सामर्थ्य और सीमा

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सामर्थ्य और सीमा सुप्रसि़द्घ कथाकार भगवती चरण वर्मा का बहुचर्चित उपन्यास है। इसमें अपने सामर्थ्य की अनुभूति से पूर्ण कुछ ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों की कहानी है जिन्हें परिस्थितियाँ एक स्थान पर एकत्रित कर देती है। हर व्यक्ति अपनी महत्ता, अपनी शक्ति और सामर्थ्य से सुपरिचित था – हरेक को अपने पर अटूट विश्वास था; लेकिन परोझ की शक्तियों को कौन जानता था जो उनके इस दर्प को चकनाचूर करने को तैयार हो रही थी।

इस उपन्यास में आज के महान सघंर्ष से युक्त जीवन का सशक्त और रोचक चित्रण हुआ है। इसके द्वारा कथाकार ने जहाँ मानवीय प्रयत्नों की गरिमा को पूरी कलात्मकता से उजागर किया है, वही यह भी सिद्घ किया है कि मनुष्य नियति और प्रकति के हाथों महज एक खिलौना है। वह समर्थ है, प्रबुद्घ और ज्ञानी भी है, लेकिन उसके सारे सामर्थ्य और ज्ञान की एक सीमा है, जिससे वह अनजान बना रहता है।

वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्घ ज्ञानी हो,
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो,
लेकिन अचरज इतना तुम कितने भोले हो,
ऊपर से ठोस दिखो, अन्दर से पोले हो,
बनकर मिट जाने की एक तुम कहानी हो !

भगवती बाबू के इस उपन्यास में मनुष्य की इसी सीमा का प्रभावशाली चित्रण है।