सदस्य:Balak Ram Rajpoot/प्रयोगपृष्ठ
आज मै अपने कार्य की प्रसंसा स्वयं करता हूँ आज मै आप लोगों को प्रथम शिक्षण संस्थान के अंतर्गत USAID प्रोग्राम के कार्यों के अनुभवों से अवगत करा रहा हूँ । जोकि मेरे जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली रहा । ऐसे कार्यों में व्यक्ति यदि एक बार सफलता प्राप्त कर ले तो स्वाभाविक है कि उसे अपने पर गर्व होना ही चाहिए । 'USAID प्रोग्राम के तहत मुझे उत्तर - प्रदेश के उन्नाव जनपद के असोहा ब्लॉक में ३ गांवों में बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी प्राप्त हुई । प्रत्येक गांव के सरकारी प्राथमिक विद्यालय में कक्षा ३,४, व ५ के बच्चों के साथ २०-२० दिनों के दो-दो लर्निंग कैंप संचालित किये । हमारे द्वारा प्रत्येक गांव में ४०-४० दिन बच्चों के साथ शिक्षण कार्य किया गया । हमारे द्वारा रोज़ाना किये जाने वाले कार्य निम्नलिखित हैं -
1. बच्चों को पढ़ाने हेतु घरों,जंगलों या खेतों से विद्यालय लाना व अभिभावकों से बातचीत करना । 2. स्वयंसेवियों के सहयोग से विद्यालय में अलग -अलग स्तरानुसार समूहों में शिक्षण कार्य करना । 3. शिक्षकों से बच्चों की शिक्षा से सम्बंधित चर्चाएं करना । 4. शिक्षण कार्य समापन करने के पश्चात पुनः समुदाय में अभिभावकों से बच्चों की शिक्षा से सम्बंधित चर्चाएं करना । 5. छोटे -छोटे समूहों में गोष्ठी करना । जिसमे अपने विचारों को उनके समक्ष रखना और बेहतर सुझावों हेतु सानुरोधतापूर्वक आग्रह करना । 6. समुदाय के लोगों के सामने कुछ बच्चों की करके दिखाना । इसके अतिरिक्त और अन्य कई प्रकार के कार्य किये जाते थे । किसी - किसी दिन किये गए । जैसे -शिक्षा सम्बंधित दीवारों पर लेख , रैली , बड़ी मीटिंग ,शाम में रात को होम विजिट ,ज्यादा कमजोर स्थिति वाले बच्चों के साथ उनके घर पर अलग से पढ़ाना आदि ।
अब मैं इनमे से एक गांव शंकर खेड़ा के कार्यों का जिक्र करंता हूँ । अत्यधिक प्रफुल्ल्ता तो तब हुई जब लगभग सभी बच्चे पढ़ना सीख गए । परिणामों को पाकर स्वयं भी विश्वास नहीं हो रहा था कि ये सब हमारे माध्यम से ही संभव हुआ । क्यूंकि पहले लगभग 85 % बच्चे शब्दों को भी नहीं पढ़ पाते थे । परन्तु आज स्थिति लगभग 95% बच्चे पढ़ना सीख चुके थे । मेरे मन में अनेक सवाल उमड़ने लगे मेरी अंतरात्मा से जानने के लिए । कि **क्या यह सफलता मैंने अकेले ही प्राप्त की है ? ,**क्या मैं इस योग्य हूँ भी या नहीं ?,**यदि मैं योग्य हूँ तो यही बहुत पहले क्यों नहीं किया ?आदि तरह के प्रश्नो ने मुझमे उथलता - पुथलता मचा राखी थी । लेकिन शायद ये मेरा सोचना बिलकुल गलत था क्यूंकि इसमे तो बहुतों का योगदान प्राप्त हुआ । जैसे -हमारी शिक्षा -प्रशिक्षण ,उच्चतम स्तरीय दिशानिर्देश ,स्वयं सेवियों का सहयोग ,विद्यालयी शिक्षकों का सहयोग ,अभिभावकों का सहयोग एवं बच्चों का भी योगदान महत्त्वपूर्ण रहा । परन्तु आश्चर्य चकित करने वाली बात तो ये थी जो बच्चे 4 सालों में नहीं सीख पाये वही आज 40-50 दिन में उससे कितना अत्यधिक सीख गए । शुरूआत के दिनों में मुझे लगा कि शायद यहां पर कार्य करना अत्यंत मुश्किल होगा । परन्तु मुझे उपर्युक्त विभिन्न तरीकों से लगातार प्रोत्साहन व उत्साह मिलता गया और मैंने हिम्मत व धैर्य बनाये रखा । इस गांव की स्थिति को देखते हुए मैं हमेशा चिंतन करता और अपनी अग्रिम रणनीतियों के बारे में सोचता रहता । प्रत्येक दिन लगभग दो बार तो प्रत्येक घर में पहुँचता ही था । गांव के लिए मैं अपना पूरा समय देता रहा । कभी -कभी नकारात्मक भावनाओं का भी मुझ पर प्रहार होता था । मुझे लज्जा सी महसूस होती थी कि गांव के लोगों से ज्यादा तो मैं इनकी गलियों में भ्रमण करता हूँ । परन्तु ऐसे मौके पर जरूरत थी मुझे अपने आपको समझाने की । मैंने समझा कि मैं कोई बुरा काम या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए तो नहीं हूँ ,मैं तो सर्वजन हित व कल्याणकारी कार्य हेतु हूँ । मेरी यही सकारात्मक सोच ने मुझे संभाल लिया । कुछ ही दिनों में मुझे गांव का बच्चा-बच्चा जानने लगा । धीरे -धीरे ग्रामवासी मेरे शिक्षण कार्यों को देखने की लालसा से विद्यालय तक आने लगे और मेरा हृदय उनके उत्साहवर्धक ,सम्मानपूर्ण,प्रेरणादायक व प्रोत्साहन स्वरूपक शब्दों को सुनकर अथाह सुख की अनुभूति कर गदगद हो जाता । मेरा कार्य के प्रति जोश और उत्तेजनाएं बढ़ती ही गयी । शिक्षण कार्य समापन के पश्चात जब मैं गुजरता था तो कोई पता नहीं रहता था कि मैं आज वापस आवास पर जा पाउँगा कि नहीं । क्यूंकि गांव के प्रत्येक व्यक्ति अपने -अपने घर रोकने के लिए उत्साहित रहते थे । मैं भी जितना बच्चों से प्यार करता था उससे ज्यादा बुजुर्गों के साथ बैठकर बातचीत करना । मेरी ऐसी विचार धारणा ने ही मुझे गांव के बुजुर्गों से दोस्ती कराई । अब तो जितना मै बच्चों के लिए चिंतित रहता , उससे कहीं ज्यादा गांव के लोग मेरे लिए ।लोग मेरे बारे में सोचकर हैरान थे कि आज के जमाने में भी इस तरह के इंसान होते हैं । जो हमारे गांव के लिए क्या -क्या कर रहा है । ऐसा उनका सोचना या कहना बिलकुल वाजिब ही था ,क्यूंकि मैं बच्चों को पढ़ाने हेतु जंगलों या खेतों से बच्चों को ऐसे रास्तों से मोटरसाइकिल पर बैठाकर लाता था जिन रास्तों पर शायद स्थानीय निवासियों ने साइकिल भी नहीं चलाई होगी । अब तो गांव में ऐसी लहर दौड़ी कि जैसे आज के जमाने में लोग किसी नेता ,अभिनेता या किसी महात्मा के दीवाने हो जाते हैं ,उसी तरह हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही था। जिस रास्ते से मुझे गांव जाना होता था ,उस रास्ते पर लोग मेरी पहले से ही राह निहार रहे होते थे । लोगों से ही पता चला कि अपने खेतों में बैठकर काम कर रहे लोग भ्रमवश किसी की गाड़ी की आवाज़ सुनकर अभिवादन करने हेतु (चाहे दूर से सांकेतिक रूप से ही ) बार -बार खड़े होकर देखते ।अत्यधिक भावुकतावश हम भी ऐसे लोगों के खेत पर ही बातचीत के लिए कुछ समय देते थे । लोग मुझे उपहार स्वरुप (प्रत्येक दिन कोई न कोई ) खाने की चीज या अन्य कोई वस्तु भेंट करते थे । जिस किसी के घर कोई भी कार्यक्रम होता तो मुझे सम्मिलित करना कदापि नहीं भूलते और उनके यहां रिश्तेदारों से भी निमंत्रण पत्र दिलवाते थे । मुझे इतना आदर व ख़ुशी जीवन में कभी नहीं मिली । मेरी अंतरात्मा संकोच करती और मुझे विश्वास नहीं होता कि मैं इतने अत्यधिक सम्मान का हक़दार हूँ भी या नहीं । क्यूंकि कुछ तो बुजुर्ग लोग भी मेरे चरण स्पर्श के लिए जब झुकते तो मैं शर्म से पानी - पानी हो जाता । कुछ लोगों ने तो मुझे ,मेरे ही सामने देवता और भगवान शब्द का प्रयोग किया ,तब तो मै सन्न रह जाता । जैसे मै कोई महात्मा हूँ और मैंने लोगों के ह्रदय में ज्ञान की ज्योति जगाई हो ,ऐसे ही तबज्जो देते थे । हाँ , यह सब शायद मेरी धार्मिक प्रवृत्ति,अध्यात्म ज्ञान में रूचि होने, बुजुर्गों का आदर करने , निस्वार्थ भाव से अच्छा कार्य करने के कारण हो रहा था । यानी लोगों के अनुरूप ही मैं अपनी विचार-धारा बनाकर बातचीत करता था । सभी लोग मेरी बात मानकर अपने बच्चों से घरेलु काम कम करते , पढाई के बारे में ज्यादा सोचने लगे । सबसे बेहद सोचनीय है कि वे लोग भी उतना ही मानते थे ,जिनके बच्चे भी दूसरे स्कूलों में पढ़ते थे । वे भी चाहते थे कि यदि हम हमेशा पढ़ते रहें तो अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों से निकालकर यहीं पढ़ाएंगे । एक समय तो ऐसा भी आया कि ग्रामवासियों ने विचार विमर्श करके मुझे सदैव के लिए उस गांव को शिक्षित करते रहने हेतु अपना निजी विद्यालय खोलने के लिए स्थान व जितना मै पाता हूँ उसका दोगुना देने ,रहने हेतु जगह देने का प्रस्ताव रखा । जिसको सुनते ही मई हक्का -बक्का रह गया । मैंने उस गोष्ठी में लोगों को समझाया कि आज आप लोग ये सब भावुकतावश कह रहे हैं बाद में, मै जो कमाकर घर चला रहा हूँ वह भी मुझसे छीन जायेगा । आज के ज़माने में कौन किसका होता है ,लोग अपने सगे सम्बन्धियों के भी नहीं होते । जिन गुणों की खातिर आप मुझे जो कुछ भी मन रहे हैं वो सब प्रथम संस्था की ही देन है । उसी की छात्र छाया में अपना व्यक्तित्व संवरा है ,मेरे लिए अन्नदाता के साथ -साथ बेहतर जीवन जीने की कला दाता है प्रथम और कहा कि- इसमें आपका भी कोई दोष नहीं है कुछ सांसारिक स्वभाविकताएं जो मनुष्य को ऐसे ताने-बाने में उलझती हैं । हमारे कार्यक्रम अवधि पूर्ण होने के पश्चात अंत में सभी के सहयोग से एक मेला कार्यक्रम का आयोजन किया गया । जिसमे उस गांव के अतिरिक्त आस -पास के लोगों ने भी प्रतिभाग किया । सभी ने किसी न किसी तरह (आर्थिक ,शारीरिक व मानशिक रूप ) से महत्वपूर्ण योगदान दिया । ये दिन मेरा वहां से विदाई का था । बच्चों के लिए पुरष्कार और सभी के लिए मिष्ठान की व्यवस्था थी । मेरे मन में ख्याल आ रहा था कि मैंने इस गांव का बहुत नमक खाया है आज हम मिष्ठान से अंत कर रहे हैं । कुछ बच्चों के कार्यक्रम ,प्रतियोगिताएँ ,व सभी से बातचीत होने के पश्चात अंत में अभिभावकों ,बच्चों , शिक्षकों सभी ने बेहद दुःख प्रकट किया । कुछ लोगों ने तो मेरा दिल भी दहला दिया क्यूंकि जिस व्यक्ति ने कभी रोना तो सीखा ही नहीं उसकी विदाई अश्रु धारा बहाकर की जा रही थी ।आज भी उस गांव से बच्चे ,अभिभावक और शिक्षक जब भी संपर्क सूत्र के माध्यम से बातचीत करते हैं तो भावुकता के बढ़ते उनसे मिलने की व्याकुलता सताने लगती है । इस तरह हमारे लक्ष्य की प्राप्ति हुई । जोकि -
1. समुदाय में परिवर्तन । 2. विद्यालय में परिवर्तन । 3. बच्चों के शैक्षणिक स्थिति में परिवर्तन ।
ये हमारे कार्य के लक्ष्य हैं । मुझे गर्व है अपने द्वारा किये गए कार्यों पर कि मै कुछ हद तक तीनों लक्ष्यों को प्राप्त कर सका ।
Blak Ram Rajpoot