अशोक की धम्म नीति

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महान अशोक
मौर्य सम्राट
एक "चक्रवर्ती" शासक, पहली शताब्दी ईसा पूर्व/सीई। आंध्र प्रदेश, अमरावती. मुसी गुइमेट में संरक्षित
शासनावधि268–232 ईसा पूर्व
राज्याभिषेक268 ईसा पूर्व
पूर्ववर्तीबिंदुसार
उत्तरवर्तीदशरथ
जन्म304 ईसा पूर्व, 8 अगस्त के करीब
पाटिलपुत्र, पटना
निधन232 के करीब उम्र 72 की उम्र में निधन
पाटिलपुत्र, पटना
समाधिसंभवतः वाराणसी के गंगा नदी में अस्थियाँ विसर्जित की गईं,
राजवंशमौर्य
धर्मबौद्ध धर्म

धम्म शब्द संस्कृत के शब्द धर्म का पालि रूप है। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में 'धर्म' और उसके लक्षणों पर विशद चर्चा है। इतना ही नहीं, 'परम धर्म' (सबसे बड़ा धर्म) पर भी मुनियों ने अपने-अपने विचार दिये हैं। सम्राट अशोक की धम्म नीति को समझने का सबसे अच्छा उपाय उनके शिलालेखों को पढ़ना है, जो पूरे साम्राज्य में उस समय के लोगों को धर्म के सिद्धांतों को समझाने के लिए लिखे गए थे।[1][2][3]

कतव्य मते हि मे सर्वलोकहितं तस च पुन एस मूले उस्टानं च अथ-संतोरणा च नास्ति हि कंमतरं सर्वलोकहितत्पा य च किंति पराक्रमामि अहं किंतु भूतानं आनंणं गछेयं इध च नानि सुखापयामि परत्रा च स्वगं आराधयंतु

छठा प्रमुख शिलालेख, अशोक महान[4]

राजकार्य मे मैं कितना भी कार्य करूँ, उससे मुझको संतोष नहीं होता। क्योंकि सर्वलोकहित करना ही मैंने अपना उत्तम कर्त्तव्य माना है एवं यह उद्योग और राजकर्म संचालन से ही पूर्ण हो सकता है। सर्वलोकहित से बढ़कर दूसरा कोई अच्छा कर्म नहीं है। मैं जो भी पराक्रम करता हूँ वह इसलिए है ताकि मैं जीवमात्र का जो मुझपर ऋण है उससे मुक्त होऊँ और यहाँ इस लोक में कुछ प्राणियों को सुखी करूँ और अन्यत्र परलोक मे वे स्वर्ग को प्राप्त करें।

अशोक के धम्म के प्रधान लक्षण ये हैं : पापहीनता, बहुकल्याण, आत्मनिरीक्षण, अहिंसा, सत्य बोलना, धर्मानुशासन, धर्ममंगल, कल्याण, दान, शौच, संयम, भाव शुद्धि, कृतज्ञता, सहिष्णुता, बड़ों का आदार करना, नैतिक आचरण।

डाॅ. स्मिथ और डाॅ. राधाकुमुद मुकर्जी के मतानुसार अशोक का धम्म सार्वकालिक, सार्वभौम और सार्वजनिक धर्म था क्योंकि उसमे सभी धर्मों के समान सिद्धान्तों का वर्णन है। अशोक सर्वत्र " धम्म " का प्रचार-प्रसार करना चाहता था क्योंकि उसमे सभी धर्मों का सार विद्यमान था। वस्तुतः अशोक का धर्म मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत था। डाॅ. रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार," जिस धर्म का स्वरूप उसने संसार के सम्मुख उपस्थित किया वह सभी सभी सम्मानित नैतिक सिद्धांतों तथा आचरणों का संग्रह है। उसने जीवन को सुखी तथा पवित्र बनाने के उद्देश्य से कुछ आन्तरिक गुणों तथा आचरणों का विधान किया है। अशोक महान का धर्म संकीर्णता तथा साम्प्रदायिकता से मुक्त था।" शिलालेक विशेषज्ञ फ्लीट के अनुसार ", अशोक का धर्म बौद्ध धर्म नही बल्कि राजधर्म (राजाज्ञा) था।"

अशोक अपने दूसरे तथा सातवें स्तंभ लेखो मे धम्म की व्याख्या इस प्रकार करता है--

धर्म है साधुता, बहुत से अच्छे कल्याणकारी कार्य करना, कोई पाप न करना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यावहार मे मधुरता, दया, दान तथा शुचिता। धर्म है प्राणियों का वध न करना किसी भी प्रकार की जीव हिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना। गुरूजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, संबंधियों, ब्राह्मण तथा श्रमणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार करना।
कलिंग युद्ध के बाद मौर्य साम्राज्य का विस्तार और उत्खनन से प्राप्त अभिलेख वा स्तूप

अशोक के शिलालेखों में प्रकाशित धम्म नीति[संपादित करें]

अशोक के शिलालेखों का वितरण[5]

अशोक ने अपने शिलालेखों के माध्यम से अपनी धम्म नीति को उजागर किया। इन शिलालेखों पर धम्म के बारे में अपने विचार को व्यक्त कर अशोक ने अपनी प्रजा से सीधे संवाद करने का प्रयास किया। ये शिलालेख उनके जीवन के विभिन्न वर्षों में लिखे गए थे। शिलालेखों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा गया है। शिलालेखों के अध्य्यन से पता चलता है कि अशोक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। ये शिलालेख अशोक के बौद्ध संप्रदाय के साथ संबंधों की घोषणा करते हैं। अन्य श्रेणी के शिलालेखों को प्रमुख और लघु शिलालेखों के रूप में जाना जाता है,

  1. प्रमुख शिलालेख १ पशु बलि पर प्रतिबंध लगाने का उल्लेख है।
  2. प्रमुख शिलालेख २ सामाजिक कल्याण के उपायों से संबंधित है। इसमें मनुष्यों और जानवरों के लिए चिकित्सा उपचार, सड़कों, कुओं और वृक्षारोपण के निर्माण का उल्लेख है।
  3. प्रमुख शिलालेख ३ घोषित किया गया है कि ब्राह्मणों और श्रमिकों के प्रति उदारता एक गुण है, और अपने माता-पिता का सम्मान करना एक अच्छा गुण है।
  4. प्रमुख शिलालेख ४ में उसके शासनकाल के बारहवें वर्ष में पहली बार धम्म-महामत्त की नियुक्ति का उल्लेख है। इन विशेष अधिकारियों को राजा द्वारा सभी संप्रदायों और धर्मों के हितों की देखभाल करने और धम्म का संदेश फैलाने के लिए नियुक्त किया गया है‌।
  5. प्रमुख शिलालेख ५ धम्म-महामहत्तों के लिए एक निर्देश है। उनसे कहा गया है कि वे किसी भी समय राजा के पास अपनी याचिका ला सकते हैं। और आदेश का दूसरा भाग त्वरित प्रशासन और सुचारु व्यापार के लेन-देन से संबंधित है इत्यादि।
  6. प्रमुख शिलालेख ६ सभी संप्रदायों के बीच सहिष्णुता की अपील है। आदेश से ऐसा प्रतीत होता है कि संप्रदायों के बीच तनाव शायद खुले विरोध का माहौल था। यह याचिका एकता बनाए रखने की समग्र रणनीति का एक हिस्सा है।

शिलालेखों के आधार पर अशोक के धम्म के सिद्धांत, शिक्षाएं या विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

(१) अशोक का धम्म धर्म के मूल तत्वों से युक्त है। अशोक ने वैदिक धर्म के मूल तत्वों को सदा याद रखा। जैसे-- दया, करूणा, क्षमा, धृति, शौच इत्यादि बौद्ध और जैन धर्म मे भी यह मूल तत्व है।

(२) नैतिकता और सदाचरण अशोक के धम्म के मूल आधार हैं।

(३) अशोक के धम्म मे दूसरो के विचारों, विश्वासों, आस्था, नैतिकता और जीवन प्रणाली के प्रति सम्मान और सहिष्णुता रखने को विशेष रूप से कहा गया है।

(४) अशोक के धम्म मे अहिंसा को अत्यधिक महत्व दिया गया है किसी जीव को न मारना, किसी जीव को न सताना साथ ही अपशब्द न बोलना, किसी का बुरा न चाहना और पशु-पक्षी, मानव, वृक्ष आदि की रक्षा करना और इसके लिये कार्य करना भी अहिंसा है।

(५) ब्राह्मणों श्रमणों को दान, वृद्धों और दुखियों की सेवा तथा सम्बन्धियों, बन्धु बान्धवों, हितैषियों और मित्रों के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार होना चाहिए।

(६) अशोक के धम्म का एक आर्दश है मानव को भावनाओं की शुद्धता तथा पवित्रता के लिए साधुता, बहु कल्याण, दया, दान, सत्य, संयम, कृतज्ञता तथा माधुर्यपूर्ण करना है।

(७) हितैषियों और मित्रों के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार करना।

(८) अशोक के धम्म का एक सिद्धांत सेवक तथा श्रमिकों के साथ सद्व्यवहार करना है।

(९) अशोक के धर्म की मुख्य विशेषता लोक कल्याण है। धम्म मंगल अर्थात् प्राणिमात्र की रक्षा और विकास के लिये कार्य करना। विलासी जीवन से दूर रहना, मांस भक्षण न करना, वृक्षों को न काटना आदि लोक कल्याण के अंतर्गत ही माने जाते है।

(१०) अशोक के धम्म की एक विशेषता यह है कि अशोक का धम्म सार्वभौमिक है, प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समय मे धम्म का पालन कर सकता है।

(११) अल्प व्यय (कम खर्च) अल्प संग्रह (कम जोड़ना) करना चाहिए।

(१२) निष्ठुरता, क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या दुर्गुणों से दूर रहकर कम से कम पाप करना चाहिए।

अशोक महान द्वारा प्रतिपादित धार्मिक विचार सार्वभौमिक, सहिष्णुतापूर्ण, दार्शनिक, पक्षविहीन, व्यावहारिक, अहिंसक तथा जीवन मे नैतिक आचरण के पालन को महत्व देने वाले थे।

अशोक की धार्मिक नीति[संपादित करें]

यद्यपि अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था, तथापि उसने किसी दूसरे धर्म व सम्प्रदाय के प्रति अनादर एवं असहिष्णुता प्रदर्शित नहीं की। विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के प्रति उदारता की अशोक की नीति का पता उसके विभिन्न अभिलेखों से भी लगता है।

12वें अभिलेख में अशोक कहता है,

यो हि कोचटि आत्पपासण्डं पूजयति परसासाण्डं व गरहति सवं आत्पपासण्डभतिया किंति आत्पपासण्डं दिपयेम इति सो च पुन तथ करातो आत्पपासण्डं बाढ़तरं उपहनाति [ । ] त समवायों एव साधु किंति अञमञंस धंमं स्रुणारु च सुसंसेर च [ । ] एवं हि देवानं पियस इछा किंति सब पासण्डा बहुस्रुता च असु कलाणागमा च असु

12वा प्रमुख अभिलेख[6]

अनुवाद : मनुष्य को अपने सम्प्रदाय का आदर और दूसरे धर्म की अकारण निन्दा नहीं करना चाहिए। जो कोई अपने सम्प्रदाय के प्रति और उसकी उन्नति की लालसा से दूसरे धर्म की निन्दा करता है वह वस्तुतः अपने सम्प्रदाय की ही बहुत बड़ी हानि करता है। लोग एक-दूसरे के धम्म को सुनें। इससे सभी सम्प्रदाय बहुश्रुत (अधिक ज्ञान वाले) होंगे तथा संसार का कल्याण होगा।

अशोक का यह कथन उसकी सर्वधर्म समभाव की नीति का परिचायक है। यही नीति उसके निम्न कार्यों में भी परिलक्षित होती है[7]-

  • राज्याभिषेक के 12वें वर्ष अशोक ने बराबर (गया जिला) की पहाड़ियों पर आजीवक सम्प्रदाय के संन्यासियों को निवास हेतु गुफाएँ निर्मित कराकर प्रदान की थीं, जैसे सुदामा गुफा और कर्णचौपर गुफा।
  • यवन जातिय तुषास्प को अशोक ने काठियावाड़ प्रान्त का गवर्नर नियुक्त किया। तुषास्प ने सुदर्शन झील से नहरें निकलवायीं। सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य के समय सौराष्ट्र प्रान्त के गवर्नर पुष्यगुप्त ने करवाया था। राज्यतरंगिणी से पता चलता है कि अशोक ने कश्मीर के विजयेश्वर नामक शैव मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था। यहां तक की अशोक अपने अभिलेखों में बौद्ध श्रमाणों के साथ ब्रह्माणों को भी दान देने की बात करते है।

तत इदं भवति दासभतकम्हि सम्यप्रतिपती मातरि पितरा साधु सुनुसा मितसस्तुततिकानं बाम्हणत्रमणानं साधुदान

11वा प्रमुख अभिलेख

अनुवाद : वहाँ (धर्म में) यह होता है कि दासों व सेवकों के साथ यथोचित आदरपूर्वक व्यवहार किया जाय, माता व पिता की अच्छी प्रकार से सेवा की जाय। मित्रों, सुपरिचितों, एवं बन्धु बान्धवों को, ब्राह्मणें एवं श्रमणों को दान देना अच्छा है ।

  • अशोक ने इसी प्रकार की भावना अपने सप्तम शिला लेख में भी इस प्रकार की है-

"देवानंप्रियो पियदसिराजा सवत्र इछति सव्र प्रषंड वसेयु सवे हि ते समये भव-शुधि च इछंति जनो चु उचवुच-छंदो उचवुच रगोते सव्रं व एकदेशं व पि कषंति विपुले पि चु दने ग्रस नस्ति समय भव शुधि किट्रञत द्रिढ-भवति निचे पढं"

–सप्तम प्रमुख शिलालेख[8]

अनुवाद : देवानां प्रियदर्शी (सम्राट अशोक) की इच्छा है कि सर्वत्र सभी सम्प्रदाय निवास करें। वे सभी संयम और भाव शुद्धि चाहते हैं किन्तु लोगों के ऊँच-नीच विचार और भाव होते हैं। वे या तो सम्पूर्ण कर्त्तव्य करते हैं अथवा उसका अंश। जिसने बहुत दान दिया हैं किन्तु यदि उसने संयम, भावशुद्धि, कृतज्ञता, दृढ़- भक्ति नहीं है तो वह (दान) निश्चय ही निम्न कोटि का है।


सभी सम्प्रदायों के कल्याण तथा उनमें धम्म की प्रतिस्थापना के उद्देश्य से धर्म-महाभर्भाव नामक अधिकारियों की नियुक्ति ।
–प्रमुख शिलालेख 5

धर्म से सम्बन्धित उसने "धर्ममंगल", "धर्मदान", "धर्म अनुग्रह आदि की बातें कही हैं। धर्म मंगल के उद्देश्य के विषय में अष्टम शिलालेख में सम्राट् ने इस प्रकार अपने उद्‌गार व्यक्त किये हैं-

" दास भटकम्हि सभ्यप्रतिपति, गु३ नं अपिचति साधु, पाणेसु संयमो साधु, ब्राह्मणसमणानं साधुदानं, एतं च अयं च एतारिसन धम्ममंगल नाम "

–अष्टम प्रमुख शिलालेख

इसी प्रकार शिला अभिलेख ग्यारहवें में उसने कहा कि :

"नास्ति एताइिसं दानं या रिसं धम्मदान, धम्मसंस्तवो वा धम्म सम्विभागो, धम्म सम्बन्धो व"

– ग्यारहवाँ प्रमुख शिलालेख

अनुवाद : "ऐसा कोई दान नहीं जैसा धर्मदान, ऐसी कोई मित्रता नहीं जैसी धर्म-मित्रता, ऐसी कोई उदारता नहीं, जैसी धर्म उदारता है, ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं जैसा धर्म-सम्बन्ध ”

सम्राट् का अनुराग सभी धर्मों के प्रति समान था। वह सभी सम्प्रदायों के अनुष्ठानों में स्वयं उपस्थित होकर उनकी समुचित पूजा एवं अभ्यर्थना करता था। छठवें शिला-अभिलेख में उसने इसी बात को अंकित इस प्रकार किया है-

"सब पाषण्डापि में पूजिता विविधाय पूजाय। ऐचु इयुं अत्तनापच्चुपगमने।

– छठवां प्रमुख शिलालेख

अनुवाद : सभी सम्प्रदाय मेरे द्वारा पूजित हैं, मैं उनकी विविध प्रकार से पूजा करता हूँ किन्तु व्यक्तिगत रूप से उनके पास जाने को अपना मुख्य कर्त्तव्य मानता हूँ।

विवरणों से यह स्पष्ट है कि अशोक का विश्वास "शुद्ध-धर्म" में था। उसकी यह भी मान्यता थी कि "शुद्धधर्म" के पालन से ही सभी जन का कल्याण हो सकता है। सम्प्रदायवाद से तो हानि ही हानि है। सम्राट् की यही मंगलकामना थी कि प्रजा में धर्माचरण की अभिवृद्धि हो, सभी लोग संयम से रहें तथा दान करें:

बढ़ति विविधं धम्म चलने संयमे दान सम्वभागेति
-चतुर्थ स्तंभ लेख

संदर्भ[संपादित करें]

  1. मिरगंद्र अग्रवाल (2005). शिलालेखों का दर्शन. स्टर्लिंग प्रकाशन Pvt. Ltd. पृ॰ 42. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9781845572808.
  2. "धर्म". बुद्धनेट. मूल से 7 सितम्बर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 अगस्त 2013.
  3. विपुल सिंह (सितम्बर 2009). लॉन्गमैन विस्टा 6. पियर्सन एजुकेशन इंडिया, 2009. पृ॰ 46. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788131729083. अभिगमन तिथि 30 August 2013.
  4. Tripathi, Havaldar (1960). Bauddhdharma And Bihar. पृ॰ 324.
  5. संदर्भ: "भारत का अतीत" पृ॰.113, बुर्जोर अवारी, रूटलेज, ISBN 0-415-35615-6
  6. Baudha Dharm Darshan Dharma Nirapekshata Of Ramesh Kumar Dwivedi Sampurnananda Sanskrit University. पृ॰ 76.
  7. Shrivastava, Dr Brajesh Kumar (2023-11-25). NEP Bharat Ka Rajnitik Itihas भारत का राजनीतिक इतिहास Political History Of India [B. A. Ist Sem (Prachin Itihas) (Major & Minor)]. SBPD Publications. पृ॰ 75.
  8. Ashoka's Inscriptions /अशोक कालीन अभिलेख. 2021-09-26. पृ॰ 41.