सदस्य:Sonydaniel117
कबीरदास-साखी और व्याख्या[संपादित करें]
१)साधु ऐसा चहीए,जैसे सूप सुभाय। सार-सार को गाही रहै,थोथा देइ उडाय॥
व्यख्या:- प्रस्तुत दोहे में संत कबीर कहते हैं कि सच्चा साधु गुणग्राही होता है।वह संसार की अच्छाई को ग्रहण करके ,बुराई को छोड देता है।उसका स्वभाव सूप जैसा होता है।सूप अनाज में सार पदार्थ को ग्रहण करके भूसे को उडाकर फेंक देता है।उसी प्रकार साधु जगत की विषय-वासनाओं को त्यागकर अच्छे विषयों को ही स्वीकार करता है।वह बुराई की ओर आकृष्ट नहीं होता।
२)जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजिए न्यान। मोल करो तलवार का,पडा रहन दो म्यान॥
व्यख्या:- प्रस्तुत दोहे में संत कबीर कहते है कि साधु की पहचान उसके न्यान के द्वारा होती है,किन्तु जाति के द्वरा नहीं।उत्त्म जाति में पैदा होने मात्र से हर कोई उत्तम न्ही बन जाता।निम्न जाति का हर आदमी अधम भी नहीं होता।चारित्रिक गुण वैयत्त्किक हैं।जातियां मनुष्य ने बनायी है,ईश्वर ने नहीं।सज्ज्न किसी भी जाति में पैदा होता है,जिसके कारण वह जाति गौरवन्वित होती है।साधु को उसके न्यान के आधार पर आदर मिलती है।तलवार खरीदते समय उसकी धार की परीक्षा की जाती है,किन्तु म्यान की नहीं।काम आनेवाली चीज़ तलवार है,न की म्यान।ठीक इसी प्रकार न्यान महत्त्वपूर्ण है और जाति नग्ण्य है।