सदस्य:Riddhima gupta 19/प्रयोगपृष्ठ/1

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                                                              साहित्य और हिंदी सिनेमा

समाज और सिनेमा की परस्पर निर्भरता[संपादित करें]

वर्तमान समय में सिनेमा समाज का एक प्रतिबिंब है। साहित्य समाज के साथ सिनेमा को जोड़ने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है। दोनों साहित्य और सिनेमा एक दूसरे पर एक दूसरे पर निर्भर हैं। इससे पहले 40-50 साल की फिल्म केवल दर्शकों और उनकी दृष्टि पर आधारित थी। उस अवधि में फिल्म निर्देशक प्रेम संबंधों, पारिवारिक एकता और समाज की भावनाओं के बारे में एक मज़बूत दृष्टि रखते थे और तदनुसार फिल्म बनाते थे। फिल्म एक अत्यंत प्रभावी एवं शक्ति-युक्त दृश्य - श्राव्य माध्यम है। इस माध्यम में साहित्य, संगीत, नृत्य, छायाचित्रण आदि में विविध कलाओं का समन्वय होता है। वास्तविकता यह है कि आजकल सिनेमा का उद्देश्य आर्थिक सफलता है, मनोरंजन और अच्छी सलाह नहीं है। आज की फिल्में संक्रमण काल से गुजर रही हैं। साहित्य सिनेमा के सामने आदर्श प्रस्तुत करता है और भविष्य में भी कर सकता है।

प्रसिद्ध फिल्में और उनके निर्देशक[संपादित करें]

सर्वसाधारण सातवें दशक में ही मध्यम वर्ग की ज़िन्दगी से जुड़ी सामान्य घटनाओं पर आधारित हलकी-फुलकी,साफ-सुथरी फिल्में आई। इन फिल्मों में साहित्य के संस्कार का एक प्रभाव था। 'रजनी गंधा', 'छोटी-सी बात', 'कोरा कागज़' आदि इसी प्रकार की फिल्में थीं।

इस समय के बीच कलमेश्रर और गुलजार जैसे निर्माता सिनेमा की दुनिया में मौजूद थे। इन्होंने फिल्म और साहित्य के बीच के संबंध को जोड़े रखा। साहित्य का प्रतिबिंब स्पष्ट रूप से कमलेश्वर द्वारा लिखी गई पटकथाओं और गुलजार द्वारा लिखे गये संवादों और गीतों में देखा जाता है। 'तेरे मेरे सपने', 'मीरा', 'इजाजत' यासी फिल्मों की संवेदनशीलता और शालीनता प्रशंसनीय है। राही मासूम रजा भी लम्बे समय तक फिल्म जगत से जुड़े रहे। सातवे दशक के बाद वाले दशक में नए कलाकारों की कृतियों पर कुछ फिल्में बनाई गई थी। नए कलाकार उदयप्रकाश की कहानी 'हीरा लाल का भूत', मोहन हरि के 'उपरान्त', योगेश गुप्त के उपन्यास 'उनका फैसला' और अन्य साहित्य रचनाओं पर फिल्में बनायी गयी। साहित्य और सिनेमा की परस्पर निर्भरता बड़ी कठिनाइयों से भरी है। फिर भी सिनेमा की अथक यात्रा में साहित्य की सामाजिक प्रतिबद्धता ने चाँद लगा दिए हैं। सामूहिक जीवन में सत्य,शिव और सुन्दर स्थापित करने के लिए साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। किसी भी समाज की सभ्यता और संस्कृति को इसके साहित्य से जाना जाता है. जिस तरह से हिंदी फिल्म निर्माताओं को साहित्य का आकर्षण रहा है, उसी प्रकार हिंदी लेखको को हिंदी सिनेमा से आकर्षण रहा है। प्रेम चंद, भीष्म साहनी, राही मासूम रजा, कामलेश्वर निर्मल वर्मा, कवि नीरज, गुलजार आदि इसके उदाहरण हैं।

साहित्य के महत्व[संपादित करें]

साहित्य समाज का दर्पण होता है। उसी तरह सिनेमा भारतीय समाज का दर्पण है। हमारा साहित्य हमको एक संस्कृति के सूत्र में बांधता है। हमारा ज्ञान साहित्य के माध्यम से विस्तृत होता है। वर्त्तमान में असन्तुष्ट बनाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा देने की क्षमता साहित्य में होती है। साहित्य की तुलना सूरज के साथ करते हुए एक कवि ने लिखा है- अंधकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं, मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं।इससे यह स्पष्ट होता है कि पूरे विश्व में फैला हुआ अँधेरा दूर कर रोशनी में नहा लेने की शक्ति साहित्य में होती है। उसी तरह साहित्य में बुरे गुणों को अच्छे गुणों में बदलने की शक्ति है।