उपभाषा विज्ञान
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उपभाषा विज्ञान या बोली विज्ञान (Dialectology) भाषाविज्ञान की एक है शाखा जो बोलियों को भौगोलिक वितरण और व्याकरण की दृष्टि से अपने अध्ययन का लक्ष्य बनाती है। भौगोलिक वितरण पर विचार करते हुए सामाजिक वर्गों, जातीय स्तरों, व्यावसायिक वैविध्यों और धार्मिक, सांस्कृतिक विशेषताओं का भी ध्यान रखा जाता है।
इन सब के अतिरिक्त बोली विज्ञान का एक लक्ष्य और भी है जिसे कोशविज्ञान (lexicology) का अंग माना जाता है। इसमें विभिन्न बोलियों के शब्दों को ध्वन्यात्मक प्रतिलेखन (Phonetic Transcription) में संगृहीत कर उनकी संकेतसीमा (Referent Range) स्पष्ट की जाती है।
भाषा और बोली
[संपादित करें]भाषा और बोली के बीच की भेदकरेखा "परस्पर बोधगम्यता" के अनुसार निर्धारित की जाती है। इस बोधगम्यता के चार स्तर होते हैं -
(1) पूर्ण बोधगम्यता, (2) अपूर्ण बोधगम्यता, (3) आंशिक बोधगम्यता, (4) शून्य बोधगम्यता
बोधगम्यता के इन्हीं स्तरों के आधार पर व्यक्तिबोली, उपबोली, बोली तथा भाषा की पृथक् कोटियाँ वर्गीकृत होती हैं। पूर्ण बोधगम्यता एक बोली क्षेत्र के रहनेवाले व्यक्तियों की प्राय: समान वाक्प्रवृत्ति का संकेत देती है।
वर्णनात्मक भाषाविज्ञान की आधुनिकतम मान्यता यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की वाक्प्रवृत्ति पूर्णतया समान नहीं होती। किंतु यह असमानता इतनी स्थूल नहीं होती कि वे एक दूसरे की बात न समझ सकें। इस प्रकार व्यक्तिगत वाक्प्रवृत्तियों का समन्वित रूप व्यक्तिबोली है और व्यक्तिबोलियों का समन्वित रूप उपबोली तथा उपबोलियों का समन्वित रूप बोली है। इसी प्रकार बोलियों की समन्वित इकाई भाषा है। उपर्युक्त धारणा से यह स्पष्ट है कि व्यक्ति बोली और भाषा के बीच बोधगम्यता के ही विविध स्तर सक्रिय होते हैं। भाषा के अध्ययन में अधिकतर उपबोली के स्तर तक विचार किया जाता है किंतु बोली के सन्दर्भ में व्यक्तिबोलियों का भी महत्त्व होता है। भाषीय स्तर पर व्यक्तिबोली एवं उपबोली का एक युग्म होता है और बोली तथा भाषा का दूसरा। जिस प्रकार बोली और भाषा या भाषाओं के सीमावर्ती क्षेत्रों में रूपवैशिष्ट्य होते हुए भी एक दूसरे को समझना सरल होता है, उसी प्रकार या उससे भी अधिक बोधगम्यता बोली या उपबोली की सीमाओं पर होती है। सीमावर्ती क्षेत्रों में पाई जानेवाली ऐसी बोधगम्यता के कारण ही भाषा और बोली या बोली या उपबोली के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती।
एक भाषीय क्षेत्र में स्थानीय भेदों के अध्ययन को ब्लूमफील्ड ने बोली भूगोल का नाम देते हुए उसे तुलनात्मक विधा की उपलब्धियों का पूरक भी कहा है। बोलियों के अध्ययन को बोली एटलस के रूप में प्रस्तुत करना सर्वाधिक प्रचलित है। बोली क्षेत्र के ये एटलस मानचित्रों के ऐसे संकलन हैं जिनपर भाषीय रूपवैशिष्ट्यों को स्थानीय वितरण के आधार पर समरूप रेखाओं (Isoglosses) के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। विस्तृत रूपवैशिष्ट्यों को इन मानचित्रों पर प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। केवल भेदक रूप ही प्रदर्शित किए जाते हैं। इसीलिए कितने ही लोग बोली व्याकरण, बोलियों का सीमानिर्धारण, कोशसंकलन और तुलनात्मक, ऐतिहासिक निष्कर्षों को ही बोली विज्ञान का साध्य मानते हैं। एटलसों को भाषा भूगोल से संबद्ध मानकर उसे बोली विज्ञान से पृथक् कर देते हैं।
समरूप रेखाओं द्वारा विभक्त क्षेत्र तीन होते हैं :
(1) अवशेष क्षेत्र (Relic Area) ऐसे क्षेत्र जहाँ के रहनेवाले आर्थिक दृष्टि से अविकसित होते हैं और जहाँ की भौगोलिक स्थिति ऐसी हो कि आसानी से पहुँच पाना कठिन हो, उन क्षेत्रों में प्राचीनतम रूप मिल सकते हैं। दूसरे लोग इन स्थानों के रूपों को प्राय: हेय मानते हैं।
(2) आकर्षण क्षेत्र (Focal Area) - इन क्षेत्रों में आर्थिक या औद्योगिक दृष्टि से कोई महत्वपूर्ण केंद्र होता है। यही केंद्र नए रूपों की उद्भावना का स्रोत होता है। इसलिए समरूप रेखाओं का झुकाव भी केंद्राभिमुख होता है।
(3) संक्रमण क्षेत्र - ऐसे क्षेत्रों में रूपों का एकविध प्रयोग नहीं मिलता। समरूप रेखाएँ एक दूसरे को काटती हुई जाती हैं या उनके बीच का अंतर अधिक होता है।
आकर्षण क्षेत्रों के बारे में यह कहा जा सकता है कि इनके रूप इस क्षेत्र में बहुत पहले से प्रचलित रहे होंगे और उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी शब्दों को व्यवहार की स्थिति से निकालकर पूरे क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा लिया होगा। अवशेष क्षेत्र के रूप सब से पुराने माने जाते हैं और संक्रमण क्षेत्रवाले रूप इस बात का संकेत देते हैं कि किसी व्यवहारगत पुराने रूप के ऊपर किसी नए रूप को प्राथमिकता मिल रही है।
इतिहास
[संपादित करें]बोलियों के ऐसे अध्ययन का सूत्रपात 19वीं शती के पहले चरण में श्मेलर से हुआ था। 1873 में स्कीट ने "इंग्लिश डायलेक्टॉलॉजी सोसायटी" की स्थापना की और एटलस बनाने का भी प्रयास किया। 1876 में जार्ज बेंकर ने 40 वाक्यों की प्रश्नावली को पूरे जर्मन राज्य की 40,000 से भी अधिक स्थानीय बोलियों में रूपांतरित कराया। 1896 से 1908 के बीच एडमंड एडमॉट के सहयोग से गिलेरो ने फ्रांस का महत्वपूर्ण एटलस प्रस्तुत किया। इसी प्रकार स्वाविया और इटली के भी एटलस प्रकाशित हुए। 1939-43 के बीच हंस कुरैथ के निर्देशन में अमरीका और कैनाडा के भाषीय एटलस की पहली किश्त न्यू इंग्लैंड के एटलस के रूप में प्रकाशित हुई। इधर रूस, चीन और जापान में भी इस तरह के प्रयास हो रहे हैं। भारत में इस शती के पहले चरण में किया गया ग्रियर्सन का भाषा सर्वेक्षण अपनी तरह का अकेला प्रयास है।