रुक्मिणी

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रुक्मिणी भगवान कृष्ण की भार्या (पत्नी) थीं । रुक्मिणी को लक्ष्मी का अवतार भी माना जाता है । उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रेम विवाह किया था ।

रुक्मिणी (या रुक्मणी) भगवान कृष्ण की इकलौती पत्नी और रानी हैं । द्वारका के राजकुमार कृष्ण ने उनके अनुरोध पर एक अवांछित विवाह को रोकने के लिए उनका हरण किया एवं अपने साथ ले गए तदन्तर उन्हें दुष्ट शिशुपाल (भागवत पुराण में वर्णित) से बचाया । रुक्मिणी को भाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार भी माना जाता है । जन्म पौराणिक आख्यानों के अनुसार, राजकुमारी रुक्मिणी का जन्म वैशाख ११ (वैशाख एकादशी) को हुआ था । यद्यपि एक सांसारिक रानी के रूप में जन्मी, देवी लक्ष्मी के अवतार के रूप में उनकी स्थिति पूरे पौराणिक साहित्य में वर्णित है । कौरवों के बीच एक नायक, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने राजा भीष्मक की पुत्री, वैर्दभी रुक्मिणी से विवाह किया, जो कि भाग्य की देवी [श्रीओ मयत्रम] का प्रत्यक्ष अवतार था। (भागवत पुराण १०.५२.१६) द्वारका के नागरिक कृष्ण को देखने के लिए आतुर थे जो कि भाग्य की देवी रुक्मिणी के साथ थे । (श्रीमद्भागवत १०.५४.६०) लक्ष्मी जी ने अपने भाग में धरती पर भीष्मक के परिवार में रुक्मिणी के रूप में जन्म लिया । (महाभारत आदिपर्व ६७.६५६) रुक्मिणीदेवी, कृष्ण की रानी शक्ति स्वरूपा (मूलप्रकृति) हैं, जो कृष्ण (कृष्णमिका) की आदशक्ति हैं और वह दिव्य विश्व (जगत्कारी), द्वारका/वैकुंठ की रानी/माता हैं ।

उनका जन्म हरिद्वार में शक्तिशाली यादव शासक भीष्मक की पुत्री के रूप में हुआ। श्रुतियां जो भगवान श्रीकृष्ण के साथ बृज की गोपियों के अतीत के आख्यानों से संबद्ध हैं, ने इस सत्य (गोपाल-तपानि नानीसाद ५७) की घोषणा की है, उन्हें विलग नहीं किया जा सकता । जैसे लक्ष्मी विष्णु की शक्ति हैं वैसे ही रुक्मिणी भी श्री कृष्ण की शक्ति है ।

रुक्मिणी विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री थीं । भीष्मक मगध के राजा जरासंध के जागीरदार थे । रुक्मिणी को श्रीकृष्ण से प्रेम हो गया और वह उनसे विवाह करने को तत्पर हो गईं । जिनका गुण, चरित्र, आकर्षण और महानता जग विख्यात थी । रुक्मिणी का ज्येष्ठ भ्राता रुक्मी दुष्ट राजा कंस का मित्र था (जिसे कृष्ण द्वारा बाद में वध कर दिया गया था ।), इस कारण वह इस विवाह के विरुद्ध था ।

रुक्मिणी के माता-पिता रुक्मिणी का विवाह कृष्ण से ही करना चाहते थे लेकिन रुक्मी ने इसका कड़ा विरोध किया । रुक्मी एक महत्वाकांक्षी राजकुमार था और वह निर्दयी जरासंध का क्रोध नहीं चाहता था । इसलिए उसने प्रस्तावित किया कि उसका विवाह शिशुपाल से किया जाए, जो कि चेदि का राजकुमार एवं श्रीकृष्ण का चचेरा भाई था । शिशुपाल, जरासंध का एक जागीरदार और निकट सहयोगी भी था इसलिए वह रुक्मी का भी सहयोगी था ।

भीष्मक अपनी आत्म इच्छा को मारकर रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के संग करने के लिए स्वीकृति दे दी । लेकिन रुक्मिणी जो कि इस वार्तालाप को चुपके से सुन चुकी थी, भयभीत थी । परंतु उसने शीघ्र ही एक विश्वस्त ब्राह्मण को कृष्ण को संदेश देने के लिए मना लिया । जिसमें कृष्ण को विदर्भ आकर उसे अपने साथ ले चलने की विनती थी । श्रीकृष्ण ने युद्ध से बचने के लिए उनका हरण कर लिया । उसने कृष्ण से कहा कि वह आश्चर्यचकित है, कि वह (कृष्ण) बिना किसी रक्तपात के इसे कैसे पूर्ण करेंगे ! यह देखते हुए कि वह अपने महल के भीतर है । लेकिन इस संकट का समाधान यह था कि रूक्मिणी को देवी गिरिजा के मंदिर में आराधना के बहाने से महल से निकलना होगा । कृष्ण ने द्वारका में संदेश प्राप्त करते ही ज्येष्ठ भ्राता बलराम के संग विदर्भ को प्रस्थान किया ।

इसी बीच, शिशुपाल को रुक्मी से इस समाचार पर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि वह अमरावती जिले के कुंडिना (वर्तमान के कौंडिन्यपुर) जाकर रुक्मिणी पर अपना अधिकार जता सकता है । जरासंध ने इस पर भरोसा न करते हुए अपने सभी जागीरदारों और सहयोगियों को शिशुपाल के सहायतार्थ साथ कर दिया क्योंकि अंदेशा था कि श्रीकृष्ण अवश्य ही रुक्मिणी को बचाने आएंगे । भीष्मक और रुक्मिणी को गुप्त समाचार ज्ञात हुआ कि श्रीकृष्ण आ रहे हैं । भीष्मक, जिन्होंने कृष्ण को गुप्त रूप से स्वीकृति दी थी और कामना की कि वे रुक्मिणी को अपने संग ले जाएँ, उनके लिए एक सुसज्जित भवन की व्यवस्था भी कर रखी थी । उसने उनका प्रसन्नता पूर्वक आदर-सत्कार कर उन्हें सहज किया । इस बीच रुक्मिणी महल में विवाह के लिए सज्ज हो गई । परंतु वह निराश और अशांत भी थी कि अभी तक श्रीकृष्ण की ओर से कोई समाचार क्यों नहीं आया ! लेकिन फिर उसके वाम अंगों के फड़कने से उसे शुभ शगुन परिलक्षित होने लगे । शीघ्र ही ब्राह्मण ने आकर सूचित किया कि कृष्ण ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया है, जब वह भगवान शिव की भार्या देवी गिरिजा के समक्ष पूजा के लिए मंदिर गई थीं । जैसे ही वह बाहर निकलीं, उन्होंने कृष्ण को अपने समक्ष पाया, वह शीघ्र ही उनके साथ रथ में सवार हो गईं । शिशुपाल ने उन्हें निकलते हुए देख लिया तत्पश्चात जरासंध की सारी सेनाएँ उनका पीछा करने लगीं । बलराम ने उनमें से अधिकांश पर नियंत्रण कर उन्हें वापस लौटा दिया । रुक्मी ने कृष्ण और रुक्मिणी को लगभग पकड़ ही लिया था, जब भद्रोद के पास उसका कृष्ण से सामना हुआ । [२]

श्रीकृष्ण और रुक्मी के मध्य भीषण द्वंद्व हुआ, जब श्रीकृष्ण रुक्मी का वध करने ही वाले थे तब रुक्मिणी श्रीकृष्ण के चरणों में गिर गईं और विनती की, कि उनके भ्राता को क्षमा कर दे । कृष्ण ने सदा की तरह ही उदारता दिखाई, परंतु दंड स्वरूप रुक्मी के केश काट कर उसे मुक्त कर दिया । एक योद्धा के लिए इससे अधिक लज्जाजनक बात नहीं थी । पराजय के पश्चात क्षेत्रीय जनमानस द्वारा रुक्मी को गौडेरा के रूप में पराजय और लज्जा के देवता के रूप में पूजे जाने के दृष्टांत मिलते हैं ।

लोककथाओं के अनुसार, कृष्ण रुक्मिणी का हरण करने के पश्चात माधवपुर घेड गांव आए थे और इसी स्थान पर उनसे विवाह रचाया था । इसी की स्मृति में, माधवराय (श्रीकृष्ण) का एक देवालय निर्मित किया गया है । प्रतिवर्ष इस विवाह की स्मृति में माधवपुर में सांस्कृतिक मेले का आयोजन किया जाता है । द्वारका में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का बड़े ही धूमधाम और समारोह के साथ स्वागत किया गया ।

तुलादान रुक्मिणी के जीवन की एक सांकेतिक घटना है, जो यह संदेश देती है कि भक्ति का मोल भौतिक संपदा से परे है । श्रीकृष्ण की एक और रानी सत्यभामा, श्रीकृष्ण के प्रति उनके प्रेम के बारे में स्वयं को बताती हैं और उनके (श्रीकृष्ण) ह्रदय में अपना स्थान बना लेती हैं । दूसरी ओर रुक्मिणी एक समर्पित पत्नी हैं, जो अपने प्रभु की सेवा में विनम्र है । उनकी भक्ति ही उनकी वास्तविक आंतरिक सुंदरता है । एक अवसर पर, ऋषि नारद द्वारका पहुंचे और संवाद ही संवाद में सत्यभामा को संकेत दिया कि श्रीकृष्ण उनके प्रति जो प्रेम प्रदर्शित करते हैं वह वास्तविक नहीं है । वह रुक्मिणी ही है, जिनका उनके हृदय में स्थान है । इसे सहन करने में असमर्थ सत्यभामा ने इसे साबित करने के लिए नारदजी को चुनौती दी । नारदजी ने अपने शब्दों के साथ, उसे एक व्रत (अनुष्ठान) को स्वीकार करने में छल किया, जहां उसे श्रीकृष्ण को नारदजी को दान स्वरूप देना है और कृष्ण के भार बराबर स्वर्ण देकर उन्हे पुनः प्राप्त करना है । नारद ने उसे इस व्रत को स्वीकार करने का लालच दिया और उसे बताया कि यदि वह इस तुलाभरण को करने में सफल हो जाती है तो श्रीकृष्ण का उनसे प्रेम कई गुना बढ़ जाएगा । वह अपने अहंकार को संकेत देकर यह भी कहते हैं कि उनकी संपत्ति कृष्ण के भार के बराबर नहीं हो सकती । सत्यभामा के अहंकार को विधिवत उठाए जाने के पश्चात वह नारदजी से कहती हैं कि वह इतनी संपत्ति जुटा सकती हैं कि कृष्ण को पाना उनके लिए आसान है । नारद जी ने उसे (सत्यभामा) चेतावनी दी कि यदि वह ऐसा करने में समर्थ नहीं है, तो श्रीकृष्ण उसके दास बन जाएंगे, जैसा कि वह चाहते है ।

व्रत के लिए निर्धारित दिवस सत्यभामा अन्य पत्नियों की विनती के पश्चात भी कृष्ण को दान में दे देती हैं । कृष्ण नारदजी को इस नाटक के लिए नमन करते हैं । नारदजी को श्रीकृष्ण दान करने के पश्चात, सत्यभामा तुलादान के लिए व्यवस्था करती हैं और स्वर्णाभूषणों के अपने विशाल भंडार से सब कुछ तुला पर रख देने के पश्चात भी वह हिलता तक नहीं है । तब नारद ने उसे उलाहना देकर कहते हैं कि यदि वह पर्याप्त स्वर्ण या हीरे नहीं जुटा पाई तो वह श्रीकृष्ण को किसी और के दास के रूप में नीलाम करने के लिए विवश हो जाएंगे । सत्यभामा अपने अभिमान को पी लेती हैं और अन्य सभी पत्नियों से स्वर्णाभूषण देने के लिए भिक्षा माँगती हैं । वे सभी कृष्ण से प्रेम करती हैं, लेकिन दुःख, इसका भी कोई लाभ नहीं ।

कृष्ण इस सारे नाटक के एक मूक साक्षी बन, सत्यभामा के अहंकार के घावों पर उलाहना का नमक छिड़कते हैं कि द्वारका का राजा अब किसी ऋषि का दास बन जाएगा और उसे अपनी प्रिय पत्नी का बिछोह सहन करना पड़ेगा । नारद सत्यभामा को सुझाव देते हैं कि रुक्मिणी उन्हें इस उलझन से बाहर निकालने में सक्षम हो सकती हैं । अंत में सत्यभामा अपना अभिमान पी लेती हैं और कृष्ण को पहली पत्नी को समर्पित करती हैं । रुक्मिणी आती हैं और अपने पति से प्रार्थना के साथ एक तुलसी पत्र तुला पर रखती हैं । तुला एक बार में ही सम पर आ जाती है ।

भिन्न-भिन्न ग्रंथों में इसके भिन्न-भिन्न कथन हैं कि क्यों तुलाभरण किया गया ? रुक्मिणी द्वारा अर्पित तुलसी पत्र, सत्यभामा के धन की तुलना में भारी होना एक संकेत भर है कि भगवान को विनम्र भेंट किसी भी भौतिक संपदा से अधिक है ।

रुक्मिणी या रुखुमई को महाराष्ट्र के पंढरपुर में विठोबा (कृष्ण का अवतार) की पत्नी के रूप में पूजा जाता है ।

माना जाता है कि १४८० में रुक्मिणी देवी के सेवक संदेशवाहक इस दुनिया में वाडिरजतीर्थ (१४८०-१६००) के रूप में प्रकट हुए, जो माधवाचार्य परंपरा के सबसे बड़े संत थे । उन्होंने १२४० श्लोकों में रुक्मिणी और कृष्ण की महिमा का वर्णन करते हुए एक प्रसिद्ध रचना की ।

जिज्ञासा :

भगवान् श्रीकृष्ण ने रुक्मणीजी से राक्षस विधि से विवाह किया, क्या यह उचित है ?

रुक्मिणी जी पत्र में कहती हैं 'श्वाेभाविनि त्वमजिताेद्वहने विदर्भान् गुप्तः समेत्य पृतनापतिभिः परीतः। निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्रबलंप्रसह्य मां राक्षसेन विधिनाेद्वह वीर्यशुल्काम् ।।'

श्रीमद् भागवत १०/५२/४१

.......राक्षस विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ।

विवाह के आठ प्रकार - १. ब्राह्म २. दैव ३. आर्ष ४. प्राजापत्य ५. आसुर ६. गन्धर्व ७. राक्षस ८. पैशाच ये उत्तरोत्तर अधम माने गये हैं ।

समाधान :

।।निंदनीय है राक्षस विवाह।।

मनुस्मृति के अनुसार जब कोई पुरुष किसी स्त्री विशेष को अपनी भार्या बनाना चाहता है और स्वयं स्त्री, उसके परिवारजन अथवा समाज इस संबंध के लिए सहमत नहीं है, तो हरण कर उसे अपनी वधु बनाना राक्षस विवाह कहलाता है ।

इसमें विवाह के जो दो आवश्यक तथ्यात्मक नियम हैं उनमें से केवल एक ही पूर्ण हो रहा है।

अर्थात रुक्मिणीजी इस विवाह के विरोध में नहीं थी।

जब कभी भी राक्षस विधि से कोई पुरुष किसी स्त्री का हरण करके ले कर जा रहा होता है, तो उस समय वह स्त्री आर्त स्वर में अपने परिजनों एवं समाज को सहायता के लिए पुकारती है, जबकि यहां इस परिस्थिति में यह सब कुछ नहीं हुआ रुक्मणीजी ने स्वयं श्रीकृष्ण को निमंत्रित किया था और वह स्वयं उनका हाथ पकड़कर रथ पर विराजमान भी हुई थी अतः यह स्वयंवर की श्रेणी में आता है अर्थात स्त्री ने स्वयं ही वर का वरण किया था । वह इस विवाह के पक्ष में थी । इसमें विवाह के जो दो आवश्यक अध्यात्मवादी बंधन हैं उनमें से केवल एक ही पूर्ण हो रहा है ‌। कोई इस विवाह के पक्ष में नहीं था तो वह केवल ज्येष्ठ भ्राता राजकुमार रुकमि था । इस विवाह को शास्त्र भले ही राक्षस विवाह की श्रेणी में रखते हों, वास्तविकता में वह एक प्रकार से स्वयंवर ही था । उपरोक्त श्लोक में भी यह स्पष्टरूपेण प्रतिलक्षित हो ही रहा है कि रुकमणीजी ने ही संदेश के द्वारा श्रीकृष्ण से स्वयं आकर उन्हे लिवा ले जाने का अनुरोध किया था । तो इसे एक प्रकार का स्वयंवर भी कह सकते हैं और स्वयंवर कभी भी निंदनीय नहीं रहा है । देवी रूक्मणी का हरण उनके द्वारा भेजे गए संदेश के अनुसार ही हुआ । सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि जब कृष्ण ने रूक्मणी का विवाह के लिए हरण किया तो रूक्मणी ने स्वत हाथ पकड़कर कृष्ण को रथ पर चढ़ाया और रथ भी हांका । समाज को यह दिखाने के लिए कि यह सब उनकी पूर्ण सम्मति से हुआ । उन्होंने मन से तो कृष्ण को पति रूप में हरण के पूर्व ही स्वीकार कर लिया था । अत: नियमानुसार अगर स्त्री अपनी इच्छा से विवाह प्रस्ताव भेजती और स्वीकार करती है तो उसका हरण होने के पश्चात भी ऐसे विवाह को राक्षस विवाह की श्रेणी में ना रखकर गन्धर्व विवाह की श्रेणी में शास्त्रोक्त माना जाता है ।