षेमेंद्र की इस उद्भावना के बीज महर्षि भरत के नाट्यशास्त्र में भी उपलब्ध हैं, जिन्होंने नाटक में वेशभूषा के समुचित सन्निवेश की बात की है। बाद में औचित्य शब्द का प्रयोग न करते हुए भी भामह, उद्भट और दंडी इस तत्व की सत्ता प्रकारांतर से मानते जान पड़ते हैं। रुद्रट तो "औचित्य" शब्द का स्पष्ट प्रयोग भी करते हैं। किंतु औचित्य को विशेष महत्व दिया ध्वनिकार आनंदवर्धन ने। उनके अनुसार रसदोष का प्रधान कारण औचित्य का अभाव है। अतः कवि को काव्य में औचित्य का सदा ध्यान रखना होगा। अलंकार और गुण की योजना जब तक उचित नहीं होगी, काव्य चमत्कारी नहीं हो सकेगा। इस बात को ही क्षेमेंद्र ने अपनी कृति में स्पष्ट घोषित करते हुए कहा था, "औचित्य के बिना न अलंकार ही रुचि पैदा करते हैं, न गुण ही।" वक्रोक्तिजीवितकार कुंतक ने भी काव्य के दो प्रधान गुणों में एक औचित्य माना है, दूसरा है सौभाग्य।

वस्तुतः औचित्य कुछ नहीं, कवि के मूल भाव के अनुरूप गुण, अलंकार, रीति, शब्दशय्या, छंदरचना, विभावादी की योजना आदि का समुचित विन्यास है।

इस प्रकार औचित्य सिद्धांत काव्य की समग्रता को ध्यान में रखकर स्थापित उद्भावना है। कहा भी जाता है कि ध्वनि, रस, काव्यार्थानुमिति, गुण, अलंकार, रीति तथा वक्रोक्ति सभी वस्तुतः औचित्य का ही अनुधावन करते हैं। कथ्य तथा शिल्प दोनों परस्पर समानुरूप होने चाहिएँ, उसी तरह काव्य के विभिन्न अवयवों में भी औचित्य का ध्यान रखना कवि के लिए आवश्यक है। क्षेमेंद्र ने इस तत्व को काव्य की आत्मा घोषित कर इसके २७ भेद माने हैं -

पद, वाक्य, प्रबंधार्थ, गुण, अलंकार, रस, क्रिया, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात, काल, देश, कुल, व्रत, तत्व, सत्व, अभिप्राय, स्वभाव, सारसंग्रह, प्रतिभा, अवस्था, विचार, नाम तथा आशीर्वाद।

इस तालिका से स्पष्ट है कि औचित्य सिद्धांत काव्य के बहिरंग तथा अंतरंग दोनों को ध्यान में रखकर प्रतिष्ठापित समीक्षाविधि है।

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