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परजीवी विज्ञान

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वयस्क काली मक्खी (सिमुलियम याहेंस) संग ऑनकोसेर्का वॉल्व्युलस (Onchocerca volvulus) कृमि के एण्टिना से निकलता हुआ। यह परजीवी अफ्रीका में रिवर ब्लाइंडनैस (नदी अंधता) नामक रोग के लिये उत्तरदायी होता है। यह नमूना रासायनिक विधि से जमाया व क्रिटिकल बिंदु तक सुखाया हुआ है। फिर परंपरागत स्कैनिंग इलैक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखा गया। 100X (सौ गुणा) आवर्धित चित्र

परजीवियों की प्रकृति और उनके प्रभाव का अध्ययन जिस विज्ञानशाखा के अन्तर्गत होता है उसे परजीवीविज्ञान (Parasitology) कहते हैं।

परजीवी ऐसे जीव हैं जो अपने परपोषी पर कुछ समय, या समस्त जीवन, जीवनयापन करते हैं। इन्हें परपोषी से ही आहार तथा संरक्षण प्राप्त हो जाता है। परजीवी सामान्यतः छोटे होते हैं और परपोषी (host) अपेक्षाकृत बड़े। परजीवियों को अन्य जीवों की भाँति खाद्य की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे खाद्यों में नाइट्रोजन या जीवद्रव्य (protoplasm) का होना अत्यावश्यक है। इसे इन्हें मिलना चाहिए। कुछ परजीवी पौधों से या अन्य जीवों के प्रोटीन से, नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं। कुछ परजीवी मृत पौधों या मृत जन्तुओं से खाद्य प्राप्त करते हैं। कुछ परजीवी अन्य जीवों को भक्षण कर नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं। कुछ परजीवी पौधों के रसों या जन्तुओं के रुधिर से खाद्य प्राप्त करते हैं। कुछ के पास ऐसे साधन होते हैं कि वे स्वयं पौधों या जंतुओं में छेदकर उनसे रस या रुधिर प्राप्त कर अपना निर्वाह करते हैं।

परजीवी बहुत विस्तृत, वनस्पति या जांतव जगत में पाए जाते हैं। अधिकांश परजीवी विषाणु, दंडाणु, और कवक वर्ग के, अथवा प्रोटोज़ोआ, कृमि तथा ऐंथ्रोपॉड किस्म के जीव होते हैं (देखें, दंडाणु, विषाणु, कवक)। परजीवी विषाणुओं तथा दंडाणुओं से पौधों और मनुष्यों में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं (देखें, परजीविता)। परजीवी कवकों से फसलों के अनेक रोग, केंदवा, रितुआ, फफूंदी, अंगमारी इत्यादि और मनुष्यों के चर्मरोग, दाद आदि, होते हैं। परजीवी प्रोटोज़ोआ से मलेरिया, ऐमीबिक पेचिश और अफ्रीकी सुप्त रोग आदि होते हैं।

परजीवियों का जीवनचक्र बड़ा पेचीदा होता है। इनमें अनेकों का, विशेषतः रोगोत्पादक परजीवियों का, अध्ययन बड़े विस्तार से हुआ है, जैसे ये कहाँ बनते, कैसे बनते, कैसे अंडे देते और कैसे फैलते हैं, रोगों की रोकथाम के लिये इनका अध्ययन बड़ा आवश्यक है। इनकी आकारिकी (morphology) का भी अध्ययन विस्तार से हुआ है। ये कैसे उत्पन्न होते, कैसे रहते, कैसे बढ़ते हैं, इन सब बातों का अध्ययन इसलिए आवश्यक है कि आवश्यकता पड़ने पर इनकी वृद्धि रोकी जा सके। परजीवियों के उपापचय का भी अध्ययन हुआ है। अनेक परजीवी बैक्टीरिया विटामिनों का सृजन नहीं करते। विटामिनों के लिये उन्हें परपोषियों पर निर्भर रहना पड़ता है। परपोषी पर निर्भर रहने के कारण वे अपने आवश्यक खाद्य को स्वयं संश्लेषण करने में असमर्थ होते हैं। ऐसा विशेष रूप से विषाणुओं में देखा जाता है। विषाणुओं को जीवित कोशिकाओं के बाहर उत्पन्न करना सम्भव नहीं है। सामान्य अर्थ में कुछ विषाणुओं का हम जीवित होना भी नहीं कह सकते। ये परपोषी के उपापचय तंत्र के सहयोग से ही जीवित रहते और पनपते हैं।

परजीवी और परपोषी का सम्बन्ध साधारणतया सहयोजन (adjustment) का होता है। इसे सहोपकारिता (Mutualism) और कभी-कभी सहजीवन (Symbiosis) भी कहते हैं। कुछ परजीवी यदि रोग भी उत्पन्न करें तो परपोषी बिना किसी बुरे प्रभाव, या अपनी हनि के उन्हें रखे रहते हैं। ऐसे परजीवी वाहक (carriers) का काम करते है और रोगोत्पादक परजीवियों के फैलाने में सहायक होते हैं। परजीवियों का परपोषी पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका भी अध्ययन हुआ है और अब भी हो रहा है। पहले पहल जब परजीवी परपोषी को आक्रान्त करते हैं तब परपोषी उनके रोकने का प्रयास करते हैं। परपोषी में असंक्राम्यता (immunity) उत्पन्न होती है। यह असंक्राम्यता सहज (innate) हो सकती है या उपार्जित (acquired)। सहज असंक्राम्यता अधिकांश अ-विशिष्ट (non-specific) होती है। उपार्जित असंक्राम्यता भी अधिकांश अविशिष्ट होती है। पर कुछ जन्तुओं में विशिष्ट पिंड बनने के कारण विशिष्ट भी होती है। जब परजीवी किसी परपोषी जन्तु में प्रविष्ट करते हैं तब सहज असंक्राम्यता के कारण बहुत से परजीवी नष्ट हो जाते हैं। इस कारण उनके बढ़ने की गति में शिथिलता आ जाती है। संक्रमणकाल में परजीवी का प्रतिजन (antigen) परपोषी में प्रतिपिंड (antibody) उत्पन्न करता है। प्रतिपिंड दो प्रकार के होते हैं : एक प्रतिजीवविष (antitoxin) और दूसरा प्रतिजीवाणु और प्रतिकवक (antibacterial and antifungus)। जब परजीवी विष उत्पन्न करता है तब प्रतिपिण्ड उसके प्रभाव का निराकरण कर देता है। इसी से उपार्जित असंक्राम्यता आती है।

सहज असंक्राम्यता से अनेक पौधों के रोगों के रोकने में सफलता मिली है। ऐसे ही पौधे उगाए जाते हैं जो किसी विशेष जीवाणु या विशेष कवकों के प्रति विशेष रूप से प्रतिरोधक होते हैं। उपार्जित असंक्राम्यता से मनुष्यों और जन्तुओं में अनेक विषाणु और जीवाणुरोगों के नियंत्रण में बड़ी सहायता मिली है। इसके द्वारा डिप्थीरिया, टायफायड ज्वर, चेचक, पीतज्वर, अलर्करोग (rabies) इत्यादि के रोकने में सहायता मिली है। परजीवीजन्य रोगों से बचने के लिये आज रसायन चिकित्सा का व्यवहार दिन ब दिन बढ़ रहा है।

परजीवीविज्ञान अन्य विषयों के संयोजन से बना है व कई उप-विषयों की तकनीकों पर आधारित है, जैसे कोशिका जैविकी, सूचना-जैविकी, जैवरासायनिकी आण्विक जैविकी, इम्युनोलॉजी, अनुवांशिकी, विकासवाद एवं पारिस्थितिकी

पारजैविकी के प्रकार

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इन विभिन्न प्रकार के जीवों के अध्ययन में; विषय, छोटी व साधारणत: इकाईयों में बँट जाता है, जिन पर अधिक ध्यानाकर्षण होता है, व जो समान तकनीकें प्रयोग करते हैं, भले ही अध्ययनकर्ता समान रोग या जीवों का अध्ययन ना कर रहें हों। इस विज्ञान में अत्यधिक शोध के परिणामस्वरूप यह इन दो या अधिक परिभाषाओं से वर्णित हो पाता है। सामान्यतः प्रोकैर्योट्स का अध्ययन जीवाणु विज्ञान के अन्तर्गत आता है, ना कि परजीवी विज्ञान के।


आयुर्विज्ञान पारजैविकी

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परजीवी विज्ञान की प्राचीनतम श्रेणी, आयुर्विज्ञान या चिकित्सा क्षेत्र से संबंधित है। यह मानव को प्रभावित/संक्रमित करने वाले परजीवियों का अध्ययन होता है। इसमें निम्न क्षेत्र आते हैं:-

  • एककोशिकीय जीवों का अध्ययन (प्रोटोज़ोऑलोजी), जैसे प्लाज़मोडियम स्पीशीज, जिससे मलेरिया होता है। चार भिन्न प्रकार के मलेरिया परजीवी हैं, प्लाज़मोडियम फैल्सिपैरम (Pl.falciparum), प्लाज़मोडियम मैलेराय (Pl.malariae), प्लाज़मोडियम वाइवैक्स (Pl.vivax) & प्लाज़मोडियम ओवेल (Pl.ovale)।
  • लिश्मेनिया डोनोवानी (Leishmania donovani), एककोशीकीय जीव, जिससे लेइश्मेनियैसिस होता है।
  • बहुकोशिकीय जीवों का अध्ययन (हैल्मिंथोलॉजी), जैसे स्किस्टोसोमा स्पीशिज़, व्यूचेरेरिया बैन्क्रॉफ्टी एवं हुकवर्म।

चिकित्सा परजैविकी से औषधि विकास, महामारी विज्ञान व ज़ूनोसिस (पशुजनित रोगों) के अध्ययन संबंधित हैं।

पशु परजैविकी

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जो परजीवी कृषि आदि को आर्थिक हानि पहुँचाते हैं, या पशुओं में संक्रमण करते हैं; उनका अध्ययन पशु परजैविकी कहलाता है। इसमें अधय्यन की जाने वाली प्रजातियों में से कुछ हैं:

  • ल्यूसीलिया सेरिकैटा, एक मक्षिका, जो फार्म के पशुओं की खाल पर अण्डे देती है। इनमें से कीड़े निकल कर, खाल में छेद करके अंदर मांसपेशियों तक घुस जाते हैं, व पशु को परेशान करते हैं।
  • ओटोडैक्टेस साइनोटिस, एक बिल्ली, जो सैंकर के लिये उत्तरदायी है।
  • जायरोडैक्टाइलस सैलेरिस , साल्मन का एक मोनोजीनियन परजीवी, जो कि अप्रतिरोधी होने पर एक पूरे के पूरे साल्मन समाज को ही नष्ट कर देता है।

ऐम्फीस्टोम्स

परिमाणात्मक पारजैविकी

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होस्ट (आतिथेय) विशिष्टों के बीच, परजीवी एक संग्रहीत वितरण दर्शाते हैं, इस प्रकार परजीवियों का बाहुल्य, अल्पसंख्यक होस्ट में रहते हैं। इस गुण के कारण, पारजीविज्ञ उन्नत जैवसंख्यिकी प्रणालियां प्रयोग कर सकते/पाते हैं।

संरचनाकृत पारजैविकी

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यह परजीवियों के प्रोटीनों की संरचना का अध्ययन होता है। पारजैविक प्रोटीन संरचना का निर्धारण यह जानने में मदद करता है, कि ये प्रोटीन किस प्रकार मानवों में उपस्थित होमोलॉगस प्रोटीनों से भिन्न कार्यरत है। साथ ही प्रोटीन संरचना औषधि खोज की प्रक्रिया में सहायक होतीं हैं।

परजीवी पारिस्थितिकी

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परजीवी होस्ट जनसंख्या पारिस्थितिकी के बारे में सूचना भी उपलब्ध कराते हैं। मत्स्य उद्योग जैविकी में, उदा० परजीवी समुदाय को समान मत्स्य उपजाति की विशिष्ट जनसंख्या को पहचानने के लिये प्रयोग किया जाता है। इसके साथ ही परजीवियों में विशेष गुणों की संगति तथा जीवन शैली होती है, जो उन्हें होस्ट में स्थान बनाने को अग्रसर करती व सहायक होतीं हैं। पारजैविक पारिस्थितिकी के पहलुओं को समझना होस्ट द्वारा परजीवी से बचने की रणनीति पर प्रकाश डाल सकता है।

टैक्सोनोमी एवं फायलोजैनेटिक्स

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परजीवियों में वृहत भिन्नता, जीव वैज्ञानिकों के लिये उनका वर्णन करना तथा उन्हें नामावली बद्ध करना एक बड़ी चुनौती उपस्थित करती है। हाल ही में हुए विभिन्न जातियों को पृथक करने, पहचानने व विभिन्न टैक्सोनॉमी पैमानों पर उनके विभिन्न समूहों के बीच संबंध ढ़ूढने हेतु डी॰एन॰ए॰ प्रयोग पारजैवज्ञों के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण व सहायक रहे हैं।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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साँचा:जीव विज्ञान- फुटर