वार्ता:न्यायिक सुधार

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न्यायिक सुधार की जरूरत सूचना क्रांति के दौर में पूरा विश्व अब ग्लोबल विलेज बन गया और भारत मंगल ग्रह की ओर कदम बढ़ा रहा है. अर्थव्यवस्था की प्रगति के आकलन के लिए ईज ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स की बात की जाती है. उसी तरह से न्यायिक व्यवस्था के मूल्यांकन के लिए भी ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2019’ ने अपनी रिपोर्ट जारी की है. रूल और लॉ की सूची में भारत 68 पायदान पर रहते हुए नेपाल और श्रीलंका से भी पीछे है. विश्व के 126 देशों में कानून और व्यवस्था के क्षेत्र में भारत का रैंक 111, सिविल न्याय में 97 और आपराधिक न्यायिक व्यवस्था में 77 है. इस रिपोर्ट से पुलिस और अदालती व्यवस्था के साथ पूरे इंफ्रास्ट्रक्चर पर अनेक सवाल खड़े हो गये हैं. एक तरह से, मूलभूत कमियों का नतीजा देखिये कि दिल्ली में पार्किंग से शुरू हुआ संघर्ष अब पुलिस और वकीलों के बीच मूंछ की लड़ाई बन गया है. निचली अदालतों में पुलिस, वकील और आम जनता के लिए आवश्यक और मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. देश में तीन करोड़ से ज्यादा लंबित मुकदमों के जल्द निपटारे के लिए जजों की संख्या बढ़ाने की बात हो रही है. हकीकत में जजों की वर्तमान स्वीकृत संख्या के अनुसार भी पदों में भर्ती नहीं हो पा रही है, क्योंकि जजों के बैठने के लिए अदालत कक्ष, स्टाफ, कंप्यूटर और आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर का बड़ा अभाव है. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में होने वाले निवेश के लाभ से हम सभी वाकिफ हैं. लेकिन, यदि देश की न्यायिक व्यवस्था में भी जरूरी निवेश किया जाये, तो नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के साथ लोकतंत्र का भी पोषण हो सकेगा. आश्चर्य नहीं कि जेलों में हिंसा और अदालतों में टकराव की अधिकांश घटनाएं हिंदी भाषी राज्यों में हो रही हैं, जो इस रिपोर्ट के अनुसार निचले पायदान पर खड़े हैं.

पारिवारिक मामलों के अलावा अनेक मुकदमों में अदालतों और पुलिस से महिलाओं का वास्ता पड़ता है. सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों के अनुसार महिलाओं के मामलों की जांच, सामान्यतया महिला पुलिस अधिकारियों द्वारा ही की जानी चाहिए. इस रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस और न्याय व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है, जो देशव्यापी चिंता का सबब होना चाहिए. देश में महिलाओं की आधी आबादी के संतुलन को बनाये रखने के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की बात होती है. संसद और विधानसभाओं में भी महिलाओं के लिए आरक्षण की खूब बात होती है, लेकिन न्यायपालिका जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर शायद ही कभी ध्यान दिया गया हो. व्यावहारिक स्तर पर देखें, तो न्यायपालिका से जुड़े पुलिस विभाग में महिलाओं की भागीदारी मात्र 7 फीसदी, जेलों में 10 फीसदी और न्यायिक जजों में 26.5 फीसदी है. राज्यों और केंद्र सरकार द्वारा प्रभावी पहल की जाये, तो इंडिया जस्टिस की यह रिपोर्ट देश के न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है. सहज, सरल और जल्द न्याय मिलना जनता का संवैधानिक अधिकार है, जो बापू की 150वीं जयंती पर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.