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दार्शनिक यथार्थवाद

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यथार्थवाद (realism) से तात्पर्य उस विचारधारा से है जो कि उस वस्तु एवं भौतिक जगत को सत्य मानती है, जिसका हम ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। पशु, पक्षी, मानव, जल थल, आकाश इत्यादि सभी वस्तुओं का हम प्रत्यक्षीकरण कर सकते हैं, इसलिए ये सभी सत्य हैं, वास्तविक हैं। यथार्थवाद, जैसा यह संसार है वैसा ही सामान्यतः उसे स्वीकार करता है। यथार्थवाद यद्यपि आदर्शवाद के विपरीत विचारधारा है किन्तु यह बहुत कुछ प्रकृतिवाद एवं प्रयोजनवाद से साम्य रखती है।

यथार्थवाद किसी एक सुगठित दार्शनिक विचारधारा का नाम न होकर उन सभी विचारों का प्रतिनिधित्व करता है जो यह मानते हैं कि वस्तु का अस्तित्व हमारे ज्ञान पर निर्भर करता है किन्तु यथार्थवाद विचारक मानते हैं कि वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व है, चाहे वह हमारे अनुभव में हो अथवा नहीं। वस्तु तथा उससे संबंधित ज्ञान दोनों अलग-अलग सत्तायें हैं। विश्व में अनेक ऐसी वस्तुएं हैं जिनके विषय में हमें कोई ज्ञान नहीं होता परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे वस्तुएं अस्तित्व में नहीं हैं। ज्ञान तो हमेशा बढ़ता जाता है। जगत का सम्पूर्ण रहस्य मानव ज्ञान की सीमा में कभी नहीं आ सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तु की स्वतंत्र स्थिति है चाहे मनुष्य को उसका ज्ञान हो अथवा नहीं। व्यक्ति का ज्ञान उसे वस्तु की स्थिति से अवगत कराता है, परन्तु वस्तु की स्थिति का ज्ञान मनुष्य को न हो तो वस्तु का अस्तित्व नष्ट नहीं होता। यथार्थवाद के अनुसार हमारा अनुभव स्वतंत्र न होकर वाह्य पदार्थों के प्रति प्रतिक्रिया का निर्धारण करता है। अनुभव वाह्य जगत से प्रभावित है और वाह्य जगत का वास्तविक सत्ता है। यथार्थवाद के अनुसार मनुष्य को वातावरण का ज्ञान होना चाहिये। उसे यह पता होना चाहिए कि वह वातावरण को परिवर्तित कर सकता है अथवा नहीं और इसी ज्ञान के अनुसार उसे कार्य करना चाहिये।

यथार्थवाद का नवीन रूप वैज्ञानिक यथार्थवाद है जिसे आज 'यथार्थवाद' के नाम से ही जान जाता है। वैज्ञानिक यथार्थवादियों ने दर्शन की समस्याओं को सुलझाने में विशेष रूचि प्रदर्शित नहीं की। उनके अनुसार यथार्थ प्रवाहमय है। यह परिवर्तनशील है और इसके किसी निश्चित रूप को जानना असंभव है। अतः वह यह परिकल्पित करता है कि यथार्थ मानव मन की उपज नहीं है। सत्य मानव मस्तिष्क की देन है। यथार्थ मानव-मस्तिष्क से परे की वस्तु है। उस यथार्थ के प्रति दृष्टिकोण विकसित करना सत्य कहा जायेगा। जो सत्य यथार्थ के जितना निकट होगा वह उतना ही यथार्थ सत्य होगा।

यथार्थवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसका बीजारोपण मानव मस्तिष्क में अति प्राचीन काल में ही हो गया था, जबकि वह अपने चारों ओर के वातावरण की वस्तुओं से प्रभावित होकर उन्हीं को यथार्थ मान लेता है। बटलर के अनुसार –‘बहुत बड़ी संख्या में व्यक्तियों के लिए संसार निर्विवाद यथार्थ है। यदि उसकी यथार्थता के सम्बन्ध में पूछा जाय तो शीघ्र ही उत्तर प्राप्त होगा कि वास्तव में यह जगत यथार्थ है। अज्ञात क्रिया एवं उपयुक्ति के अकृत्रिम क्षणों में हम सभी जगत के वाह्य रूप को स्वीकार करते हुए यही मनोवृत्ति धारण करेंगे। यहाँ तक कि आदर्शवादी विचारक अपने अनधिकृत क्षणों में इस प्रकार की अकृत्रिमता के दोषी हैं, ऐसा यथार्थवादियों का कथन है।

किन्तु जहाँ तक यथार्थवाद के वैज्ञानिक स्वरूप का प्रश्न है हम यह कह सकते हैं कि जिस यथार्थवादी विचारधारा का बहुत पहले मानव मस्तिष्क में अचेतन रूप से बीजारोपण हो गया था, उसका सूत्रपात १६वीं शताब्दी के अन्त में हुआ जो १७वीं शताब्दी तक पहुँचते पहुँचते एकदम स्पष्ट हो गया।

अपने विकास क्रम में यथार्थवाद प्राचीन काल से आधुनिक काल तक अनेक रूपों में उपस्थित हुआ। प्राचीन यथार्थवाद के अनुसार सृष्टि के दो रूप थे –

  • (१) प्राकृतिक व्यवस्था की सृष्टि, जिसमें परिवर्तन संभव है।
  • (२) दैवीय व्यवस्था की सृष्टि जिसमें परिवर्तन की कोई सम्भावना नहीं है।

इस प्रकार बौद्धिकतावादी यथार्थवाद ने द्वैतवाद का समर्थन किया है। बौद्धिकतावादी यथार्थवाद के अनुसार दैवी जगत में कोई परिवर्तन नहीं होता इसलिए वहाँ पर शिक्षा का कोई प्रश्न नहीं। सीखना केवल प्राकृतिक जगत में ही संभव है, दैवीय जगत में नहीं।

यथार्थवाद के प्रादुर्भाव के दो प्रमुख कारण थे- प्रथम, प्राचीनकाल से चली आने वाली आदर्शवादी विचारधारा का १६वीं शताब्दी तक आडम्बरपूर्ण एवं खोखला हो जाना तथा द्वितीय, विज्ञान का विकास। सोलहवीं शताब्दी तक लगभग सभी प्राचीन तथा मध्यकालीन आदर्श महत्वहीन हो चुके थे। उनमें किसी का विश्वास न था क्योंकि वे वर्तमान मानव जीवन के लिए उपयोगी नहीं थे। वे मनुष्य की सामान्य आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ थे। वे मानसिक विकास तो कर सकते थे किन्तु मनुष्यों में क्रियाशीलता एवं व्यावहारिकता उत्पन्न नहीं कर सकते थे। प्राचीन आदर्श समय की माँग को पूरा करने में असमर्थ थे, इसलिए मनुष्य ऐसे आदर्श की माँग करने लगा जो वास्तविक जीवन व्यतीत करने में सहायक हो। परिणाम स्वरूप मध्यकाल में मठवाद एवं विद्वद्वाद के बाद पुनरूत्थान काल का जन्म हुआ।

पुनरूत्थान काल के इस युग में मनुष्य में एक ऐसी लहर उत्पन्न हो गयी कि परलोक के बजाय मानवीय गुणों का विकास करना मानव जाति का प्रधान लक्ष्य हो गया। इसके परिणामस्वरूप 'मानवतावाद' का प्रादुर्भाव हुआ और धीरे धीरे मानवतावाद सिसरोवाद में परिवर्तित हो गया क्योंकि सिसरों की लेखन शैली अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बन गया। इसके उपरान्त –'सुधारकाल' का जन्म हुआ। मानवतावाद एवं सुधारवाद के परिणामस्वरूप मनुष्य ‘बुद्धि’ एवं ‘विवेक’ पर आस्था रखने लगा और इनके आधार पर सभी वस्तुओं को समझने का प्रयास करने लगा। उनके विश्वास को और अधिक दृढ़ विज्ञान के विकास ने किया जो यथार्थवाद के जन्म का दूसरा महत्वपूर्ण कारण है। कोपरनिकस, गैलीलियो, न्यूटन, जॉन केपलर, हारवीज, बेकन इत्यादि के शोधों के फलस्वरूप मानव दृष्टिकोण की संकीर्णता एवं अन्ध विश्वास नष्ट हो गये। वैज्ञानिक युग का आरम्भ हुआ और इस युग ने ‘बुद्धि’ एवं विवेक’ को अधिक प्रधानता दी तथा मनुष्य का ध्यान वास्तविकता की ओर आकृष्ट किया। इस प्रकार भौतिक दार्शनिकता एवं वैज्ञानिक प्रवृत्ति के समावेश से यथार्थवाद का जन्म हुआ जो परलोक की सत्ता को अस्वीकार करता है।

भारतीय यथार्थवाद

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भारतीय दर्शन में न्याय एवं वैशेषिक दर्शन यथार्थवाद के समकक्ष माने जाते हैं।

न्याय दर्शन के प्रवर्तक गौतम थे जो अक्षपाद के नाम से भी प्रसिद्ध थे। न्याय दर्शन में तार्किक आलोचना का आश्रय लिया गया है। अन्य सभी भारतीय दर्शन की भाँति न्याय दर्शन का उद्देश्य भी मोक्ष प्राप्ति है, किन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है। न्याय दर्शन में प्रमाण का विशेष महत्व है। यह दर्शन जीवन की समस्याओं का समाधान करने के लिए प्रमाणों द्वारा किसी विषय की परीक्षा करता है। जिसके द्वारा प्रभा की उत्पत्ति होती है, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रभा का अर्थ है – यथार्थ ज्ञान अथव यथार्थ अनुभव। न्याय दर्शन के अनुसार यथार्थ ज्ञान चार उपायों से प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए प्रमाण भी चार माने गये हैं। यथा प्रत्यक्ष, अनुमान उपमान एवं शब्द। जो अनुभव इन्द्रियों के संयोग से प्राप्त होता है और जिसके विषय में सन्देह का अभाव होता है तथा जो यथार्थ भी होता है उसे ‘प्रत्यक्ष’ कहते हैं। किसी हेतु अथवा लक्षण के ज्ञान से उस हेतु को धारण करने वाले पदार्थ का ज्ञान करना ‘अनुमान’ कहलाता है। ‘उपमान’ के द्वारा नाम एवं नामी का सम्बन्ध जान जाता है। ‘गवय’ अथवा नील गाय, सामान्य गाय के समान होती है। इसको सुनकर जब कोई व्यक्ति 'गो' अर्थात सामान्य गाय के समान पशु को नीलगाय समझने लगता है तब उसे ‘उपमान’ द्वारा प्राप्त ज्ञान कहा जाता है। चार्वाक दर्शन में उपमान को प्रमाण स्वीकार नहीं किया गया है। ‘शब्द’ न्याय दर्शन के अनुसार अन्तिम प्रमाण है। शब्दों एवं वाक्यों से हम पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह ज्ञान शब्द प्रमाण द्वारा होता है। इसलिए कहा गया है – आप्तोपदेशः शब्दः अर्थात यथार्थ का ज्ञान रखने वाले पुरूष का वचन ही शब्द प्रमाण है।

वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय एवं अभाव इन सात पदार्थों पर विचार किया है। न्याय एवं वैशेषिक को यहाँ यथार्थवादी कहा गया है किन्तु दोनों ही मुक्ति पर विश्वास करते हैं। अपने विवेचन में यह यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं, इसीलिए इन्हें यथार्थवाद कहा गया है।

जैन दर्शन का स्यादवाद भी यथार्थवादी माना गया है। स्यादवाद सहिष्णुता एवं विनीतता का मार्ग है जो हमें छात्रों में जनतंत्रात्मक मनोवृत्ति का विकास करने की प्रेरणा देता है, साथ ही दूसरों के विचारों को सुनना, दूसरे के रीति रिवाजों को समझना तथा लोकतंत्र के संचालन की भी शिक्षा देता है। भारतीय यथार्थवाद जीवन के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने का परामर्श देता है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ईश्वर, आत्मा इत्यादि को यह अनावश्यक बताता है।