वीर बिग्गाजी

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वीर
बिग्गाजी
जाखङ गौत्र के कुल देवता

वीर बिग्गाजी
संबंध सनातन धर्म
अस्त्र भाला और तलवार
माता-पिता मेहन्द जी (पिता)
सुल्तानी (माता)
सवारी घोड़ी(धवल)

वीर बिग्गाजी का जन्म जाट जाति के जाखड़ गोत्र मैं हुआ। गायों की रक्षा करते वीर गति को प्राप्त हुऐ। बिग्गाजी जाखड़ गौत्र के कुल देवता के रूप मे पूजे जाते हैं।

परार्भिक जीवन[संपादित करें]

बिगाजी को राजस्थान के गौ रक्षक देवता के रूप में जाना जाता है। उनका जन्म 1358 ईस्वी में रिड़ी में राव मेहंदी और सुल्तानी देवी के यहा हुआ था। उनका जन्म स्थान वर्तमान में बीकानेर में स्थित है। बिग्गाजी बचपन से वीर और धनुष विद्या में निपुण थे। उस समय धरती को पीथल बोल कर पूजा जाता था और गायों की रक्षा करना, उन्हें चराना क्षत्रिय का परम धर्म माना जाता था। यही सीख बिग्गाजी को भी बचपन से दी गई थी। युवा होने पर बिग्गाजी का विवाह अमरसर के चौधरी खुशाल सिंह की पुत्री राजकंवर के साथ हुआ और बिग्गाजी का दूसरा विवाह मालासर के खींदाजी मिल की बेटी मीरा के साथ हुआ था।

गौरक्षा के लिए लड़ता रहा धड़, धरती हो गई खून से लाल

विक्रम संवत 1393 में वीर बिग्गाजी के साले का विवाह हुआ था। ऐसी लोक कथा प्रचलित है वीर बिग्गा जी के ससुराल में उनके साला श्री का विवाह उत्सव था. बिग्गा जी भी उस प्रसंग में अपने सहयोगियों सावलदान पहलवान, हेमा बांगड़वा, ढोली, पंडित ,गुमाना राम तावणिया, राधो टाकवा नाई व बाद्धो कालवा बेगारी के साथ शामिल हुये थे.। बिग्गाजी अपने ससुराल में भोजन करने बैठ ही थे कि उसी समय किसी अबला को सहायतार्थ वीर क्षत्रियों को पुकार लगाते हुए सुना. ब्राहमणियों ने अपना दुखड़ा सुनाया कि यहाँ के राठ मुसलमानों ने हमारी सारी गायों को छीन लिया है. वे उनको लेकर जंगल की और गए हैं. कृपा करके हमारी गायों को छुड़ाओ. उसी समय वीर बिग्गाजी में शौर्य जाग उठा और कवि की उन पंक्तियों को साकार किया- भीड़ पड़या रणधीर छुपे ना वीर. अपने अस्त्र-सस्त्र उठाये और साथी सावलदास पहलवान, हेमा बागडवा ढाढी, गुमानाराम तावणिया, राधो व बाधो दो बेगारी व अन्य साथियों सहित गायों के रक्षार्थ सफ़ेद घोडी पर सवार होकर मालासर से रवाना हुये. मालासर वर्तमान में बिकानेर जिले की बिकानेर तह्सील में स्थित है. बिग्गाजी अपने लश्कर के साथ गायों को छुडाने के लिए चल पड़े. मालासर से 35 कोस दूर जेतारण (जो अब उजाड़ है) में बिग्गाजी का राठों से मुकाबला हुआ. लुटेरे संख्या में कहीं अधिक थे. दोनों में घोर युद्ध हुआ. यह युद्ध राठों की जोहडी नामक स्थान पर हुआ. काफी संख्या में राठों के सर काट दिए गए. वहां पर इतना रक्त बहा कि धरती खून से लाल हो गई. युद्ध में राठों को पराजित कर सारी गायें वपस लेली, लेकिन एक बछडे के पीछे रह जने के कारण ज्योंही बिग्गाजी वापस मुड़े एक राठ ने धोके से आकर पीछे से बिग्गाजी का सर धड़ से अलग कर दिया।

खून ने धर्म रक्षा नहीं छोड़ी उनका धड़ बिना शीश के लड़ता रहा.. दोनों हाथों की तलवारें अपना शौर्य दिखाती रही..!

ऐसी लोक कथा प्रचलित है कि सर के धड़ से अलग होने के बाद भी धड़ अपना काम करती रही. दोनों बाजुओं से उसी प्रकार हथियार चलते रहे जैसे जीवित के चलते हैं. सब राठों को मार कर बिग्गाजी की शीश विहीन देह ने असीम वेग से व ताकत के साथ शस्त्र साफ़ किए. सर विहीन देह के आदेश से गायें और घोड़ी वापिस अपने मूल स्थान की और चल पड़े. शहीद बिग्गा जी ने गायों को अपने ससुराल पहुँचा दिया तथा फ़िर घोडी बिग्गाजी का शीश लेकर जाखड राज्य की और चल पड़ी, घोडी जब अपने मुंह में बिग्गा जी का शीश दबाए जाखड राज्य की राजधानी रीडी़ पहुँची तो उस घोडी को बिग्गा जी की माता सुल्तानी ने देख लिया तथा घोड़ी को अभिशाप दिया कि जो घोड़ी अपने मालिक सवार का शीश कटवा देती है तो उसका मुंह नहीं देखना चाहिए. कुदरत का खेल कि घोडी ने जब यह बात सुनी तो वह वापिस दौड़ने लगी. पहरेदारों ने दरवाजा बंद कर दिया था सो घोड़ी ने छलांग लगाई तथा किले की दीवार को फांद लिया. किले के बाहर बनी खई में उस घोड़ी के मुंह से शहीद बिग्गाजी का शीश छुट गया. जहाँ आज शीश देवली (मन्दिर) बना हुआ है । बिग्गाजी के जुझार होने क समाचार उनकी बहिन हरिया ने सुना तो एक बछड़े सहित सती हो गयी. उस स्थान पर एक चबूतरा आज भी मौजूद है, जो गांव रिड़ी में है. यह स्थान रीड़ी गाँव के पश्चिम की और है, जहाँ बिग्गाजी के पुत्रों ओलजी-पालजी ने एक चबूतरा बनवाया जो आज भी भग्नावस्था में 'थड़ी' के रूप में मौजूद है और जिसको गाँव के बुजुर्ग लोग 'हरिया पर हर देवरा' के रूप में पुकारते हैं. जब घोड़ी शहीद बिग्गाजी का शीश विहीन धड़ ला रही थी तो उस समय जाखड़ की राजधानी रीडी से पांच कोस दूरी पर थी. यह स्थान रीडी से उत्तर दिशा में गोमटिया की रोही में है. सारी गायें बिदक गई. ग्वालों ने गायों को रोकने का प्रयास किया तो उनमें से एक गाय घोड़ी से टकरा गई तथा खून का छींटा उछला. उसी स्थान पर एक गाँव बसाया गया जिसका नाम गोमटिया से बदल कर बिग्गाजी के नाम पर बिग्गा रखा गया. जहाँ आज धड़ देवली (मन्दिर) बना हुआ है. यह गाँव आज भी आबाद है तथा इसमें अधिक संख्या जाखड़ गोत्र के जाटों की है. यह गाँव राष्ट्रीय राजमार्ग पर रतनगढ़ व डूंगर गढ़ के बीच आबाद है. यहाँ पर बीकानेर दिल्ली की रेलवे लाइन का स्टेशन भी है.

लोगों में मान्यता है कि गायों में किसी प्रकार की बीमारी होने पर, बिग्गाजी के नाम का धागा गाय के गले में बांधने से सभी रोग ठीक हो जाते हैं. बिग्गाजी के उपासक त्रयोदसी को घी बिलोवना नहीं करते हैं तथा उस दिन जागरण करते हैं और बिग्गाजी के गीत गाते हैं. इसकी याद में आसोज सुदी 13 को ग्राम बिग्गा व रिड़ी में स्थापित बिग्गाजी के मंदिरों में विशाल मेले भरते हैं, जहां हरियाणा, गंगानगर तथा अन्य विभिन्न स्थानों से आए भक्तों द्वारा सृद्धा के साथ बिग्गाजी की पूजा की जाती है ।

चमत्कार :- वीर बिग्गाजी के चमत्कार की कई लोक कथाएँ प्रचलित हैं। एक बार वहां एक आदमी हेमराज कुंआ खोदते समय 300 फुट गहरी मिट्टी में डूब गया। लोगों ने उसे मुर्दा समझ कर छोड़ दिया। कई दिनों के बाद वहां के लोगों को नागाडा बजाता दिया गया। जब लोगों ने थोड़ी सी मिट्टी खोदी तो हेमराज जीवित मिला। उसने बताया कि बिगगाजी उसे अन्न-पानी देते थे। उसने नगाड़ा बनाया और बिग्गाजी के मंदिर में दिखाया। मंदिर में पूजा करने के समय कई बार घोड़े की थापें खरीदी जाती हैं। लोगों में बताया गया है कि बिग्गाजी के नाम पर मोली गाय के गले में बंधने से सभी प्रकार की बीमारी ठीक हो जाती है।

बंशी लाल जाखड़ न्योलखी



सिर कट गयो धड़ लड़तो रयो राखी जटवाडी रीत।

लोक सहित्य में बिग्गाजी[संपादित करें]

लोक सहित्य में बिग्गाजी के सम्बन्ध में अनेक दोहे और छंद जनमानस मे प्रचलित हैं जिन्से अनेक जानकारी प्राप्त होती हैं:

सौ ए कोसे रिच्छा करो हिंदवाणी रा सूर ।
इगियारी संवतां तणो बरस इक्कीसो साल ।
काती मास तिथी तेरसो वार शनिसर वार ।
राजा तो रतन सिंघ सिरदार सिंघ राजकंवार ।
धरसी बैठा पाठवी भली बताई वार ।
बडो भाई सदा सुख पिता नांव श्रीराम ।
सिंवर देवी कस्तूरा औ चंद कयो लछीराम ।

बिग्गाजी के छंद[संपादित करें]

सिंवरू देवी सारदा लुळहर लागूं पाय ।
बिगमल हुवो चुरूगढ सोभा देवूं बताय ।
कियो रड़ाको राड़ सूं लेसूं निजपत नांव ।
सारद सीस नवाय कर करसूं कथणी काम ।
बीदो बीको राजवी गढ पोटी गांव ।
जूना खेड़ा प्रगट किया इडक रतनगढ़ है धाम ।
रूघपत कुळ में ऊपन्यो भगीरथ वंश मांय ।
मामा कण-सा, नानै चूहड़ का नांव ।
चुरू गढ रो पाटवी परण्यो माला रै गांव ।
धिन कर चाल्यौ सासरै नाईज लिया बुलाय ।
कंगर कढाई कोरणी कपड़ा लिया सिलाय ।
कचव कंठी सोवणी गळ झगबग मोती झाग ।
मीमां जरी जड़ाव की माथै कसूमल पाग ।
धिन कर चाल्यो सासरै मात-पिता अरु मेंहद ।
कमेत घोड़ी बो धणी बण्यो पून्यूं को चंद ।
उठै पोटलिया की हुई चढाई, दिल्ली का तखत हजारो ।
क्या मक्का बलखबुखारोचढ्यो राठकर हौकारो ।
सिंवर मीर पीर पट्टाण ध्यान मैंमद का धर रे ।
किसो मुलक लौ मार किसो अक छोड़ो थिर रे ।
कहै राठ इक बात कयो थे हमरो करो ।
मार जाट का लोग डेरा जसरसर धरो ।
डावी छोड़दो डुडीयण जींवणी नागौरी गउवों घेरो ।
चढ्यो चुरू को लोग सुगन ने बोल झडा़ऊ ।
पिर्या सिंध सादूल सुगन बै हुया पलाऊ ।

श्री बिग्गाजी महाराज की आरती[संपादित करें]

जय बिगमल देवा-देवा-आशावत कुल के सूरज करूं मैं नित सेवा ।
डुडी वंश उजागर, संतन हित कारी (प्रभु संतन)
दुष्ट विदारण दु:ख जन तारण, विप्रन सुखकारी ॥ 1 ॥
सत धर्म उजागर सब गुण सागर, मंदन पिता दानी ।
सती धर्म निभावण सब गुण पावन, माता कस्तूरानी ॥ 2 ॥
सुन्दर पग शीश पग सोहे, भाल तिलक रूड़ो देवा-देवा ।
भाल विशाल तेज अति भारी, मुख पाना बिड़ो ॥ 3 ॥
कानन कुन्डल झिल मिल ज्योति, नेण नेह भर्यो ।
गोधन कारन दुष्ट विदारन, जद रण कोप करयो ॥ 4 ॥
अंग अंगरखी उज्जवल धोती, मोतीन माल गले ।
कटि तलवार हाथ ले सेलो, अरि दल दलन चले ॥ 5 ॥
रतन जडित काठी, सजी घोड़ी, आभाबीज जिसी ।
हो असवार जगत के कारनै, निस दिन कमर कसी ॥ 6 ॥
जब-जब भीड़ पड़ी दुनिया में , तब-तब सहाय करी ।
अनन्त बार साचो दे परचो, बहु विध पीड़ हरी ॥ 7 ॥
सम्वत दोय सहस के माही, तीस चार गिणियो ।
मास आसोज तेरस उजली, मन्दिर रतनगढ़ बणियो ॥ 8 ॥
दूजी धाम बिग्गा में सोहे, धड़ देवल साची ।
मास आसोज सुदी तेरस को, मेला रंग राची ॥ 9 ॥
या आरती बिगमल देवा की, जो जन नित गावे ।
सुख सम्पति मोहन सब पावे, संकट हट जावै ॥ 10 ॥

इन्हें भी देखें[संपादित करें]