दीदारगंज यक्षी

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दीदारगंज यक्षी
चामर-ग्राहिणी (चँवर डुलाने वाली राजा की सेविका) दीदारगंज यक्षी.
सामग्रीPolished sandstone
आकारHeight: Width:
कालतीसरी शताब्दी ईसापूर्व- दूसरी शताब्दी ई
खोज25°34'18"N 85°15'45"E
स्थानदीदारगंज, पटना, बिहार, भारत.
अवस्थितिबिहार संग्रहालय, भारत
Discovery is located in भारत
Discovery
Discovery

दीदारगंज यक्षी (या चामरग्राहिणी दीदारगंज यक्षी) बहुत प्रारंभिक भारतीय पत्थर की मूर्तियों के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है। यह तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व का हुआ करता था, क्योंकि इसमें मौर्य कला से जुड़ी मौर्यकालीन पॉलिश है। लेकिन यह बाद की मूर्तियों पर भी पाया जाता है और अब यह आमतौर पर आकार और अलंकरण के विश्लेषण के आधार पर लगभग दूसरी शताब्दी ईस्वी सन् का है,[1][2] या पहली शताब्दी सीई।[3] विशेष रूप से फोरलॉक के उपचार को चारित्रिक रूप से कुषाण कहा जाता है।[4][5]

मूर्तिकला अब पटना, बिहार, भारत में बिहार संग्रहालय में है, जहां यह 1917 में पाया गया था।[6][7] पटना, पाटलिपुत्र के रूप में, मौर्य राजधानी भी थी।

आधुनिक इतिहास[संपादित करें]

यह मूर्ति कैसे मिली, इस पर अलग अलग मत है। पटना संग्रहालय प्रकाशन इस बात पर प्रकाश डालता है कि पटना के तत्कालीन कमिश्नर माननीय ई.एच.एस. वाल्स के पत्र में ग़ुलाम रसूल नाम के एक व्यक्ति को इसकी खोज का श्रेय दिया गया है, जिसने दीदारगंज के नज़दीक नदी तट पर फ़ैले कीचड़ में चिपके हुए इस मूर्ति को देखा। रसूल ने तब उस मूर्ति को निकालने के लिए उस स्थान को खोदना शुरू किया।

मगर, हममें से ज़्यादातर लोग अलग तरह से ज़्यादा रोमांचित करने वाली कहानी में विश्वास करना चाहेंगे, जिस कहानी के बारे में आम तौर पर अधिकतर बातें की जाती है तथा इसका संबंध पुलिस निरीक्षक द्वारा 20 अक्टूबर 1917 को दर्ज की गई गुप्त रिपोर्ट से जोड़ा जाता है। यह कहानी कुछ इस तरह है कि पुराने पटना शहर के दीदारगंज में गंगा के किनारे, एक धोबी धरती से चिपके हुए एक पत्थर के टुकड़े पर कपड़े धो रहा था। एक दिन, उसके नजदीक ही एक सांप घूम रहा था, ग्रामीणों ने उसका पीछा किया, वह सांप धोबी के पत्थर के स्लैब के नीचे की छेद में छुप गया। जब ग्रामीणों ने उसे निकालने के लिए मिट्टी को खोदना शुरू किया, तो उन्होंने पाया कि जिस स्लैब के नीचे वो खुदाई कर रहे थे, वह असल में किसी शानदार मूर्ति का भाग था, और इसी मूर्ति को हम आज दीदारगंज यक्षी कहते हैं। यह कहानी व्यंजनापूर्ण है, जो हमें इतिहास की प्रकृति की ही याद दिलाती है कि किस तरह हम लापरवाही से इसके कुछ भाग, जो दृश्य है, का इस्तेमाल करते हैं, सही मायने में ऐसा बाक़ी बातों को जाने बिना ही किया जाता है, जो छुपी हुई है। यह पूरी तरह संयोग ही है कि यक्षी की मूर्ति उसी साल अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है, जिस वर्ष पटना संग्रहालय अस्तित्व में आता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "A History of Ancient and Early Medieval India: From the Stone Age to the 12th Century" by Upinder Singh, Pearson Education India, 2008 [1]
  2. ""Ayodhya, Archaeology After Demolition: A Critique of the "new" and "fresh" Discoveries", by Dhaneshwar Mandal, Orient Blackswan, 2003, p.46 [2]
  3. Harle, 31, "almost certainly a work of the first century AD"; Rowland, 100.
  4. Harle, 31, "almost certainly a work of the first century AD"; Rowland, 100.
  5. Pereira, Jose (2001). Monolithic Jinas (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass. पृ॰ 11. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120823976.
  6. "Didarganj to Kalliyankadu, the Yakshi story".
  7. "Didarganj Yakshi: Conflict between myth and history".

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]