सदस्य:डॉ.विजेंद्र प्रताप सिंह/प्रयोगपृष्ठ

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ब्रज का भाषाविज्ञान ==


ब्रजभाषा


प्राचीन काल से ही उत्तर प्रदेश भारत देश में बहुत दृष्टियों से महत्वपूर्ण राज्य के रूप में जाना जाता रहा है। जहॉं इस राज्य की अवस्थिति राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत गरिमामय रही है वहीं इतिहासिक      दृष्टि से भी महत्वपूर्ण राज्य के रूप में विख्यात रहा है। ‘ब्रज मंडल‘ का इतिहास एवं भूमिका भी पर्याप्त रूप से उल्लेखनीय रही है। भाषा, संस्कृति की दृष्टि ने न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि सम्पूर्ण भारत को बहुत कुछ दिया है।  आदिकाल से मध्य काल तक ब्रज का प्रभाव हिंदी साहित्य पर देखा जाता है। भले ही वह प्रभाव डिंगल, पिंगल के रूप में रहा हो या विशुद्ध ब्रज के रूप में।  

ब्रजक्षेत्र की सीमाओं के संबंध में विद्वानों ने नाना प्रकार के मत व्यक्त किए है परंतु हम प्रस्तुत पुस्तक में वर्तमान वर्गीकृत क्षेत्र पर ही आधारित होकर सम्पूर्ण विवेचन पर ध्यान देंगे। भाषाई दृष्टि से एटा जनपद में ब्रज भाषा के पूर्वी रूप का प्रचलन है। मैनपुरी, एटा, इटावा, बदायूं, बरेली, पीलीभीत, फरूखाबाद, शाहजहांपुर, हरदोई और कानपुर तक की बोली पूर्वी ब्रजभाषा के अंतर्गत आती है। इसमें भी एटा जिले में प्रचलित ब्रज के संबंध में विशेष तथ्य  यह है कि यह जिला भाषाई  वैविध्य का अनूठा  उदाहरण है। भाषाई वैविध्य की दृष्टि से यह क्षेत्र विशेष इसलिए भी है कि इसके चारों ओर पश्चिमी हिंदी के विविध रूप प्रचलित हैं। जहां तक प्रश्न है ब्रज का तो मथुरा की ओर सादाबाद तक केंद्रीय ब्रज का पुट रहता है, हाथरस की ओर पश्चिम ब्रज का तो मैनपुरी की ओर कन्नौजी का प्रभाव यहां की बोली में देखा जाता है। विदित है कि भारत पर विभिन्न काल खंडों में विेदेशियों का शासन रहा इस कारण अन्य भाषाओं का प्रभाव भी स्वाभाविक है। प्रस्तुत पुस्तक में पूर्वी ब्रज में अंग्रेजी के अतिरिक्त उर्दू,फारसी शब्दों आदि के प्रभाव को भी विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है जो भाषाशिक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। उदाहरणों के लिए पूर्वी ब्रज के क्षेत्र में प्रचलित रूपों को प्रमुखता से लिया गया है। चूंकि सीमावर्ती मामला भी महत्वपूर्ण होता है अतः किसी भाषा विशेष के प्रचलन क्षेत्र की स्पष्ट सीमा रेखा तय कर पाना असंभव है इसलिए सीमावर्ती क्षेत्रों के रूप में शामिल हो गए हैं और यह एक प्रकार से आवश्यक भी प्रतीत होता है क्योंकि जब भाषा का प्रभाव सुदुर स्थलों पर देखा जाता है तो निकटवर्ती या सीमावर्ती स्थानों पर इससे बचना संभव ही नहीं है।  


प्रस्तुत पुस्तक में ब्रजभाषा पर भाषावैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन किया गया है। भाषा उत्पत्ति की दृष्टि से ब्रज का संबंध सौरसेनी अपभ्रंश से है। रूप या प्रकार की दृष्टि से ब्रज को प्रमुखतः केंद्रीय ब्रज, पश्चिमी ब्रज तथा पूर्वी ब्रज के रूप में बांटा जा सकता है। वैसे विद्वानों ने और भी कई रूपों का उल्लेख किया है। जिसका संकेत इस पुस्तक में यथास्थान एवं संदर्भ दिया गया है। भाषा विज्ञान की परंपरा में यदि देखा जाए तो ब्रजभाषा पर स्वतंत्र रूप से इस नाम से अभी तक कोई ग्रंथ देखने में नहीं आया है। हालांकि व्याकरणिक पुस्तकों के माध्यम से कुछ विद्वानों ने कुछ भाषिक विश्लेषण भी ब्रज के किए हैं, परंतु उनमें भाषा विज्ञान के सभी तत्वों को आधार नहीं बनाया गया है अपितु व्याकरणिक तत्वों की प्रधानता देखी गई है।


व्याकरण की दृष्टि से मिर्जा खां द्वारा रचित  ‘ब्रजभाषा का व्याकरण’ अब तक उपलब्ध ग्रंथों में सर्वाधिक प्राचीन है, जिसका सर्वप्रथम उल्घ्लेख सर विलियम जॉन्स ने सन 1784 ई. में किया। यह ग्रंथ 1675 ई. के कुछ पहले लिखा गया था, जिसमें ब्रजभाषा के छंदशास्त्र, अलंकार, नायक-नायिका भेद साथ ही भारतीय संगीत, कामशास्त्र आदि और अंत में हिंदी-फारसी के तीन हजार शब्दों का कोश दिया गया है। इसका ‘व्याकरण अंश’ अंग्रेजी में जियाउद्दीन द्वारा अनुवादित किया गया तथा यह विश्वभारती, शांतिनिकेतन से सन् 1935 में प्रकाशित हुआ। कवि रत्नजित का ‘भाषा व्घ्याकरण’(सं. 1770), लल्लू जी लाल का ‘मसाफिरे भाषा’ (सन् 1811)(कामता प्रसाद गुरू ने अपने हिंदी व्याकरण में लल्लूलाल के नाम से ‘कवायद हिंदी’ ग्रंथ का उल्लेख कियाहै। दोनों का रचना काल समान   है। वस्तुतः दोनों ही नाम एक ही ग्रंथ के हैं। इस व्याकरण का प्रकाशन क. मु. हिंदी तथा भाषा विज्ञान विद्यापीठ, आगरा विश्वविद्यालय द्वारा ‘ग्रंथवीथिकाखंड-। में प्रकाशित किया गया।), जेम्स रॉबर्ट  बैलंटाइन का ‘इलेमेंट्स ऑफ हिंदी एंड ब्रज भाषा ग्रामर’ (सन् 1839) , जॉन बीम्स का ‘कंम्परेटिव ग्रॉमर आफ द मॉडर्न एरियन लैग्वेजेज ऑफ इंडिया’ (तीन भागों में)(प्रथम -ध्वनि’ शीर्षक से सन् 1872, द्वितीय भाग ‘संज्ञा और सर्वनाम’ शीर्षक से सन् 1875 तथा  तृतीय भाग ‘क्रिया’शीर्षक के साथ सन् 1879 में प्रकाशित), आचार्य किशोरीदास बाजपेयी का ‘‘ब्रजभाषा व्याकरण‘‘(1943), डॉ॰ धीरेन्द्र वर्मा कृत ‘ब्रजभाषा व्याकरण’ (सन् 1954), डॉ॰ प्रेम नारायण टंडन का ‘सूर की भाषा’ (सन् 1957), डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी का ‘आगरा जिले की बोली’ (सन् 1961) आदि  ग्रंथ उल्लेखनीय हैं।  डॉ॰ कैलाशचंद्र भाटिया द्वारा ‘ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली का तुलनात्घ्मक अध्ययन’ (सन् 1962), ग्रंथ व्याकरणिक दृष्टि से महत्घ्वपूर्ण है, इसमें दोनों भाषाओं की तुलना करते हुए लगभग समस्त व्याकरण कोटियों को विश्लेषित किया गया है।

भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण एवं विेवेचन की दृष्टि से मैं डॉ॰ शिव प्रसाद सिंह का शोध ग्रंथ ‘सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य’ को महत्वपूर्ण मानता हूं क्योंकि इसमें अन्य ग्रंथों की तुलना में भाषा वैज्ञानिक तत्वों को अधिक प्रमुखता दी गई है। इस ग्रंथ का प्रकाशन सन् 1958 में  हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी से हुआ। इस ग्रंथ में न सिर्फ सूरदास से पहले प्रचलित ब्रजभाषा को खोजा गया है बल्कि भाषा वैज्ञानिक एवं व्याकरणिक विवेचन, विश्लेषण के आधार पर प्रांरभ से अवहट्ठ काल तक की  ब्रज तथा उसके बाद सूरदास तक की  विछिन्न कडि़यों को जोड़ा गया है। डॉ॰ रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल के  शोध ग्रंथ ‘बुंदेली भाषा का शास्त्रीय अध्ययन’ (सन् 1963) में बुंदेली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, डॉ॰ महावीर सरन जैन ने ‘‘बुलन्दशहर एवं खुर्जा तहसीलो की बोलियों का समकालिक अध्ययन (ब्रज भाषा एवं खड़ी बोली के संक्रमण क्षेत्र का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन) (सन् 1967) आदि बहुत अच्छे      शोध कार्य हैं। डॉ॰ चंद्रभान रावत कृत ‘मथुरा जिले की बोली’ (सन् 1967)  नामक ग्रंथ में मथुरा जिले में बोली जाने वाली ब्रज अर्थात केंद्रीय बज का भाषा विज्ञान एवं व्याकरणिक नियमों के अनुसार विश्लेषण किया गया है।

मुझे विश्वास है प्रस्तुत पुस्तक न सिर्फ ब्रजभाषा के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन में अपना स्थान बना सकेगी बल्कि शोधार्थियों के लिए भी ब्रज भाषा के भाषिक विश्लेषण, अध्ययन एवं अध्यापन की दिशा में महत्वपूर्ण कड़ी सिद्ध होगी।



(डॉ॰ विजेंद्र प्रताप सिंह)