न्याय (जैन)

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भारतीय न्यायशास्त्र में जैन न्याय अवैदिक न्याय की श्रेणी में आता है।

जैन न्याय की दो धाराएँ प्रसिद्ध हैं - श्वेताम्बर और दिगंबर। दोनों का प्रमुख सिद्धांत है "अनेकान्तवाद"।

अनेकांतवाद[संपादित करें]

"अनेकांतवाद" का आशय यह है कि संसार की प्रत्येक वस्तु विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनंत कर्मों के भिन्न भिन्न आशय हैं। वस्तु के संबंध में विभिन्न दर्शनों की जो विभिन्न मान्यताएँ हैं, अपेक्षाभेद एवं दृष्टिभेद से वे सब सत्य हैं। उनमें से किसी एक को यथार्थ मानना और अन्यों को अयथार्थ मानना उचित नहीं है। वस्तु को कुछ परिमित रूपों में ही देखना नयदृष्टि है, प्रमाणदृष्टि नहीं। नयदृष्टि का अर्थ है एकांकी दृष्टि और प्रमाणदृष्टि का सर्वांगीण दृष्टि।

नय[संपादित करें]

वस्तु को एकांत भाव से किसी एक ही रूप में या कुछ ही रूपों में ग्रहण करनेवाले ज्ञान का नाम है "नय"। नय के मुख्य दो भेद हैं- द्रव्यार्थिंक और पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक नय तीन प्रकार का है- नैगम, संग्रह और व्यवहार। पर्यायार्थिक नय चार प्रकार का है- ऋजुसूत्र, शब्द, समनिरूढ़ और एवंभूत। सभी द्रव्यार्थिक नय वस्तु के केवल सामान्य अंश को ही ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार सभी पर्यायार्थिक नय वस्तु के केवल विशेष अंश को ही ग्रहण करते हैं। फलत: किसी भी नय से सामान्य, विशेष एवं उभयात्मक वस्तु का साकल्येन ग्रहण नहीं होता।

प्रमाण[संपादित करें]

वस्तु को विविध रूपों में ग्रहण करनेवाले ज्ञान को "प्रमा" के अर्थ में तथा उस ज्ञान के साधन को "प्रमाकरण" के अर्थ में प्रमाण कहा जाता है। प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष। वस्तु को विशद रूप में ग्रहण करने वाले प्रमाण का नाम है- "प्रत्यक्ष" और अस्पष्ट रूप में ग्रहण करनेवाले प्रमाण का नाम है "परोक्ष"। प्रत्यक्ष के दो भेद हैं- सांव्यावहारिक और पारमार्थिक। "पारमार्थिक" प्रत्यक्ष का प्रादुर्भाव मन और इंद्रिय की सहायता के बिना केवल आत्मशक्ति से ही संपन्न होता है जब कि सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के प्रादुर्भाव में मन, इंद्रिय आदि बाह्य उपकरणों की भी अपेक्षा होती है। परोक्ष के दो भेद हैं- अनुमान और शब्द। अनुमान से होनेवाले बोध को "अनुमिति" तथा शब्द से होनेवाले बोध को शब्दबोध कहा जाता है।

सप्तभंगीनय[संपादित करें]

किसी वस्तु के परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले दो भावात्मक अंशों का समन्वय बताने के लिए जिन वाक्यों का प्रयोग होता है, उनकी संख्या सात है। उन सातो वाक्यों के समूह का ही नाम "सप्तभंगीनय" है। उसी का दूसरा नाम "स्याद्वाद" है। इस प्रकार "स्याद्वाद" जैनदर्शन महासागर का एक उत्तुंग तंरग मात्र है, किंतु वह इतना महत्वपूर्ण है कि उसी के नाम से आजकल जैनदर्शन का व्यपदेश होने लगा है।

सप्तभंगीनय (स्याद्वाद्) को समझने के लिए उदाहरण के रूप में नीचे के वाक्यों को लिया जा सकता है।

वाक्य -- अर्थ

1. आत्मा स्याद् अस्ति -- आत्मा का अस्तित्व है।

2. स्यान्नास्ति -- नास्तित्व भी है

3. स्याद् अस्ति न नास्ति च अस्ति -- नास्ति उभयात्मक भी है।

4. स्याद् अवक्तव्यः -- उसकी समग्र वास्तविकता को व्यक्त करनेवाले शब्द के न होने से वह अवक्तव्य भी है।

5. स्याद् अस्ति च अवक्तव्यश्च -- वह "अस्ति" होकर भी अवक्तव्य है।

6. स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्च -- "नास्ति" होकर भी अवक्तव्य है।

7. स्याद् अस्ति च नास्ति च अस्ति -- नास्ति उभयात्मक होकर अवक्तव्यश्च भी अवक्तव्य है।

इस सप्तभंगीनय से यह निष्कर्ष निष्पन्न होता है कि आत्मा के संबंध में उक्त सभी मान्यताएँ दृष्टिभेद से संभव और सुसंगत हैं।

कथा[संपादित करें]

जैनन्याय में भी कथा के तीन भेद बताए गए हैं- वाद, जल्प और वितंडा; पर इनमें केवल "वाद" को ही उपादेय माना गया है। शेष दो को केवल हेय ही नहीं कहा गया है, अपितु उनका साभिनिवेश खंडन भी किया गया है।

छल और जाति[संपादित करें]

इस न्याय में भी छल और जाति का परिचय दिया गया है; किंतु वादात्मक कथा के ही उपादेय होने के कारण उनके प्रयोग का साग्रह निषेध किया गया है।

निग्रहस्थान[संपादित करें]

जैन न्याय में वैदिक न्याय और बौद्ध न्याय के निग्रहस्थान-निरूपण को सदोष बताकर अपने ढंग से उसका विवेचन किया गया है और उसके संदर्भ में जय पराजय के निर्णायक तत्व का भी प्रतिपादन किया गया है। जैन न्याय में प्रतिवादी को किसी प्रकार मूक कर देने मात्र से ही वादी को विजयी नही माना जाता, किंतु जब वह प्रतिवादी के विरोधी तर्कों को निरस्त कर अपने पक्ष को सप्रमाण प्रतिष्ठित कर देता है उसे विजयी समझा जाता है।

न्यायवाक्य[संपादित करें]

जैन न्याय में वैदिक न्याय या बौद्ध न्याय के समान न्यायवाक्यों की कोई नियत संख्या नहीं मानी गई है, किंतु उसे प्रतिपाद्य पुरुष की योग्यता पर निर्भर किया गया है। अत: इस मत में स्थिति के अनुसार एक से पाँच तक न्यायवाक्यों के प्रयोग का औचित्य मान्य है।

सद्धेतु[संपादित करें]

जैन न्याय में किसी हेतु की सद्धेतुता के लिए उसे पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व, असत्प्रतिपक्षत्व और अबाधितत्व-इन पाँच रूपों से अथवा आदि के तीन रूपों से संपन्न होना आवश्यक नहीं; बल्कि सांध्य का अविनाभावी मात्र होना आवश्यक है।

हेत्वाभास[संपादित करें]

जैन न्याय की श्वेतांबर परंपरा में हेत्वाभास के तीन ही भेद माने गए हैं- विरुद्ध असिद्ध तथा व्यभिचारी; किंतु दिगंबर परंपरा में "अकिचिंत्कर" को जोड़कर उनकी संख्या चार कर दी गई है।

जैन न्याय का तत्त्वज्ञान[संपादित करें]

जैन न्याय में कुल सात तत्त्व माने गए हैं- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।

जीव[संपादित करें]

जीव यह है, जिसमें उपयोग (बोधव्यापार) का उदय हो। बोधव्यापार चैतन्य शक्ति का कार्य है और वह जीव में स्वाभाविक है। जीव की संख्या अनंत है और उसका परिमाण देहव्यापी है।

अजीव[संपादित करें]

जिसमें बोधव्यापार की उत्पादिका चैतन्यशक्ति नहीं होती वह "अजीव" कहा जाता है। उसके दो भेद हैं - अस्तिकाय एवं अनस्तिकाय। "अस्तिकाय" रूप अजीव के चार भेद हैं - धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, अकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। अस्तिकाय का अर्थ है - प्रदेशसमूह तथा अवयवसमूह। प्रथम (प्रदेशसमूह) में धर्म, अधर्म और आकाश का तथा दूसरे (अवयवसमूह) में पुद्गलों समावेश है। पदार्थों की गति के निमित्तभूत द्रव्य को "धर्म", उनकी स्थिति के निमित्तभूत द्रव्य को "अधर्म", उन्हें स्थान देने के निमित्तभूत द्रव्य को "आकाश" तथा जीव के जीवन मरण के निमित्तभूत द्रव्य को "पुद्गल" कहा जाता है। "अनस्तिकाय" का एक ही भेद है और वह है काल।

आस्रव[संपादित करें]

जीव को कर्मबंधन में डालनेवाले जीवव्यापार को "आस्रव" कहा जाता है। वह मन, वाक और काय से जनित होने के कारण त्रिविध होता है।

बंध[संपादित करें]

आत्मप्रदेशों के साथ कर्मपुद्गलों के संबंध का नाम है - "बंध"। वह मिथादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच हेतुओं से उत्पन्न होता है।

संवर[संपादित करें]

मन, वचन और शरीर की कुत्सित प्रवृत्तियों के निरोध का नाम है।

निर्जरा[संपादित करें]

तप, संयम आदि के सेवन से चिरसंचित शुभ, अशुभ कर्मों के आंशिक विनाश को "निर्जरा" कहा जाता है।

मोक्ष[संपादित करें]

कर्मबंधनों के आत्यंतिक विनाश का नाम है - मोक्ष। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्रय के सेवन से उसकी प्राप्ति होती है।

जैन न्याय की विस्तृत जानकारी के लिए उमास्वास्ति, समंतभद्र, सिद्धदर्शन, अकलंक, वादिराजसूरि, देवसूर, हेमचंद्र मल्लिषेणसूरि और यशोविजय आदि जैन विद्वानों की रचनाओं का अध्ययन आवश्यक है।

जैन न्याय का साहित्य अर्धमागधी, प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में प्राप्त होता है, अत: उसके विकासक्रम के परिज्ञानार्थ तथा उसके तत्त्वों के सम्यक् आकलनार्थ उक्त तीन भाषाओं का ज्ञान अपेक्षित है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]