ईहाम

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हाफ़िज़ का दीवान, ईहाम की कला का एक शानदार नमूना। ईरान का राष्ट्रीय संग्रहालय, तेहरान, ईरान

फारसी, कुर्द और अरबी कविता में ईहाम (फ़ारसी- ايهام ) एक तरह का अलंकार होता है, जिसमें एक लेखक का एक शब्द (या वाक्यांश) कई मायनों में समझा जा सकता है। प्रत्येक अर्थ तार्किक रूप से सही होने के साथ समान रूप से सच और जान-बूझकर प्रयुक्त हुआ हो सकता है।[1]

परिभाषाएं[संपादित करें]

12 वीं शताब्दी में, रशीद अल-दीन वतवत ने ईहाम को इस प्रकार परिभाषित किया है: " फारसी में ईहाम का मतलब शक़ पैदा करना होता है। यह एक साहित्यिक उपकरण है, जिसे तख़यील भी कहा जाता है [जिसे पढ़कर कोई सोचे और कल्पना करे], जिससे लेखक (दबीर ), गद्य में, या कवि, पद्य में, एक शब्द को दो अलग-अलग अर्थों के साथ नियोजित करता है। इनमें से एक अर्थ प्रत्यक्ष और तत्काल समझ में आने वाला( क़रीब ) और दूसरा दूरस्थ और अजीब लगने वाला( ग़रीब ) होता है। यह इस तरह से होता है कि श्रोता, जैसे ही वह शब्द सुनता है, वह उसके प्रत्यक्ष अर्थ के बारे में सोचता है, जबकि वास्तविकता में लेखक का इरादा दूरस्थ अर्थ देने का होता है।"[1]

अमीर खुसरो (1253–1325 CE) ने यह धारणा शुरू की जिसमें एक शब्द, या वाक्यांश के कई अर्थों में से कोई भी (बहुस्तरीय पाठ बनाने के लिए) समान रूप से सही और इच्छित हो सकता है।[2] अर्थों को ढूंढ़ते हुए परत-दर-परत शब्द की गहराई में जाना पाठक के लिए एक चुनौती होगी, जिसे ध्यान लगाते हुए वैकल्पिक अर्थों को देखने के लिए अपनी बुद्धि और कल्पना को लागू करना है।[1]

ईहाम से जुड़ा एक अन्य विचार यह है कि एक कविता पाठक की स्थिति के दर्पण के रूप में कार्य कर सकती है, जैसा कि 14 वीं शताब्दी के लेखक शेख़ मनेरी ने व्यक्त किया था: "एक कविता अपने आप में कोई निश्चित अर्थ नहीं रखती है। यह तो पाठक / श्रोता है जो अपने मन की व्यक्तिपरक स्थिति के अनुरूप विचार करता है। " [1] 15 वीं शताब्दी के कवि फ़हर-ए-दीन निज़ामी ने ईहाम को किसी भी अच्छी कविता का एक अनिवार्य तत्त्व माना: "एक कविता जिसमें दोहरे अर्थ वाले शब्द नहीं होते हैं, ऐसी कविता किसी को भी आकर्षित नहीं करती है।"[3]

यह सभी देखें[संपादित करें]

  • कुरान की गूढ़ व्याख्या

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Muzaffar Alam (2003). "The Culture and Politics of Persian in Precolonial Hindustan". प्रकाशित Sheldon I. Pollock (संपा॰). Literary cultures in history: reconstructions from South Asia. University of California Press. पपृ॰ 179–182. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-22821-4. अभिगमन तिथि 15 November 2011.
  2. Muzaffar Alam (2004). The languages of political Islam: India, 1200-1800. Hurst & Co. पृ॰ 122. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-85065-709-5. अभिगमन तिथि 21 November 2011.
  3. Sheldon I. Pollock (2003). Literary cultures in history: reconstructions from South Asia. University of California Press. पपृ॰ 824–826. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-22821-4. अभिगमन तिथि 15 November 2011.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]