द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति

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द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति या द्वंद्वन्याय, (Dialectic या dialectics या dialectical method) जिसे द्वंद्वसमीक्षा भी कहते हैं, असहमति को दूर करने के लिए प्रयुक्त तर्क करने की एक विधि है जो प्राचीनकाल से ही भारतीय और यूरोपीय दर्शन के केन्द्र में रही है। इसका विकास यूनान में हुआ तथा प्लेटो ने इसे प्रसिद्धि दिलायी।

द्वन्दात्मक तर्कपद्धति दो या दो से अधिक लोगों के बीच चर्चा करने की विधि है जो किसी विषय पर अलग-अलग राय रखते हैं किन्तु तर्कपूर्ण चर्चा की सहायता से सत्य तक पहुँचने के इच्छुक हैं।

परिचय[संपादित करें]

द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति का प्रारंभिक रूप ग्रीस में विकसित हुआ। अरस्तू के अनुसार इलिया के जेनों (Zeno of Elia) इस पद्धति के आविष्कर्ता थे। सामान्य अर्थों में वादविवाद की कला को द्वंद्वात्मक पद्धति कहा गया है।

इसको अत्यंत सुलझा हुआ एवं स्पष्ट रूप सुकरात (साक्रेटीज) ने दिया। प्रश्न और उत्तर के माध्यम से समस्या पर विचार करते हुए समन्वय की ओर उत्तरोत्तर बढ़ते जाना इस पद्धति की मूल विशेषता है। अफलातून (प्लेटो) ने अपने संवादों में सुकरात को महत्वपूर्ण स्थान दिया है, जिससे पता चलता है कि वे इस पद्धति के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि थे। अफलातून ने द्वंद्वात्मक तर्क को परमज्ञान का सिद्धांत माना है। उनका प्रत्ययों का सिद्धांत इसी पद्धति पर आधारित है। द्वंद्वात्मक तर्क की विषयवस्तु ज्ञान मीमांसा एवं वास्तविकता का स्वभाव है। अफलातून के अनुसार यह वैज्ञानिक विधि अन्य सभी विधियों से श्रेष्ठ है, क्योंकि इसके माध्यम से स्पष्टतम ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए द्वंद्वात्मक तर्कज्ञान परमज्ञान है।

अरस्तू ने इसे अधिक तार्किक रूप देने का प्रयास किया। उनके अनुसार इस तर्क की पद्धति साधारण लोकमतसम्मत मान्यताओं से प्रारंभ होती है। फिर आलोचना प्रत्यालोचना की प्रक्रिया में उसका सर्वेक्षण परीक्षण इत्यादि होता है। इसी प्रक्रिया में निरीक्षण के सिद्धांत अन्वेषित कर लिए जाते हैं। इस प्रकार द्वंद्वात्मक तर्क आरंभ से ही समस्याओं को सुलझाने के लिए उपयोग में लाया जाता रहा है। किंतु धीरे-धीरे इसकी प्रकृति जटिलतर एवं अधिक वैज्ञानिक होती गई। आधुनिक दार्शनिक प्रणालियों में द्वंद्वात्मक तर्क का विशिष्ट महत्व है। क्योंकि पहले इसका उपयोग आध्यात्मिक जगत् का उद्घाटन करने के लिए किया गया, तत्पश्चात् इसका उपयोग भौतिक जगत् का उद्घाटन करन के लिए किया गया, तत्पश्चात् इसे भौतिक जगत् पर लागू किया गया। कांट इस पद्धति को सृष्टिशास्त्र, ईश्वर एवं अमरता के संदर्भ में नया अर्थ देते हैं। कांट ने सप्रतिपक्षी तर्क, तर्काभास एवं प्रत्ययों की व्याख्या करते समय इस पद्धति का उपयोग किया है। बुद्धि के नियम देश-काल-गत स्थित जगत् पर ही लागू किए जा सकते हैं, लेकिन जब इसे पारमार्थिक सत्यों पर लागू करते हैं तो हमारे सामने सप्रतिपक्षी तर्क, तर्काभास एवं अनुभवातीत भ्रम की समस्या आ खड़ी होती है।

कांट की इस अंतर्दृष्टि का लाभ हेगेल ने उठाया। वास्तव में हेगेल ही द्वंद्वात्मक तर्क के आधुनिक व्याख्याता हैं। उनके अनुसार द्वंद्वात्मक तर्क मूलत: मननात्मक विचारों की विशिष्ट प्रकृति है। ये विचार प्रणाली या सामान्य के स्वभाव को व्यक्त करते हैं। इसकी गति में तीन क्षण आते हैं, क्रम से जिन्हें वाद, प्रतिवाद और संवाद कहा गया है। इस प्रकार द्वंद्वात्मक तर्क की प्रवृत्ति समन्वय की ओर उन्मुख होती है। समन्वय या संवाद, वाद एवं प्रतिवाद की उच्चतर एकता है, यद्यपि यह दोनों से भिन्न होता है, फिर भी दोनों उसमें उन्नत रूप में प्रस्तुत रहते हैं। इस प्रकार यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि द्वंद्वात्मक तर्क विचारों की गति से संबंधित है। हेगेल के अनुसार परम सत्य या निरपेक्ष सत्य स्वयं को इसी रूप में व्यक्त करता है। हेगेल के तर्कशास्त्र में सर्वाधिक महत्व इसी पद्धति का है। वे किसी भी तरह की समस्या को पहचानने के लिए द्वंद्वात्मक तर्क का उपयोग करते हैं। उनके अनुसार द्वंद्वात्मक तर्क ही उनकी पद्धति का मूल तत्व है। उनकी प्रणाली में यह पद्धति प्रत्येक स्थान पर मौजूद है। मूलत: यह निषेध के नियम से गतिशील होती है। किंतु इस निषेधात्मकता के माध्यम से वह समन्यव की ओर ही प्रगति करती है। हेगेल ने परम प्रत्यय की व्याख्या द्वंद्वात्मक तर्क से प्रस्तुत की है। परम प्रत्यय वस्तुसत्य के रूप में कल्पित किया गया है, किंतु अपने मूल रूप में वह अमूर्त, देशकाल से परे एवं सर्वभक्षी है। इसलिए हेगेल का प्रत्ययवाद तर्क है। इसे आत्मा, चेतना या निर्गुण सत्ता पर लागू करने के बजाए, यदि उसे प्रकृति एवं इतिहास पर लागू किया जाए तो उसे अधिक अर्थवान् रूप दिया जा सकता है।

कार्ल मार्क्स ने इसलिए कहा था कि हेगेल ने द्वंद्वात्मक तर्क को सिर के बल खड़ा किया है। उसे पैर के बल खड़ा करने का श्रेय मार्क्स एवं एंगेल्स को है। यहाँ द्वंद्वात्मक तर्क का बिलकुल नया अर्थ प्रदान किया गया है। इस स्थल पर इसे भौतिकवादी द्वंद्वात्मक तर्क कहना अधिक उपयुक्त होगा। यह माना गया कि प्रकृति, भौतिक जगत् और इतिहास ही द्वंद्वात्मक तर्क के वास्तविक निकष हैं। प्रकृति की गति स्वयं द्वंद्वात्मक मानी गई है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार परिवर्तन ही परम सत्य है। उसके लिए देश काल से पर किसी भी अमर सत्ता का महत्व नहीं है। उत्पत्ति, विकास और विनाश, ये ही विश्व की विशेषताएँ हैं। द्वंद्वात्मक दर्शन स्वयं मन की चिंतन प्रक्रिया का प्रतिफलन है। मार्क्स के अनुसार द्वंद्वात्मक तर्क गति के समान्य नियमों का विज्ञान है। चाहे यह गति बाह्य जगत् की हो, चाहे आंतरिक मन की गति हो, इन दोनों गतियों का उसमें अध्ययन होता है। मार्क्स के अनुसार द्वंद्वात्मक तर्क की विषयवस्तु ज्ञानमीमांसा अध्ययन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। इतिहास का विकास वर्गसंघर्ष के माध्यम से हुआ है। जिसके प्रतिफलन स्वरूप दुर्घटनाएँ एवं विद्रोह हुए हैं। निरंतरता में इस प्रकार अवरोध उत्पन्न होता है। विकास में अतीत अवस्थाओं की पुनरावृत्ति भिन्न प्रकार की होती है, जिसे "निषेध का निषेध" कहा गया है। इसी पृष्ठभूमि में मार्क्स, एंगेल्स एवं लेनिन ने प्रकृति, इतिहास, वर्गसंघर्ष, ज्ञानमीमांसा इत्यादि की व्याख्या की है जिसे व्यापक अर्थों में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद या ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा गया है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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