उषवदात का नासिक शिलालेख

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निर्देशांक: 19°56′28″N 73°44′55″E / 19.941133°N 73.748669°E / 19.941133; 73.748669

उषवदात का नासिक शिलालेख नासिक की गुफाओं में पश्चिमी क्षत्रप शासक नहपान के दामाद उषवदात द्वारा लगभग 120 ईस्वी में बनाया गया एक शिलालेख है। पश्चिमी भारत में संस्कृत के उपयोग का यह सबसे पहला ज्ञात उदाहरण है, हालांकि इस शिलालेख की भाषा मिश्रित है। यह शिलालेख, दूसरी शताब्दी ईस्वी तक ब्राह्मणों, बौद्धों के लिए दान तथा तीर्थयात्रियों और आम जनता की सेवा के लिए बुनियादी ढांचे के निर्माण की भारतीय परम्परा का जीवन्त उदाहरण है।[1]

विशेषताएँ[संपादित करें]

इस शिलालेख को नासिक गुफाओं का "शिलालेख संख्या १०" के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह गुफा संख्या १० के सामने के बरामदे पर स्थित है, जिसे "नहपान विहार" भी कहा जाता है। इसकी लंबाई कई मीटर है।

मिश्रित संस्कृत का उपयोग[संपादित करें]

कुल मिलाकर, नासिक की गुफाओं में नहपान के परिवार के छह शिलालेख हैं, लेकिन उषवदात शिलालेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पश्चिमी भारत में संस्कृत के उपयोग का सबसे पहला ज्ञात उदाहरण है, हालांकि इसकी संस्कृत मिश्रित है।[1] ध्यातव्य है कि पश्चिमी क्षत्रपों द्वारा बनाए गए अधिकांश अन्य शिलालेख ब्राह्मी लिपि का उपयोग करते हुए प्राकृत में लिखे गये थे।[1]

इसे "भारत का महान भाषाई विरोधाभास" भी कहा गया है क्योंकि संस्कृत शिलालेख पहली बार प्राकृत शिलालेखों की तुलना में बहुत बाद में दिखाई दिए, जबकि प्राकृत को संस्कृत भाषा से व्युत्पन्न माना जाता है।[2] ऐसा इसलिए है क्योंकि प्राकृत, अपने कई रूपों में, अशोक के शिलालेखों (लगभग 250 ईसा पूर्व) के समय से ही शिलालेखन के लिये प्रचलित थी। पहली शताब्दी ईसा पूर्व के कुछ उदाहरणों के अलावा, अधिकांश प्रारंभिक संस्कृत शिलालेख इंडो-सिथियन शासकों के समय के हैं।[3][4] ऐसा माना जाता है कि ये इंडो-सिथियन शासक भारतीय संस्कृति के प्रति अपने लगाव को दिखाने के लिए संस्कृत के प्रवर्तक बन गए। सोलोमन का मत है कि "संस्कृत को बढ़ावा देने में उनकी प्रेरणा संभवतः खुद को वैध भारतीय या कम से कम भारतीकृत तइंडो-सिथियन रूप में स्थापित करने और शिक्षित ब्राह्मण अभिजात वर्ग को अपने पक्ष में करने की इच्छा थी।[4][4]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Salomon 1998, पृष्ठ 88–89
  2. Salomon 1998, पृ॰प॰ 86-87.
  3. Salomon 1998, पृ॰प॰ 87-88.
  4. Salomon 1998, पृ॰प॰ 93-94.