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सदस्य:Chandrapal rajpoot

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मध्य प्रदेश की अनुसूचित जातियां Schedule Caste Of Madhya Pradesh--

👉 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 में सूचीबद्ध जातियों को अनुसूचित जातियां कहते हैं

  • परिभाषा: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366 है खंड 24 में
  • मध्य प्रदेश में कुल अनुसूचित जातियों की संख्या 47

है

  • सबसे बड़ी अनुसूचित जाति चर्म शिल्पी (मोची) है
  • sc कीजनसंख्या कुल एक करोड़ 13 लाख 42 हजार हैं जो मध्य प्रदेश की कुल जनसंख्या का 15.60% है
  • न्यूनतम अनुसूचित जाति वाले जिले जनसंख्या में-
झाबुआ
अलीराजपुर
मंडला
बड़वानी 

उमरिया

अधिकतम अनुसूचित जाति वाले खिले जनसंख्या में -

इंदौर 

उज्जैन सागर मुरैना छतरपुर

सर्वाधिक अनुसूचित जाति वाले जिला प्रतिशत में :-
उज्जैन 

दतिया

  • न्यूनतम अनुसूचित जाति वाली जिला प्रतिशत में
झाबुआ
अलीराजपुर 
  • अनुसूचित जातियों में सबसे अधिक साक्षर जिला बालाघाट है
  • अनुसूचित जातियों की साक्षरता दर 66. 2% है
  • अनुसूचित जातियों का लिंगानुपात 920 है

मध्यप्रदेश की प्रमुख अनुसूचित जातियां -

1. चर्म शिल्पी : कुल sc का 47% प्रतिशत है 

इसके अंतर्गत जातियां आती हैं सूर्यवंशी, जादव,अहिरवार,रैदास,मोची

2.बेडिया :  यह सागर जिला में निवास करती है यह वैश्यावृत्ति  से संबंधित है इसके लिए जावली योजना चलाई गई थी

3. भंगी: यह ऐसी का कुल 16% है 4 .लखारा : यह लाख का काम करती है 5 . खटीक:- यह राज की दूसरी बड़ी अनुसूचित जाति है

6. बसोर:- बांस का काम करती है बालाघाट निवास करती है

मध्य प्रदेश में आर्थिक विकास की चुनौतियां-



मध्यप्रदेश अब 51 साल का हो गया, एक विकसित राज्य होने के लिए इतना समय काफी होता है पर प्रदेश में विकास की राह में कई चुनौतियां हैं। प्रदेश में बुनियादी सुविधाओं शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क में सुधार लाये बिना प्रदेश को विकसित राज्यों की कतार में खड़ा नहीं किया जा सकता। शिक्षा या स्वास्थ्य के ढांचे में सुधार लाने की बात हो या फिर अन्य समस्याओं के समाधान की बात हो, प्रदेश में संसाधनों की कमी नहीं है बल्कि इन समस्याओं की जड़ में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, बेहतर प्रबंधन का अभाव, मूलभूत सेवाओं के निचले ढांचे में सुधार का अभाव है। वर्तमान में प्रदेश विकास के उड़नखटोले पर सवार है पर यह साफ नजर आ रहा है कि जमीनी स्तर पर मूलभूत सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए विकल्पों पर विचार नहीं किया जा रहा है। यद्यपि पिछले दशकों की तुलना में सुधार देखने को मिल रहा है पर इसके बावजूद इसे संतोषजनक नहीं माना जा सकता। आर्थिक विकास में आगे निकलने के लिए प्रदेश कई कवायद कर रहा है पर यह आर्थिक विकास सामाजिक विकास को गति दिए बिना असंतुलित ही होगा और आम लोगों की पहुंच से बुनियादी सुविधाएं अधिक दूर हो जाएंगी।

प्रदेश को विकसित बनाने के लिए यह जरूरी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य बुनियादी सुविधाओं को सहजता से आम लोगों तक पहुचाने के प्रयास किए जाएं, जिसमें स्वास्थ्य को खासतौर से महिला स्वास्थ्य को एक प्रमुख घटक के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि प्रदेश में मातृत्व मृत्यु दर न केवल राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है बल्कि दूसरे राज्यों की तुलना में भी प्रदेश की स्थिति खराब है। सामाजिक विकास में महिला स्वास्थ्य को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है।

प्रदेश सरकार का मानना है कि महिला स्वास्थ्य में सुधार लाना सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है पर प्रदेश में अभी भी प्रति वर्ष 7700 मातृत्व मृत्यु हो रही है। यदि सरकारी आंकड़ों को ही देखें, तो म.प्र. का आर्थिक सर्वेक्षण 2006-07 के अनुसार 10 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश में मातृत्व मृत्यु का औसत 498 प्रति लाख था, जो कि वर्तमान में 379 प्रति लाख के स्तर पर ही आ पाया है। मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य नीति के अनुसार वर्ष 2011 तक मातृत्व मृत्यु दर को 220 प्रति लाख के स्तर तक लाना है। यह लक्ष्य 1997 के 498 प्रति लाख मातृत्व मृत्यु दर के आधार पर रखा गया था. मीडियम टर्म हेल्थ सेक्टर स्ट्रेटजी- 2006 में 2005 की स्थिति में मातृत्व मृत्यु दर 400 प्रति लाख माना गया है।

यदि हाल ही में जारी तीसरे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों पर नजर डालें तो परिणामों में यह पाया गया है कि मध्यप्रदेश में अपने पिछले प्रसव के दरम्यान प्रसव पूर्व तीन आवश्यक जांच कराने वाली माताओं की संख्या 42.2 प्रतिशत है, किसी डॉक्टर, नर्स, ए.एन.एम., एल.एच.डब्ल्यु या प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की निगरानी में प्रसव कराने वाली माताओं की संख्या 37.1 प्रतिशत है, संस्थागत प्रसव कराने वाली माताओं की संख्या 29.7 प्रतिशत है, प्रसव के दो दिनों के अंदर प्रसव बाद की स्वास्थ्य निगरानी पाने वाली माताओं की संख्या 27.9 प्रतिशत है, सामान्य से कम बी.एम.आइ. वाली महिलाओं की संख्या 40.1 प्रतिशत है, 15-49 वर्ष की एनिमिया ग्रस्त विवाहित महिलाओं की संख्या 57.6 प्रतिशत है और एनिमिया ग्रस्त 15-49 वर्ष की गर्भवती महिलाओं की संख्या 57.9 प्रतिशत है।

यद्यपि प्रदेश सरकार बार-बार इन आंकड़ों को कठघरे में खड़ा कर यह दर्शाने की कोशिश कर रही है कि महिला स्वास्थ्य में व्यापक सुधार हुआ है पर स्वास्थ्य विभाग का निचला ढांचा इतना कमजोर हो गया है कि इस दावे पर विश्वास करना संभव नहीं है. सरकार स्वयं इस बात को स्वीकार कर रही है कि प्रदेश में डॉक्टरों की भारी कमी है, खासतौर से महिला डॉक्टरों की, तब महिलाओं को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं कैसे मिल रही है? पिछले विधानसभा सत्र में भी महिला डॉक्टरों की कमी को लेकर चर्चा हुई थी, जिसमें सरकार की ओर से यह कहा गया कि आयुष की महिला डॉक्टरों को प्रशिक्षित कर उन्हें ग्रामीण अंचलों में पदस्थ कर महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाएगी पर इसका क्रियान्वयन अभी देखने को नहीं मिला, जबकि प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी चल रही है, और इस पर अमल करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है। जन स्वास्थ्य के मुद्दे पर कार्यरत डॉक्टर एवं स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का भी स्पष्ट रूप से यह कहना है कि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के प्रयास और बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र को सौंपना, दोनों विरोधाभाषी काम है। जन स्वास्थ्य अभियान के डॉ. अजय खरे का कहना है कि स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना से स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की प्रक्रिया को उल्टी दिशा में जाएगी। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करने से महिला एवं बाल स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, तब न मातृ मृत्यु में कमी लाई जा सकती है और न ही बाल मृत्यु में। यह प्रदेश के लिए दुखद बात है कि बढ़ती आबादी के अनुपात में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार नहीं किया गया। इस स्थिति को सुधारने के बजाय इसे निजी हाथों में देने की तैयारी का अर्थ आम लोगों से स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकार को छिनने की साजिश ही हो सकती है। डॉ. खरे का कहना है कि अभी भी जिन समुदायों एवं इलाकों में महिला एवं बाल मृत्यु ज्यादा है, उन इलाकों से स्वास्थ्य केन्द्रों तक आना लोगों के लिए खर्चीला काम है, इस पर भी यदि स्वास्थ्य सेवाओं को निजी कर दिया गया, तो लोग स्वास्थ्य केन्द्रों में जाने के बजाय नीम-हाकिम एवं बाबाओं की शरण में ही जाएंगे। उसके बाद स्वास्थ्य की स्थिति सुधरेगी या फिर बिगड़ेगी, आसानी से समझा जा सकता है।

यदि प्रदेश में 51 सालों के बाद भी स्वास्थ्य सहित अन्य बुनियादी सुविधाओं का लाभ निचले स्तर तक नहीं पहुंच पाया है, तो इस पर व्यापक बहस चलाए जाने की जरूरत है, ताकि सही मायने में प्रदेश को विकसित राज्यों में शुमार किया जा सके और विकास के लाभ से वंचित समुदाय वंचित न रहे।