सदस्य:Amala joseph/वारकरी धार्मिक आंदोलन

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

वारकरी धार्मिक आंदोलन सम्पादन

वारकरी संप्रदायके बारेमें

वारकरी संप्रदाय वैष्णव संप्रदायोंमेंसे एक प्रमुख संप्रदाय है । पंढरपुरमें वास करनेवाले विठोबा देवता, वारकरी संप्रदायके साथ महाराष्ट्र राज्यके आराध्य देवता भी हैं । इस संप्रदायके अनुयायी, प्राप्त दीक्षाके अनुसार वार्षिक अर्थात प्रतिवर्ष, छः माहकी अर्थात वर्षमें दो बार, मासिक, पाक्षिक, साप्ताहिक अथवा नित्य पंढरपुरकी यात्रा करते हैं । इस यात्राको ‘वारी’के नामसे जानते हैं । तथा वारी करनेवालोंको ‘वारकरी’ कहते हैं । सामान्यतः सभी वारकरी पैदलही वारी करते हैं । पैदल वारी करनेसे शारीरिक तप होता है । पंढरपुरकी इस वारीके कारण, हिंदु परिवार एवं समाजमें मेल-जोल तथा संगठनमें सौहार्दपूर्ण वातावरण की वृद्धि हुई है ।'वारकरी' शब्द से तात्पर्य है कि 'वारी' तथा 'करी' अर्थात 'परिक्रमा करने वाला'। इस सम्प्रदाय के लोग पंढरपुर के मन्दिर में स्थापित विट्ठल भगवान की परिक्रमा करते हैं और संयमित जीवन व्यतीत करते हैं। वे भजन-कीर्तन, नाम-स्मरण तथा चिन्तन आदि में सदा लीन रहते हैं। वे नृत्य तथा गान करते हुए कभी-कभी भावावेश में भी आ जाते हैं। उन्होंने वर्णाश्रम धर्म के नियमों का बहिष्कार करते हुए प्रयत्ति मार्ग को मान्यता प्रदान की है। वे लोग सम्प्रदायिक परम्पराओं का भी विरोध करते हैं। वभगवान श्री विठ्ठलके भक्तको वारकरी कहते हैं । इस संप्रदायको वारकरी संप्रदाय कहा जाता है । वारकरी शब्दमें वारी शब्द अंतर्भूत है । वारीका अर्थ है यात्रा करना, फेरे लगाना । जो अपने आस्था स्थानकी भक्तिपूर्ण यात्रा पुन: पुन: करता है उसे वारकरी कहते हैं । सामान्यत: उनकी वेशभूषा इस प्रकार होती है । धोती, अंगरखा, उपरना तथा टोपी इसीके साथ कंधेपर भगवे रंगकी ध्वजा, गलेमें तुलसीकी माला, हाथमें वीणा तथा मुखमें हरिका नाम लेते हुए वह वारीके लिए निकलता है । वारकरी मस्तक, गले, छाती, छाती के दोनों ओर, दोनों भुजाएं ,कान एवं पेटपर चंदन लगाता है । वारकरी सम्प्रदाय का उद्भव दक्षिण भारत के 'पंढरपुर' नामक स्थान पर विक्रम संवत की तेरहवीं शताब्दी में हुआ था। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तकों में संत ज्ञानेश्वर का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने 'ज्ञानेश्वरी' और 'अमृतानुभव' नाम के दो महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना कर वारकरी सम्प्रदाय के सिद्धांतों को स्पष्ट कर दिया था। इस सम्प्रदाय में 'पंचदेवों' की पूजा की जाती है। संत पंरम्परा ऐसा माना जाता है कि ज्ञानेश्वर 'कश्मीरी शैव सम्प्रदाय' के 'शिवसूत्र' से प्रत्यक्षत: प्रभावित थे। उनकी योग-साधना का प्रभाव भी संत ज्ञानेश्वर पर पड़ा था। सम्भवत: इसी कारण उन्होंने शंकराचार्य के 'मायावाद' का खण्डन भी किया। ज्ञानेश्वर ने निराकार परमात्मा की भक्ति का प्रतिपादन अद्वैतवाद की भावना के अनुसार किया। उनके शिष्यों में संत नामदेव (संवत १३२७-१४०७) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिनकी अनेक रचनाएँ हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध हैं और जिन्होंने ज्ञानेश्वर की तीर्थ यात्राओं का वर्णन 'तीर्थावली' में किया है। इस सम्प्रदाय में संत एकनाथ (संवत १५९०-१६५६) तथा संत तुकाराम (संवत १६६६-१७०७) जैसे संत भी हुए हैं। इन्होंने संतों ने इस मत का प्रचार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। आगे चलकर यह सम्प्रदाय 'चैतन्य सम्प्रदाय', 'स्वरूप सम्प्रदाय', 'आनन्द सम्प्रदाय' तथा 'प्रकाश सम्प्रदाय' जैसी शाखाओं के माध्यम से अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने लगा। पंढरपुरकी वारी कलियुगमें सामान्य जनोंके लिए आचरणमें लानेयोग्य सरल मोक्षदायी व्रत है । यह व्रत आषाढ शुक्ल एकादशीसे आरंभ करते हैं । इसमें मुख्य रूपसे आषाढ, कार्तिक, माघ एवं चैत्र महीनेकी शुक्ल एकादशीको पंढरपुरकी यात्रा करते हैं । इसे ‘वारी’ कहते हैं । एकादशीके महत्त्वमें हमने देखा कि एकादशीके दिन भगवान श्री पांडुरंग अर्थात विठ्ठल पुंडलिकको मिलनेके लिए पंढरपुर आते हैं । क्त पुंडलिकको दिए वरके अनुसार पंढरपुरमें भगवान श्रीविष्णु विठोबाके रूपमें कमरपर हाथ धरे र्इंटपर युगोंसे खडे हैं एवं अनेक अज्ञात जीवोंका उद्धार कर रहे हैं । भगवान शिवजीने पंढरपुरकी श्रेष्ठ महिमाको जाना एवं उन्होंने ही प्रथम पंढरपुरकी वारीका आरंभ किया । ऐसी मान्यता है कि शिवजी अपने परिवार के साथ पंढरपुर आते हैं । संत ज्ञानेश्वर महाराजजी, संत नामदेवजी जैसे संतोंने इस स्थानकी महिमाको सामान्य जनोंतक पहुंचाया । तबसे सामान्य जनोंकी पंढरपुरकी वारीमें सम्मिलित होनेकी परंपरा आजतक अखंड रूपसे चल रही है । व पंढरपुरकी वारी आषाढ एकादशी कहते ही आंखोंके सामने उभर आता है पंढरपुरकी यात्राका दृश्य ! भगवान श्रीविष्णुका जागृत देवस्थान! पिछले आठ सौ से भी अधिक वर्षोंसे भक्तिभावसे सैंकडों किलोमीटर पैदल चलकर लाखों श्रद्धालु पंढरपुरमें एकत्रित होते हैं । माथेपर चंदन का तिलक धारण किए, गलेमें तुलसी माला पहने, हाथोंमें ध्वजा लिए एवं झांझ-मृदंग बजाते हुए भजन करनेवाले पुरुष तथा सिरपर तुलसी लिए महिलाएं ‘पुंडलिक वरदे हारि विठ्ठल … का जयघोष करते हुए अपने आराध्य देवताके दर्शन करने चल पडते हैं । ये हैं विठ्ठलभक्त ‘वारकरी’! आषाढ एवं कार्तिक एकादशीको वारकरी संप्रदायके लाखों लोग तथा अन्य विठ्ठलभक्त इस वारीमें समिल्लित होते हैं । भारतके आध्यात्मिक इतिहासकी यह एक वैशिष्ट्यपूर्ण घटना है । कई लोग इसे विज्ञानयुगका चमत्कार मानते हैं । इष्टदेव वारकरी सम्प्रदाय में 'पंचदेवों' की पूजा का विधान है, किन्तु इनके प्रधान इष्टदेव 'विट्ठल' भगवान हैं, जो श्रीकृष्ण के प्रतीक हैं। यद्यपि इस सम्प्रदाय में ब्रह्मा को निर्गुण मान गया है, किन्तु इसके अनुयायी भक्ति साधना को विशेष महत्व देते हैं। निर्गुण की अद्वैतभक्ति के लिए इसके अनुयायी ब्रह्मा के सगुण रूप को भी एक साधन मानते हैं।वारकरी संप्रदायकी रचना एवं गठनमें संतोंका योगदान

संतोंकी कृपासेही वारकरी संप्रदायकी रचना एवं गठन हो पाया है । संत ज्ञानेश्वर महाराजजीने वारकरी संप्रदायकी नींव डाली । उन्होंने इस संप्रदायको तत्त्वज्ञानके आधारपर गठित किया । संत नामदेवजीने महाराष्ट्रके साथही भारत भ्रमण किया एवं सेवकभावसे विठ्ठल भक्तिका विस्तार किया । जनार्दनस्वामीजीके शिष्य संत एकनाथजी इसके आधार स्तंभ बने । उनकी रचना श्रीमदभागवतकी टीकाको एकनाथी भागवतके नामसे जानते हैं । यह लोगोंके लिए पथप्रदर्शक बनी तथा संत तुकाराम महाराजजी इसके मुकुटमणि बने; अर्थात उन्होंने इस संगठन एवं परंपराको बलशाली बनाया । इस कारण देव एवं धर्मके प्रति सामान्य जनोंके मनमें अभिमानकी वृद्धि हुई । नए उत्साहसे लोग ईश्वरका भजन-पूजन करने लगे । इसी कालखंडमें अनेक बाह्य आक्रमण तथा परकीय सत्ताके प्रभावसे समाज भयग्रस्त था । परकीय अत्याचारोंके कारण सामान्य जनता भी त्रस्त थी । ऐसे समयपर संतोंद्वारा दिखाए गए भक्तिमार्गका अनुसरण करनेसे यहांके समाजमें नई चेतना जागृत हुई । उनमें देव, धर्म एवं हिंदु राष्ट्रकी रक्षा करनेका साहस, बल एवं धैर्य प्रखर हुआ । परिणामस्वरूप छत्रपति शिवाजी महाराजद्वारा हिंदवी स्वराज्य स्थापनाका प्रयत्न सफल हुआ तथा हिंदवी स्वराज्यकी स्थापना के रूपमें महाराष्ट्रकी जनताको इसका फल प्राप्त हुआ । ‘जय जय राम कृष्ण हरि’, इस मंत्रका उच्चारण करनेवाले, विविध संतोंके रूपमें अवतरित होकर समाजका दिशादर्शन करनेवाले साक्षात श्रीविष्णु भगवानके रूप श्रीविठ्ठलकी भक्ति करनेवाले वारकरी आज भी भक्तिपथपर चलते हुए सनातन हिंदु धर्म एवं धर्मस्थानोंकी रक्षाके कार्यमें अग्रसर हैं ।

संदर्भ[संपादित करें]