सिद्धर्षि

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सिद्धर्षि सूरी दसवीं शताब्दी के एक संस्कृत साहित्यकार थे। उन्होंने 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' नामक महान ग्रन्थ की रचना की है। इसके रचना का काल विक्रम संवत् 962 (ई. 905) है। यह एक अन्योक्तिपरक ग्रन्थ है। पण्डित नाथूराम प्रेमी ने सन १९२४ में इसका हिन्दी अनुवाद किया था। उसी वर्ष इसका जर्मन भाषा में भी नुवाद हुआ। १९२५-२६ में पण्डित गिरिधारीलाल कपाडिया ने इसका गुजराती में अनुवाद किया।

उपमितिभव्प्रपञ्चकथा के अनुसार सूर्याचार्य के शिष्य छेल महत्तर और उनके स्वामी दुर्गा स्वामी हुए। इन दुर्गा स्वामी ने ही इनको तथा इनके शिक्षा गुरु गर्ग स्वामी को दीक्षित किया था।

जीवन-कथा[संपादित करें]

गुर्जरदेश के भीनमाल में शुभंकर नामक श्रेष्ठी रहेता था। उनकी पत्नी का नाम लक्ष्मी था। उनको सिद्ध नाम का पुत्र था। सिद्ध का लग्न धन्या की साथ हुआ था।सिद्ध को धीरे धीरे जुगार का व्यसन हुआ। इसलिये वो आधी रात तक घर नही आता था। उनकी पत्नी धन्या वो न आये तब तक उनकी राह देख बैठी रहती थी। धन्या ने रात को उजागरा होता था इसलियेे दिन में ऊंघ आती थी और घरकाम में गरबड होने लगी। एकबार लक्ष्मी शेठाणी ने धन्या को ऐसे होने कारण पूछने पर "सिद्ध रात को देर से आते हैं", ऐसा कहा। लक्ष्मी शेठाणी नेे कहाँ कि धन्या आज तुम शो जाना में रात को जगूंगी। और उनकी सान ठेकाणे लाऊंगी। धन्या रात को सो गई , माता पुत्र की राह देख रही थी। आधी रात को सिद्ध आकर घर के द्वार खटखटाने लगा। माता लक्ष्मी ने कहा कि जिसका द्वार खुला हो वहाँ जाये। सिद्ध भिन्नमाल में फिरने लगा। उन्होंने हर घर देखे। सभी घर के द्वार बंद थे। उपाश्रय का द्वार खुला था। उस रात को सिद्ध उपाश्रय में रहा। सुबह आचार्य महाराज को कहा कि मुझको दीक्षा दीजिये। मुझको आपका शिष्य होना है। आचार्य महाराज ने उनको साधु मार्ग की कठोरता कही और कहा कि तू अपने माता पिता की अनुमति लेकर आ। बाद में तुजको दीक्षा दूंगा। शुभंकर शेठ सिद्ध को शोधते उपाश्रय आये। सिद्ध को घर आने के लिये समझाया। सिद्व ने कहाँ कि मुजकोे दीक्षा लेनी है। पिता ने घणी आनाकानी की बाद में पुत्र का अत्यंत आग्रह देखकर दीक्षा लेने की अनुमति दी। सिद्ध ने आचार्य गंगर्षिसूरि के पास दीक्षा ली और सिद्धर्षि मुनि बने।

सिद्धर्षि मुनि ने प्रथम जैन दर्शन का अध्ययन किया। बाद में गुरुजी की ना होने छतां बौद्ध दर्शन का अध्यन के लिये महाबोध नगर जाने का नक्की किया। जाते समय गुरुजी ने उनकी पास से ऐसा वचन लिया कि वहाँ जाने के बाद मतिभ्रम से बौद्ध होने का मन हो तो तुझको एकबार यहाँ आकर मुझसे मिल जाना। सिद्धर्षि ने यह वचन देकर गुप्तवेश में महाबोध नगर में जाकर बौद्ध साहित्य का अध्यन किया। बौद्धचार्यो ने उनको बौद्ध होने के लिये समझाया। सिद्धर्षि ने यह बात पसंद आई। अपना वचन पालने दुर्ग स्वामी के पास आये। गुरुजी ने उनको हरिभद्रसूरि रचित ललितविस्तर की वृत्ति उनको पढ़ने दी। पढ़ते ही सिद्धर्षि के ज्ञान-चक्षु खुल गये। गुरु चरण में नमन कर पश्चताप के आंसू आये। वे शुद्ध होकर जैन धर्म में स्थिर हुए। गुरुजी ने उनकी योग्यता देखकर उनको आचार्य पद से विभूषित किया और उन्होंने अनशन लेकर स्वर्गगमन हुआ।

आचार्य सिद्धर्षिसूरि ने विक्रम संवत 962 जेठ सुद 5 गुरुवार को पुनर्वसु नक्षत्र में भिन्नमाल में उपमिति-भव-प्रपंच कथा , विक्रम संवत 973 में चंद्रकेवलीचारित्र , उपदेशमाला लघुवृत्ति , उपदेशमाला बृहदवृत्ति , न्यायावतारवृत्ति आदि ग्रंथो की रचना की। आचार्य सिद्धर्षिसूरि ने धर्म की सारी प्रभावना करके तीर्थो की यात्रा की। आयुष्य पूर्ण कर उनकी सद्गति हुई।

उपमितिभवप्रपञ्चकथा[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]