सदस्य:Ninja120296/प्रयोगपृष्ठ

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तांडव नृत्य:

एक पौराणिक कथा के अनुसार त्रिपुरसुर राक्षस का वध करने के लिये भगवान शन्कर ने वीर और रौद्र रास प्रधान जो नृत्य किया था, उसे तांडव अथवा शिव तांडव कहते हैं। अत: स्पष्ट हौ कि तांडव नृत्य वीर रस प्रधान और पुरुषों के लिये अंग है, क्योंकि इसमे ऐसे अंगहारो क प्रदर्शन किया जाता है जो स्त्रियो के लिये उपयुक्त नहीं है। अंगो की चपलता, वीर, क्रोध तथा रौद्र रस-प्रदर्शन के लिये यह बहुत उपयुक्त नृत्य शैली है। नृत्य के समय क्रोध की ज्वाला भभकने लगती है, धरती काँपती सी प्रतीत होती है और ऐसा लगता है कि मानो संपूर्ण विश्व में संहार क्रिया हो रही हो। अत: ऐसी अभिनय सुकोमल स्त्रियों के लिये कैसे शोभा दे सकती है? स्त्रियों के लिए तो लास्य नृत्य माना गया है। तांडव नृत्य में विश्व की पांच चरणों - सृष्टि, स्थिति, तिरोभाव, आविर्भाव और संहार दिखाई जाती है। अंत में आसुरी प्रवृत्तियों पर विजय के आनंद से नृत्य समाप्त हो जाता है।

तांडव नृत्य की वेश-भूषा:

सिर पर जटा और गंगा की धारा, जटा के ऊपर दूज का चंद्रमा, गर्दन और हाथ मे सर्प लपेटे हुए, कानों में कुण्डल, गले में रुद्राक्ष की माला, माथे पर तीसरा नेत्र, बदन मे भभूत, कमर में मृग - छाला, एक हाथ में डमरू और दूसरे हाथ में त्रिशूल - इस प्रकार कि वेश-भूषा में तांडव नृत्य किया करते हैं।

मुद्रायें:

इस नृत्य में अंगों की तोड़ - मरोड़, विशेषत: कटि की, बहुत महत्व रखती है। इसके चार विभाग होते हैं -

  • अभंग - इसमें साधारण तोड़ - मरोड़ किया जाता है।
  • समभंग - इसमें बराबर तोड़ - मरोड़ किया जाता है।
  • त्रिभंग - इसमें तिरछे प्रकार के तोड़ - मरोड़ का अभिनय किया जाता है।
  • अतिभंग - इसमें ऊंची मरोड़ का अभिनय किया जाता है।

वाद्य:

इस नृत्य में अधिकतर डमरू, नौबत, शंख, घड़ियाल, झांझ, मृदंग, धोंसा आदि वाद्य बजाए जाते हैं। अंगों के जोरदार चलन और विभिन्न वाद्यों क यथा समय प्रयोग रौद्र - रस के संचार में सहायक होता है। ऐसा मालूम पड़ने लगता है कि संहार हो रहा हो, पता नहीं संसार कि क्या होने वाला है। इन स्थितियों के अनुकूल वाद्यों क प्रयोग होता है।