जैसलमेर की स्थापत्यकला

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

जैसलमेर के सांस्कृतिक इतिहास में यहाँ के स्थापत्य कला का अलग ही महत्व है। किसी भी स्थान विशेष पर पाए जाने वाले स्थापत्य से वहां रहने वालों के चिंतन, विचार, विश्वास एवं बौद्धिक कल्पनाशीलता का आभास होता है। जैसलमेर में स्थापत्य कला का क्रम राज्य की स्थापना के साथ दुर्ग निर्माण से आरंभ हुआ, जो निरंतर चलता रहा। यहां के स्थापत्य को राजकीय तथा व्यक्तिगत दोनो का सतत् प्रश्रय मिलता रहा। इस क्षेत्र के स्थापत्य की अभिव्यक्ति यहां के किलों, गढियों, राजभवनों, मंदिरों, हवेलियों, जलाशयों, छतरियों व जन-साधारण के प्रयोग में लाये जाने वाले मकानों आदि से होती है।

जैसलमेर राज्य में हर २०-३० किलोमीटर के फासले पर छोटे-छोटे दुर्ग दृष्टिगोचर होते हैं, ये दुर्ग विगत १००० वर्षो के इतिहास के मूक गवाह हैं। मध्ययुगीन इतिहास में इनका परम महत्व था। ये राजनैतिक आवश्यकतानुसार निर्मित कराए जाते थे। दुर्ग निर्माण में सुंदरता के स्थान पर मजबूती तथा सुरक्षा को ध्यान में रखा जाता था। परंतु यहां के दुर्ग मजबूती के साथ-साथ सुंदरता को भी ध्यान मं रखकर बनाया गया था। दुर्गो में एक ही मुख्य द्वारा रखने के परंपरा रही है। दुर्ग मुख्यतः पत्थरों द्वारा निर्मित हैं, परंतु किशनगढ़, शाहगढ़ आदि दुर्ग इसके अपवाद हैं। ये दुर्ग पक्की ईंटों के बने हैं। प्रत्येक दुर्ग में चार या इससे अधिक बुर्ज बनाए जाते थे। ये दुर्ग को मजबूती, सुंदरता व सामरिक महत्व प्रदान करते थे।

नगर का स्थापत्य[संपादित करें]

जैसलमेर नगर का विकास १५ वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। जब जैसलमेर दुर्ग में आवासीय कठिनाईयाँ प्रतीत हुई, तो कुछ लोगों ने किले की तलहटी में स्थायी आवास बनाकर रहना प्रारंभ कर दिया। बहुत कम ही ऐसे नगर होते हैं, जिनका अपना स्थापत्य होता है। जैसलमेर भी उनमें से एक है।

इस काल में जैसलमेर शासकों का मुगलों से संपर्क हुआ व उनके संबंध सदैव सौहार्दपूर्ण बने रहने से राज्य में शांति बनी रही। इसी कारण यहाँ पर व्यापार-वाणिज्य की गतिविधियाँ धीरे-धीरे बढ़ने लगी। महेश्वरी, ओसवाल, पालीवाल व अन्य लोग आसपास की रियासतों से यहां आकर बसने लगे व कालांतर में यहीं बस गए। इन लोगों के बसने के लिए अपनी-अपनी गोत्र के हिसाब से मौहल्ले बना लिए। आमने-सामने के मकानों से निर्मित २० से १०० मकानों के मुहल्ले, सीधी सड़क या गलियों का निमार्ण हुआ और ये गलियाँ एक दूसरे से जुड़ती चली गयीं। इस प्रकार वर्तमान नगर का निर्माण हुआ।

ये सगोत्रीय, सधर्म या व्यवसायी मौहल्ले पाड़ा या मौहल्ले कहलाते थे व इन्हें व्यावसाय के नाम से पुकारते हैं। जैसे बीसाना पाड़ा, पतुरियों का मुहल्ला तथा चूड़ीगर अलग-अलग व्यावसायियों के अलग-अलग मौहल्लों में रहने से यहाँ प्रत्येक मोहल्ले में पृथक-पृथक बाजारों का प्रादुर्भाव हुआ।

नगर के पूर्णरुपेण विकसित होने पर उसकी सुरक्षा हेतु आय भी आवश्यक प्रतीत होने लगे। फलस्वरुप महारावल अखैसिंह ने १७४० ई. के लगभग नगर के परकोटे का निर्माण करवाया, जो महारावल मूलराज द्वितीय के काल में संपन्न हुआ। इस शहर दीवार में प्रवेश हेतु चार दरवाजे हैं, जो पोल कहलाती है। इन्हें गड़ीसर पोल, अमरसागर पोल, मल्कापोल व भैरोपोल के नाम से पुकारा जाता है। ये दरवाजे मुगल स्थापत्य कला से काफी प्रभावित है। इनमें बड़ी-बड़ी नुकीली कीलों से युक्त लकड़ी के दरवाजे लगे हैं, जिनमें आपातकालीन खिड़कियाँ बनी हैं। अठारहवीं सदी के आते-आते नगर में बढ़ती हुई व्यापारिक समृद्धि के कारण व्यापारी, सामंत व प्रशासनिक वर्ग बहुत धन संपन्न हो गया। फलस्वरुप १९ वीं सदी के आरंभ तक यहां इन लोगों ने आवास हेतु बड़ी-बड़ी हवेलियों, बाड़ी मंदिर आदि का निर्माण करवाना शुरु कर दिया।

दुर्ग[संपादित करें]

जैसलमेर दुर्ग स्थापत्य कला की दृष्टि से उच्चकोटि की विशुद्ध स्थानीय दुर्ग रचना है। ये दुर्ग २५० फीट तिकोनाकार पहांी पर स्थित है। इस पहांी की लंबाई १५० फीट व चौङाई ७५० फीट है।

रावल जैसल ने अपनी स्वतंत्र राजधानी स्थापित की थी। स्थानीय स्रोतों के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण ११५६ ई. में प्रारंभ हुआ था। परंतु समकालीन साक्ष्यों के अध्ययन से पता चलता है कि इसका निर्माण कार्य ११७८ ई. के लगभग प्रारंभ हुआ था। ५ वर्ष के अल्प निर्माण कार्य के उपरांत रावल जैसल की मृत्यु हो गयी, इसके द्वारा प्रारंभ कराए गए निमार्ण कार्य को उसके उत्तराधिकारी शालीवाहन द्वारा जारी रखकर दुर्ग को मूर्त रूप दिया गया। रावल जैसल व शालीवाहन द्वारा कराए गए कार्यो का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है। मात्र ख्यातों व तवारीखों से वर्णन मिलता है।

हवेलियां[संपादित करें]

हवेलियों में मुख्यतः तीन हवेलियां प्रमुख हैं। पटुओं की हवेली, दीवान सालिमसिंह की हवेली व दीवान नाथमल की हवेली। कला की दृष्टि से पटुओं की हवेली व नाथमल की हवेली। कला की दृष्टि से पटुओं की हवेली व नाथमल हवेली स्थापत्य कला का सर्वोत्तम उदाहरण है। वहीं दीवान सालिम सिंह की हवेली अपनी विशालता व भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। ये सभी हवेलियाँ स्थानीय पीले रेतीले पत्थर से बनी है। यह पत्थर खुदाई के काम के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। इसे घिसने पर यह अत्यधिक चिकना व चमकीला हो जाता है। किसी भी हवेली के भीतर-बाहर से गुजरते हुए और विगत की परतें बिखेरते हुए लगता है, जैसे आत्म साक्ष्य हो रहा हो, किसी ने सुहाकगया पीले ओढ़ने की वेहराई आँखों की खिड़की से कहीं झांक-झांक लिया हो या स्वर्धिम धूप की आँगने की परिक्रमा लगाते हुए दपंण ने पलका-सा मार दिया हो अथवा आंखों में अमलतास उग आए हों और सूखी-पपड़ाई सी सोनल रेत में पीले पहाड़ बन गए हों।

यहाँ के लगभग सभी भवन पीले, कलात्मक झरोखों से युक्त, पीली चादर में लिपटे मनोहारी और दृष्टि बांधने वाले। भवनों की बेजोड़ शिल्पकला को देखकर दर्शक की दृष्टियाँ चकित रह जाती हैं।

मुगल सत्ता के पराभव के उपरांत सिंध, गुजरात व मालवा की ओर से कई हिंदु व मुस्लिम कलाकार यहाँ आकर बसने लगे तथा उन्होंने इन हवेलियों का निर्माण किया। किंतु यदि ये कारीगर गुजरात व मालवा की ओर से आए होते तो अपनी कला के कुछ मौलिक उदाहरण अवश्य मिलते, जो कि नहीं मिलते हैं। परंतु जैसलमेर राज्य से लगे सिंध प्रांत में स्थानीय कला के ढेरों उदाहरण प्राप्त होते हैं, जो कि सिंध नदी को पार करते हुए बलूचिस्तान की सीमा तक प्राप्त होते हैं। अतः संभव है कि यहाँ पर की गई नक्काशी के लिए कारीगर सिंध प्रांत से जैसलमेर की ओर आए होंगे। संभवतः लकड़ी के काम के लिए कलाकार मालवा व गुजरात से आए होंगे, क्योंकि ये दोनों ही प्रांत इस कार्य हेतु प्रसिद्ध हैं।

पटुओं की हवेली[संपादित करें]

छियासठ झरोखों से युक्त ये हवेलियाँ निसंदेह कला का सर्वेतम उदाहरण है। ये कुल मिलाकर पाँच हैं, जो कि एक-दूसरे से सटी हुई हैं। ये हवेलियाँ भूमि से ८-१० फीट ऊँचे चबूतरे पर बनी हुई है व जमीन से ऊपर छः मंजिल है व भूमि के अंदर एक मंजिल होने से कुल ७ मंजिली हैं। पाँचों हवेलियों के अग्रभाग बारीक नक्काशी व विविध प्रकार की कलाकृतियाँ युक्त खिंकियों, छज्जों व रेलिंग से अलंकृत है। जिसके कारण ये हवेलियाँ अत्यंत भव्य व कलात्मक दृष्टि से अत्यंत सुंदर व सुरम्य लगती है। हवेलियों में प्रवेश करने हुतु सीढियाँ चढ़कर चबूतरे तक पहुँचकर दीवान खाने (मेहराबदार बरामदा) में प्रवेश करना पड़ता है। दीवान खाने से लकंी की चौखट युक्त दरवाजे से अंदर प्रवेश करने पर प्रथम करमे को मौ प्रथम कहा जाता है। इसके बाद चौकोर चौक है, जिसके चारों ओर बरामदा व छोटे-छोटे कमरे बने हुए हैं। ये कमरे ६'x ६' से ८' के आकार के हैं, ये कमरे प्रथम तल की भांति ही ६ मंजिल तक बने हैं। सभी कमरें पत्थरों की सुंदर खानों वाली अलमारियों व आलों ये युक्त हैं, जिसमें विशिष्ट प्रकार के चूल युक्त लकंी के दरवाजे व ताला लगाने हेतु लोहे के कुंदे लगे हैं। प्रथम तल के कमरे रसोइ, भण्डारण, पानी भरने आदि के कार्य में लाए जाते थे, जबकि अन्य मंजिलें आवासीय होती थ। दीवान खानें के ऊपर मुख्य मार्ग की ओर का कमरा अपेक्षाकृत बङा है, जो सुंदर सोने की कलम की नक्काशी युक्त लकंी की सुंदर छतों से सुसज्जित है। यह कमरा मोल कहलाता है, जो विशिष्ट बैठक के रूप में प्रयुक्त होता है।

प्रवेश द्वारो, कमरों और मेडियों के दरवाजे पर सुंदर खुदाई का काम किया गया है। इन हवेलियों में सोने की कलम की वित्रकारी, हाथी दांत की सजावट आदि देखने को मिलती है। शयन कक्ष रंग बिरंगे विविध वित्रों, बेल-बूटों, पशु-पक्षियों की आकृतियों से युक्त है। हवेलियों में चूने का प्रयोग बहुत कम किया गया है। अधिकांशतः खाँचा बनाकर एक दूसरे को पिघले हुए शीशे से लोहे की पत्तियों द्वारा जोङा गया है। भवन की बाहरी व भीतरी दीवारें भी प्रस्तर खंडों की न होकर पत्थर के बंे-बंे आयताकार लगभग ३-४ इंच मोटे पाटों (स्लैब) को एक दूसरे पर खांचा देकर बनाई गई है, जो उस काल की उच्च कोटि के स्थापत्य कला का प्रदर्शन करती हैं।

पटवों की हवेलियाँ अट्ठारवीं शताब्दी से सेठ पटवों द्वारा बनवाई गई थीं। वे पटवे नहीं, पटवा की उपाधि से अलंकृत रहे। उनका सिंध-बलोचिस्तान, कोचीन एवं पश्चिम एशिया के देशों में व्यापार था और धन कमाकर वे जैसलमेर आए थे। कलाविद् एवं कलाप्रिय होने के कारण उन्होने अपनी मनोभावना को भवनों और मंदिरों के निर्माण में अभिव्यक्त किया। पटुवों की हवेलियाँ भवन निर्माण के क्षेत्र में अनूठा एवं अग्रगामी प्रयास है।

सालिम सिंह की हवेली[संपादित करें]

सालिम सिंह की हवेली छह मंजिली इमारत है, जो नीचे से संकरी और ऊपर से निकलती-सी स्थात्य कला का प्रतीक है। जहाजनुमा इस विशाल भवन आकर्षक खिंकियाँ, झरोखे तथा द्वार हैं। नक्काशी यहाँ के शिल्पियों की कलाप्रियता का खुला प्रदर्शन है। इस हवेली का निर्माण दीवान सालिम सिंह द्वारा करवाया गया, जो एक प्रभावशाली व्यक्ति था और उसका राज्य की अर्थव्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण था।

दीवान मेहता सालिम सिंह की हवेली उनके पुस्तैनी निवास के ऊपर निर्मित कराई गई थ। हवेली की सर्वोच्च मंजिल जो भूमि से लगभग ८० फीट की उँचाई पर है, मोती महल कहलाता है। कहा जाता है कि मोतीमहिल के ऊपर लकंी की दो मंजिल और भी थी, जिनमें कांच व चित्रकला का काम किया गया था। जिस कारण वे कांचमहल व रंगमहल कहलाते थे, उन्हें सालिम सिंह की मृत्यु के बाद राजकोप के कारण उतरवा दिया गया। इस हवेली की कुल क्षेत्रफल २५० x ८० फीट है। इसके चारों ओर अंतालीस झरोखे व खिंकियाँ है। इन झरोखों तथा खिंकियों पर अलग-अलग कलाकृति उत्कीर्ण हैं। इनपर बनी हुई जालियाँ पारदर्शी हैं। इन जालियों में फूल-पत्तियाँ, बेलबूटे तथा नाचते हुए मोर की आकृति उत्कीर्ण है। हवेली की भीतरी भाग में मोती-महल में जो ४-५ वीं मंजिल पर है, स्थित फव्वारा आश्चर्यजनक प्रतीत होता है। सोने की कलम से किए गए छतों व दीवारों पर चित्रकला के अवशेष आज भी उत्कृष्ट कला को प्रदर्शित करते हैं। इन प शिला पर कई जैन धर्म से संबंधित कथाएँ चिहृन, तंत्र व तीर्थकर व मंदिर आदि उत्कीर्ण है। प शिला पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार इसका निर्माण काल १५१८ विक्रम संवत् है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर भी विभित्र प्रकार की मूर्तियों का रुपांकन हुआ है। इस मंदिर के जाम क्षेत्र में काम मुद्राओं से युक्त मिथुन प्रतिमाओं का अंकन भी मिलता है। ये मूर्ति कला की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस मंदिर के ऊँचे शिखर के साथ-साथ अनेक लघु शिखर जिन्हें अंग शिखर कहा जाता है, भी चारों ओर क्रम से फैले हुए हैं। ये लघु शिखर देखने में मनोहारी प्रतीत होते हैं।

दीवान नाथमल की हवेली[संपादित करें]

जैसलमेर में दीवन मेहता नाथमल की हवेली का कोई जबाव नहीं है। यह हवेली दीवान नाथमल द्वारा बनवाई गई है तथा यह कुल पाँच मंजिली पीले पत्थर से निर्मित है। इस हवेली का निर्माण काल १८८४-८५ ई. है। हवेली में सुक्ष्म खुदाई मेहराबों से युक्त खिंकियों, घुमावदार खिंकियाँ तथा हवेली के अग्रभाग में की गई पत्थर की नक्काशी पत्थर के काम की दृष्टि से अनुपम है। इस अनुपम काया कृति के निर्माणकर्त्ता हाथी व लालू उपनाम के दो मुस्लिम कारीगर थे। ये दोनों उस समय के प्रसिद्व शिल्पकार थे। हवेली का निर्माण आधा-आधा भाग दोनों शिल्पकारों को इस शर्त के साथ बराबर सौंपा गया था कि दोनों आपस में किसी की कलाकृति की नकल नहीं करेंगे, साथ ही किसी कलाकृति की पुनरावृत्ति नहीं करेंगे। इस बात का दोनों ने पालन करते हुए इसका निर्माण पूर्ण किया। आज जब इस हवेली को दूर से देखते हैं, तो यह पूरी कलाकृति एक सी नजर आती है, परंतु यदि ध्यान से देखा जाए तो हवेली के अग्रभाग के मध्य केंद्र से दोनों ओर की कलाकृतियाँ सूक्ष्म भित्रता लिए हुए हैं, जो दो शिल्पकारों की अमर कृति दर्शाती हैं। हवेली का कार्य ऐसा संतुलित व सुक्ष्मता लिए हुए है कि लगता ही नहीं दो शिल्पकार रहें हों।

हवेली ७-८ फुट उँचे चबूतरे पर बनी है। एक चट्टान को काट कर इस भवन का निचला भाग बनाया गया है। इस चबूतरे तक पहुँचने हेतु चौडी सीढियाँ हैं व दोनों ओर दीवान खाने बने हैं। चबूतरे के छो पर एक पत्थर से निर्मित दो अलंकृत हाथियों की प्रतिमाएँ है। हवेली के विशाल द्वार से अंदर प्रवेश करने पर चौङा दालान आता है। दालान के चारों ओर विशाल बरामदे बने हैं। जिनके पीछे आवासीय कमरे बने हैं। द्वितीय तल पर संक की ओर मुख्य द्वार के ऊपर विशाल मोल बना हुआ है, जो कई प्रकार के चित्रों व त्रिकला से सुसज्जित है। इसकी छत लकंी के परंपरागत छत के स्थान पर पत्थर के छोटे-छोटे समतल टुकङों को सुंदर काआर देकर केन्द्र में सुंदर फूल बनाकर चारों ओर पंखुंयों का आभास देते हैं, को जमाकर बनाया गया है। इस विशाल कक्ष में किसी प्रकार की कमानी या बीम आदि का संबंध नहीं किया गया है। यह तत्कालीन स्थापत्य कला का उत्रत उदाहरण है। हवेली में पत्थर की खुदाई के छज्जे, छावणे, स्तंभों, मौकियों, चापों, झरोखों, कंवलों, तिबरियों पर फूल, पत्तियां, पशु-पक्षियों का बङा ही मनमोहक आकृतियां बनी हैं। कुछ नई आकृतियां जैसे स्टीम इंजन, सैनिक, साईकल, उत्कृष्ट नक्काशी युक्त घोंे, हाथी आदि उत्कीर्ण है। यहाँ तक की पानी की निकासी हेतु नालियों भी शिल्पकारों की छेनियों से अछूती नहीं रही है।

संभवनाथ मंदिर[संपादित करें]

पार्श्वनाथ मंदिर के नजदीक में स्थित इस मंदिर का स्थापत्य पार्श्वनाथ मंदिर के अनुरुप ही है। यह मंदिर अपने उत्कृष्ट नक्काशी तथा स्थापत्य की अन्य कलाओं के कारण प्रसिद्ध है।

संभवनाथ मंदिर में मंदिर का रंग मंडप की गुंबदनुमा छत स्थापत्य में दिलवाङा के जैन मंदिर के अनुरुप है। इसके मध्य भाम में झूलता हुआ कमल है, जिसके चारों ओर गोलाकार आकार में बाहर अप्सराओं की कलाकृतियाँ हैं। अप्सराओं के नीचे के हिस्से में गंद्धर्व की मूर्तियँ उत्कीर्ण है। अप्सराओं के मध्य में पदमासन् मुद्राओं में जो प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं, जिनके नीचे हंस बने हैं, गुंबद का अन्य भाग पच्चीकारी से युक्त है। इस मंदिर में कुल मिलाकर ६०४ प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से एक जौ के आकार का मंदिर है, जिसमें तिल के बराबर जैन प्रतिमा है, जो कि उस समय की उत्रत स्थापत्य कला को दर्शाता है। इस मंदिर का निर्माण सन् १३२० ई. में शिवराज महिराज एवं लखन नाम का ओसवाल जाति के व्यक्तियों ने कराया था तथा मंदिर के वास्तुकार का नाम शिवदेव था।

इस मंदिर के भू-गर्भ में दुर्लभ पुस्तकों का भंडार है, जो ता पत्र भोज पत्र, रेशम तथा हाथ के बने हुए कागज पर लिखा गया है। इस भंडार में प्रमुख रुपेण जैन धर्म साहित्य है, परंतु अन्य विषय कला, संगीत, ज्योतिष, औषधि, काम, अर्थ आदि विषयों पर भी प्रचुर मात्रा में है। इस भंडार में प्राचीनतम ग्रंथ १०६० ई. का है।

चन्द्रप्रभू मंदिर[संपादित करें]

चंद्रप्रभू मंदिर तीन मंजिला है तथा रणकपुर जैन मंदिर की तरह है। स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर १३ वीं १४ वीं शताब्दी का बना हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह पहले हिंदु मंदिर था जिसे बाद में १५ वीं शताब्दी में जैन मंदिर में तब्दील कर दिया गया। यह तथ्य मंदिर के निचले भाग की उत्कृष्ट कला को प्रदर्शित करते हैं।

भवन निर्माण में स्थापत्य की विशिष्टता जैसलमेर में हवेली तक ही सीमित नहीं है, पूरा जैसलमेर ही जालियों व झरोखों का नगर है। यहाँ ऐसा कोई मोहल्ला या गली नहीं है, जिसमें ऐसा घर हो कि किसी ने किसी प्रकार की शिल्पकला का प्रदर्शन न किया हो। मकानों के बाहरी भाग व भीतरी भाग थोंी-थोंी भित्रता लिए हुए है, किन्तु उन्हें बनाने की कला में एकरुपता है। मरुस्थल में कला के चरण कहाँ तक पहुँच गए हैं, इसका पता तब लगता है, जब कोई जैसलमेर के छोटे बाजार को पार करके पत्थर के खडंजे की गलियों में पहुँचते हैं। जहाँ दोनो ओर सुंदर विशाल हवेलियाँ झरोखों से झांक कर या खिंकियों की कनखियों से देखकर आगंतुकों का अभिवाद करती हैं।

स्थापत्य का प्रदर्शन राज्य की राजधानी तक ही सीमित नहीं रहा। राज्य के अन्य भागों में भी स्थापत्य कला का सुनियोजित रूप से विकास हुआ था। पालीवाल नामक वाणिज्य करने वाली जाति ने खाभा, काठोंी, कुलधर, बासनीपीर, जैसू राणा, हडडा आदि ग्राम बसाए थे, इनकी रचना बंे कलात्मक ढंग से की गई थी। यहाँ की इमारतें जिनमें मकान, कुँए, छतरियाँ, मंदिर, तालाब, बांध आदि स्थापत्य व कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। यद्यपि लगभग २०० वर्ष हुए, यहाँ के निवासी पालीवाल यहाँ से पलायन कर देश के अन्य भागों में बस गए व ये गाँव उज गए, किन्तु खंडहरों में बिखरा स्थापत्य कला के सौंदर्य को आज भी जीवंत रखे हुए है।

मंदिर स्थापत्य[संपादित करें]

जैसलमेर दुर्ग, नगर व आस-पास के क्षेत्र मं स्थित ऊँचे शिखरों, भव्य गुंबदों वाले जैन मंदिरों का स्थापत्य कला की दृष्टि से बङा महत्व है। जैसलमेर स्थिर जैन मंदिर में जगती, गर्भगृह, मुख्यमंडप, गूढ़मंडप, रंगमंडन, स्तंभ व शिखर आदि में गुजरात के सोलंकी व बधेल कालीन मंदिरों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।