मेवाड़ के गुहिल

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(1.)मेवाड़ के गुहिल

- नामकरण– इस वंश के प्रतापी शासक गुहिल के नाम से इस वंश का नाम गुहिल हुआ तथा बाद में यह वंश गहलोत भी कहलाया।

- गुहिल वंश की उत्पत्ति व मूल स्थान के संदर्भ में इतिहासकारों में अनेक मत प्रचलित हैं–


इतिहासकार मत

1. कर्नल जेम्स टॉड तथा श्यामलदास- गुजरात के वल्लभी से

2. डी.आर. भण्डारकर (आहड़ अभिलेख के आधार पर)- ब्राह्मण की संतान   (डॉ. गोपीनाथ शर्मा एवं मुहणोत नैणसी ने भी इस मत का समर्थन किया है।)

3. डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा व नैणसी-   सूर्यवंशी- विश्व में सर्वाधिक समय तक एक ही क्षेत्र पर राज्य करने वाला राजवंश।

-    इस वंश के महाराणा को ‘हिन्दुआ सूरज’ भी कहा जाता है।

- मेवाड़ के राज्य चिह्न पर अंकित है कि – ’जो दृढ़ राखे धर्म को, ताहि रखे करतार’।

- संस्थापक- ‘गुहिल या गुहेदत्त’

- स्थापना- लगभग 566 ई.

- मुहणोत नैणसी एवं कर्नल टॉड ने गुहिलों की 24 शाखाओं का वर्णन किया है।


* गुहिल/गुहादित्य


-डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार लगभग 566 ई. में गुहिल ने अपना शासन स्थापित किया था।

- कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार वल्लभी के राजा शिलादित्य और रानी पुष्पावती का पुत्र गुहादित्य था जिसे नागर ब्राह्मणों ने पाल पोस कर बड़ा किया।गुहा या गुफा में जन्म होने के कारण इसका नाम गुहा/गुहिल या गुहादित्य पड़ा।

इसके सिक्के आगरा से मिलें हैं।

- शिलालेखों के अनुसार गुहिल के उत्तराधिकारी- शील, अपराजित, भर्तृभट्ट, अल्लट, नरवाहन, शक्ति कुमार, विजय सिंह आदि।

- गुहिल के बाद सबसे प्रतापी शासक बप्पा रावल हुए।


*बप्पा रावल

- शासनकाल- 734 से 753 ई.

- बप्पा रावल के जन्म व माता-पिता के नामों के बारे में विद्वान एकमत नहीं है लेकिन इनका बचपन मेवाड़ के एकलिंग के पास नागदा गाँव में व्यतीत हुआ, इससे सभी विद्वान सहमत हैं।

- नागदा में गायें चराते हुए इनका सम्पर्क हारित राशि नामक ऋषि से हुआ। हारित ऋषि पाशुपत/लकुलीश संप्रदाय के साधु थे।

- हारित ऋषि ने बप्पा को मेवाड़ का शासक बनने का वरदान दिया।

- ऋषि ने बप्पा को आर्थिक सहयोग भी किया और कहा कि तुम्हारा संबोधन ‘रावल’ होगा।

- मुहणोत नैणसी एवं कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार बप्पा ने हरित ऋषि की कृपा से राज्य प्राप्त किया था।

- बप्पा ने अरब सेना से युद्ध किया। सिंध के नायाब तामीम को पराजित किया।

- बप्पा रावल ने ईरान, ईराक व खुरासान तक के प्रदेश् जीत लिए और इन्होंने वहाँ कई विवाह किए।

- इन्होंने धर्मान्तरित हुए लोगों को पुन: हिन्दू बनाया।

- अरबी ग्रंथ ‘फतुहुल बलदान’ के अनुसार – “अब भारत में पुन: मूर्ति पूजा आरंभ हो गई।“


-कुंभलगढ़ प्रशस्ति (1460 ई.) में बप्पा रावल को ‘विप्र’ कहा गया है।

-  बप्पा रावल ने ‘हिन्दुआ सूरज’ की उपाधि धारण की थी, इसलिए गुहिल वंश के सभी शासक अपने आप को ‘हिन्दुआ सूरज’ कहते थे।

-  डॉ. गौरी शंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार बप्पा का वास्तविक नाम कालभोज था एवं उसने ‘बप्पा रावल’ उपाधि धारण की थी।

- वीर विनोद के रचनाकार कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि बप्पा किसी राजा का नाम नहीं है अपितु खिताब था।

- ऐसी मान्यता है कि बप्पा चित्तौड़ के शासक मानमौरी के यहाँ सेवा में था।जब चित्तौड़ पर विदेशी आक्रमण हुआ तो उनसे मुकाबले की चुनौती बप्पा ने स्वीकार की और उन्हें सिंध तक खदेड़ दिया।

- इसलिए इतिहासकार सी. वी. वैद्य ने बप्पा को ‘चार्ल्स मार्टेल’ (फ्रांसीसी सेनापति, जिसने यूरोप में सर्वप्रथम मुसलमानों को परास्त किया था।) कहा है ।

-  राजप्रशस्ति के अनुसार बप्पा रावल ने 734 ई. में चित्तौड़ के शासक मानमौरी को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार किया और ‘मेवाड़ राज्य की स्थापना’ की।

-  बप्पा रावल ने ‘नागदा’ को अपनी राजधानी बनाई थी।

-   राजस्थान में ‘सोने के सिक्के’ सर्वप्रथम बप्पा रावल ने ही चलाए थे।

- उन्होंने ‘एकलिंग जी के मंदिर’ की स्थापना कैलाशपुरी (उदयपुर) में की व एकलिंग जी को शासक मानते हुए तथा स्वयं को उसका दीवान मानकर शासन किया।

- बप्पा रावल अपने पुत्र को राज्य सौपकर स्वयं पाशुपत संप्रदाय के साधु बन गए।

-  गुहिल वंश के कुलदेवता- एकलिंग जी

-   बप्पा के समय का 115 ग्रेन का एक सोने का सिक्का मिला है।

बप्पा रावल के स्वर्ण सिक्कों पर शिव, नंदी, त्रिशूल, दंडवत करता मनुष्य, कामधेनु आदि के चित्र बने हुए हैं।

- ‘एकलिंग प्रशस्ति’ में बप्पा रावल की दंतकथा मिलती है।

- ‘रणकपुर प्रशस्ति’ में बप्पा रावल और काल भोज को अलग-अलग बताया गया है परंतु दोनों एक ही हैं।

-  श्यामलदास के अनुसार – ‘बप्पा रावल हिन्दुस्तान का प्रतापी व पराक्रमी शासक था।‘

- बप्पा रावल का मंदिर/समाधि- नागदा


*अल्लट

- शासनकाल- 951- 953 ई.

- उपनाम (ख्यातों में)-आलू रावल

- आहड़ को राजधानी बनाया।

- आहड़ में वराह मंदिर का निर्माण करवाया।

- मेवाड़ में ‘नौकरशाही का संस्थापक’ माना जाता है।

- राष्ट्रकूटों को पराजित कर हूण राजकुमारी ‘हरिया देवी’ से विवाह किया था।


*शक्ति कुमार

- शासनकाल- 977 ई. से 993 ई.

-  इनके समय मालवा के परमार शासक मुंज ने आक्रमण किया और आहड़ को नष्ट कर दिया।अतः शक्ति कुमार ने नागदा को पुनः राजधानी बनाया।

-  परमार शासक भोज ने चित्तौड़ में ‘त्रिभुवन नारायण मंदिर’ का निर्माण करवाया था।

-  उत्तराधिकारी- अंबाप्रसाद

-  ‘पृथ्वीराज विजय’ के अनुसार चौहान राजा वाक्पतिराज द्वितीय ने अंबाप्रसाद को पराजित किया था।


*कर्णसिंह/रणसिंह

- आहोर के पर्वत पर किला बनवाया था।

- रणसिंह के 2 पुत्र थे- क्षेमकरण और राहप।

-   क्षेमसिंह ने ‘रावल शाखा’ और राहप ने ‘राणा शाखा’ को आरम्भ किया।

-   क्षेमसिंह के दो पुत्र हुए- कुमारसिंह और सामंतसिंह प्रथम - सामंतसिंह का विवाह अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज चौहान द्वितीय की बहन पृथ्वीबाई से हुआ।

- सामंतसिंह को जालोर के कीर्तिपाल चौहान ने पराजित कर मेवाड़ पर अधिकार किया था।

-   अतः सामंतसिंह ने ‘वागड़ क्षेत्र’ में (1178 ई.) गुहिल वंश की स्थापना की।इसने तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सहायता की ।

- सामंतसिंह के भाई कुमारसिंह ने कीर्तिपाल को पराजित कर मेवाड़ पर पुन: अधिकार कर लिया।

* जैत्रसिंह

- शासनकाल- 1213-1250 ई.(राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी के अनुसार)

(राजस्थान का इतिहास एवं संस्कृति कक्षा– 10 – जैत्रसिंह का शासनकाल 1213-1253 ई.)

- परमारों को पराजित कर चित्तौड़गढ़ पर अधिकार किया तथा चित्तौड़गढ़ को अपनी राजधानी बनाया।

- ‘भुताला का युद्ध’ (1227 ई.)- इल्तुतमिश की सेना को पराजित किया, जिसका उल्लेख जयसिंह सूरी के ग्रंथ ‘हम्मीर मदमर्दन’ में मिलता है।इस ग्रंथ में इल्तुतमिश को ‘हमीर’ कहा गया है।

-  ‘तारीख ए फरिश्ता’ में भी इल्तुतमिश के चित्तौड़ पर आक्रमण का जिक्र मिलता है।

- 1248 ई. में नसीरुद्दीन महमूद को पराजित किया था।

-   जैत्रसिंह के सेनापति बालाक व मदन थे।

- चीरवा अभिलेख के अनुसार– ‘जैत्रसिंह इतना शक्तिशाली था कि मालवा, गुजरात, मारवाड़ तथा दिल्ली के शासक भी उसे पराजित नहीं कर सके।

‘- डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने जैत्रसिंह की प्रशंसा में लिखा कि “दिल्ली के गुलाम वंश के सुल्तानों के समय में मेवाड़ के राजाओं में सबसे प्रतापी और बलवान राजा जैत्रसिंह ही हुआ, जिसकी वीरता की प्रशंसा उसके विरोधियों ने भी की है।”

-  उपाधियाँ –

1. ‘रण रसिक’ (जी. एच. ओझा द्वारा प्रदत्त)

2. ‘मेवाड़ की नव शक्ति का संचारक’ (डॉ. दशरथ शर्मा)


*तेजसिंह

- शासनकाल- 1250 ई.- 1273 ई.

-  1260 ई. में कमलचंद्र द्वारा ‘श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी’ (मेवाड़ का प्रथम चित्रित ग्रंथ) की रचना की गई।

- बलबन का मेवाड़ पर असफल आक्रमण हुआ।

-  तेजसिंह की रानी जेतल देवी ने चित्तौड़ में ‘श्याम पार्श्वनाथ मंदिर’ का निर्माण करवाया।

तेजसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रतनसिंह (1273 –1302 ई.) मेवाड़ का शासक बना ।

-   उपाधियाँ

 1. उमापतिवार लब्ध प्रौढ़प्रताप

2. परमभट्ठारक

3. महाराजाधिराज

4. परमेश्वर

* रावल रतनसिंह

-   शासनकाल- 1302 ई.- 1303 ई.

-   सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की राजकुमारी पद्मिनी से विवाह किया।

-   हिरामन तोते के द्वारा रतन सिंह को पद्मिनी के सौंदर्य की जानकारी दी गई थी।

● अलाउद्दीन खिलजी का चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण –

- रावल रतनसिंह को 1303 ई. में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का सामना करना पड़ा जिसका कारण अलाउद्दीन की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा व चित्तौड़ की सैनिक एवं व्यापारिक उपयोगिता थी।

- मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा 1540 ई. में लिखित ‘पद्मावत’ ग्रंथ में युद्ध का कारण पद्मिनी को प्राप्त करना बताया गया है।  डॉ. दशरथ शर्मा जायसी के मत को मान्यता प्रदान करते हैं।

- इस युद्ध में इतिहासकार अमीर खुसरो भी सम्मिलित हुआ था। उसने अपने ग्रंथ ‘खजाइन-उल-फुतुह’ में इस आक्रमण का वर्णन किया है।

-  तांत्रिक ‘राघव चेतन’ ने अलाउद्दीन को पद्मिनी के सौंदर्य की जानकारी दी थी।

-   28 जनवरी, 1303 को अलाउद्दीन दिल्ली से चित्तौड़ के लिए ससैन्य रवाना हुआ।

- 26 अगस्त, 1303 को चित्तौड़ पर अधिकार किया।

- इस समय ‘चित्तौड़ का प्रथम और राजस्थान का दूसरा साका’ हुआ।

- केसरिया का नेतृत्व-  रावल रतन सिंह  जौहर- रानी पद्मिनी ने 1600 महिलाओं के साथ किया।

-   अलाउद्दीन ने अपने पुत्र ‘खिज्र खाँ’ को चित्तौड़ का प्रशासक नियुक्त किया।

- चित्तौड़ का नाम बदलकर ‘खिज्राबाद’ कर दिया।

-   इस संघर्ष में दो मेवाड़ी सरदार ‘गोरा और बादल’ वीरगति को प्राप्त हुए । गोरा और बादल क्रमशः पद्मिनी के काका व भाई थे।

-  अलाउद्दीन की 1316 ई. में मृत्यु के बाद 1316 ई. से 1326 ई. तक जालोर का ‘मालदेव सोनगरा’ चित्तौड़ का प्रशासक रहा।

-  अलाउद्दीन द्वारा चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करने के बाद 30,000 से अधिक आम नागरिकों का कत्लेआम किया गया जिसका उल्लेख अमीर खुसरो ने किया है।

-   युद्ध में विजय के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ की तलहटी में एक मकबरा बनवाया जिसमें 1310 ई. का फारसी भाषा का शिलालेख लगा है। इसमें खिलजी को ‘उस समय का सूर्य, ईश्वर की छाया और संसार का रक्षक’ कहा गया है।

- रतनसिंह मेवाड़ के गुहिल वंश की रावल शाखा का अंतिम शासक था।


* राणा हम्मीर

: शासनकाल- 1326 ई. से 1364 ई.

-   सिसोदा ठिकाने का जागीरदार

- पिता- अरिसिंह

-  राणा अथवा सिसोदिया शाखा का प्रथम शासक।

- सिसोदा ठिकाने के जागीरदार हम्मीर ने 1326 ई. में चित्तौड़ पर अधिकार कर गुहिल वंश की पुन: स्थापना की।सिसोदा का जागीरदार होने के कारण इनको सिसोदिया कहा गया है तथा गुहिल वंश सिसोदिया वंश के नाम से जाना जाने लगा।

- हम्मीर राणा शाखा का राजपूत था इसलिए इसके बाद मेवाड़ के सभी शासक राणा/महाराणा कहलाए।

- हम्मीर के दादा लक्ष्मणसिंह अपने पुत्रों के साथ अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

- उपाधि-

1. मेवाड़ का उद्धारक

2. विषमघाटी पंचानन (कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति व कुंभलगढ़ प्रशस्ति में)

-  सिंगोली का युद्ध (बाँसवाड़ा)- दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक को पराजित किया।

- चित्तौड़ में अन्नपूर्णा माता के मन्दिर का निर्माण करवाया।


* महाराणा खेता/क्षेत्रसिंह

- शासनकाल- 1364 ई.- 1382 ई.

-  मालवा के शासक दिलावर खाँ गौरी को पराजित किया।

- इसके समय ‘मेवाड़- मालवा संघर्ष’ का आरंभ हुआ था।

-   खेता ने अजमेर, जहाजपुर, मांडल तथा छप्पन के क्षेत्रों को अपने राज्य मे मिला लिया था।


*महाराणा लाखा/लक्षसिंह

- शासनकाल- 1382 ई. – 1421ई.

-  हम्मीर का पौत्र व खेता का पुत्र।

-  बूँदी के राव बरसिंह हाड़ा को मेवाड़ का प्रभुत्व स्वीकार करने हेतु विवश किया।

-‘जावर’ में जस्ते व चाँदी की खानों का पता लगाया गया।

- राणा लाखा के समय में पिच्छू नामक चिड़ीमार बंजारे द्वारा ‘पिछोला झील’ (उदयपुर) का निर्माण करवाया गया।

-   मारवाड़ के राव चूड़ा राठौड़ की पुत्री हंसा बाई (रणमल की बहन) का विवाह लाखा के पुत्र चूण्डा के साथ होना था, मगर परिस्थितियों वश हंसाबाई का विवाह राणा लाखा के साथ हुआ।

- राणा लाखा व हंसा बाई के विवाह की यह शर्त थी कि हंसा बाई का पुत्र ही लाखा का उत्तराधिकारी होगा। अत: लाखा के ज्येष्ठ पुत्र चूण्डा को राज्याधिकार से वंचित होना पड़ा।

-  कुंवर चूंडा को अपने इसी त्याग के कारण ‘मेवाड़ का भीष्म पितामह’ कहा जाता है।

-  दरबारी विद्वान- झोटिंग भट्ट व धनेश्वर भट्ट

- राणा लाखा के साथ बूँदी के नकली दुर्ग की कथा जुड़ी हुई है जिसकी रक्षा के लिए कुम्भा हाड़ा ने बलिदान किया था।


*महाराणा मोकल

- शासनकाल- 1421 ई.- 1433 ई

.- महाराणा लक्षसिंह व हंसाबाई का पुत्र।

- मोकल अल्पायु में शासक बने तो राव चूण्डा ने इसके संरक्षक के रूप में कार्य किया।हंसा बाई द्वारा चूण्डा पर संदेह करने के कारण चूण्डा माण्डू चले गए।

- त्रिभुवन नारायण मंदिर/समिद्धेश्वर मंदिर- परमार शासक भोज द्वारा निर्मित।

मोकल द्वारा जीर्णोद्धार करवाया गया इसलिए इस मंदिर को मोकल मंदिर भी कहा जाता है।

-   ‘एकलिंग जी के परकोटे’ का निर्माण करवाया ।

-  ‘रामपुरा का युद्ध’ (भीलवाड़ा), 1428 ई.- नागौर अहमदशाह के फिरोज खाँ को पराजित किया।

- जिलवाड़ा का युद्ध, 1433 ई.- गुजरात के शासक को पराजित किया।

-  1433 ई. में मेवाड़ी सरदार चाचा व मेरा ने महपा पँवार के साथ मिलकर जिलवाड़ा में ही मोकल की हत्या कर दी।

*महाराणा कुम्भा

- शासनकाल- 1433 ई.- 1468 ई.

-  मोकल व रानी सौभाग्यवती का पुत्र।

- राणा कुम्भा के शासन की जानकारी ‘एकलिंगमहात्म्य’, ’रसिकप्रिया’ व ’कुम्भलगढ़ प्रशस्ति’ से मिलती हैं।

- शासक बनते ही कुंभा ने मेवाड़ से राठौड़ों का प्रभाव समाप्त किया तथा चित्तौड़गढ़ एवं कुम्भलगढ़ को अपनी शक्ति का केन्द्र बनाया।

- कुम्भा की उपाधियों का उल्लेख- ‘कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति’ में।

कुम्भा की प्रमुख उपाधियाँ  :-

1. अभिनव भरताचार्य (संगीत का ज्ञान होने के कारण)

2. हिंदू सुरताण (हिंदुओं का प्रमुख शासक होने के कारण)

3. छाप गुरु (छापामार युद्ध पद्धति के कारण)

4. हाल गुरु (पहाड़ी दुर्गों का निर्माता होने के कारण)

5. राणो रासो (साहित्यकारों को आश्रय देने के कारण)

6. टोडरमल (संगीत की 3 विधाओं में पारंगत होने के कारण)

7. नाटकराज कर्ता (4 नाटक लिखने के कारण)

8. चाप गुरु (शस्त्र विद्या में पारंगत होने के कारण)

अन्य उपाधियाँ - 

- राणा राय, राजगुरु, दान गुरु, शैल गुरु, नरपति, अश्वपति, गजपति आदि।


* कुम्भा के प्रमुख निर्माण कार्य –

- श्यामलदास द्वारा लिखित ‘वीर विनोद’ के अनुसार कुंभा ने मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्गों का निर्माण करवाया ।

●  प्रमुख दुर्ग- कुंभलगढ़, बसंती दुर्ग, भोमट दुर्ग, मचान दुर्ग, अचलगढ़ दुर्ग इत्यादि।

- कुंभलगढ़ दुर्ग –

-  शिल्पी – मंडन  -

इस दुर्ग में लघु दुर्ग कटारगढ़ को ‘मेवाड़ की आँख’ कहा जाता है जो कुंभा का निवास था।

- अबुल फजल के अनुसार यह दुर्ग इतनी बुलंदी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती ।


प्रमुख मंदिर

1. कुंभ श्याम मंदिर- यह मंदिर चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़ और अचलगढ़ तीनों दुर्गों में स्थापित है।

2. विष्णु मंदिर, एकलिंगजी

3. कुशाल माता मंदिर (बदनोर)

4. रणकपुर जैन मंदिर- कुंभा के समय 1439 ई. में मथाई नदी के किनारे धरणकशाह द्वारा निर्मित।

5. शृंगार चँवरी मंदिर


● कुम्भा के प्रमुख दरबारी विद्वान

1. मंडन   ̶   मंडन ने देव मूर्ति प्रकरण, प्रासाद मंडन, राजवल्लभ, रूप मंडन, वास्तु मंडन, वास्तु शास्त्र, कोदंड मंडन (धनुर्विद्या से संबंधित) आदि प्रमुख ग्रंथों की रचना की।

2. नाथा   ̶   यह मंडन का भाई था। इसने ‘वास्तु मंजरी’ ग्रंथ की रचना की थी।

3. गोविंद   ̶   यह मंडन का पुत्र था। इसकी प्रमुख रचनाएँ थी उद्धार धोरिणी, द्वार दीपिका, कलानिधि।

● अन्य विद्वान   ̶   मुनि सुंदर सूरी, टिल्ला भट्ट, जय शेखर, भुवन कीर्ति, सोम सुंदर, जयचंद्र सूरी, सोमदेव आदि।


● कुम्भा की प्रमुख रचनाएँ   ̶

1. संगीत राज (5 भाग)

2. संगीत मीमांसा

3. सूड़ प्रबंध

4. संगीत रत्नाकर की टीका

5. चंडी शतक की टीका

6. गीत गोविंद की टीका – रसिकप्रिया

: कुंभा कालीन प्रमुख राजनीतिक घटनाएँ   ̶

- सारंगपुर युद्ध (1437 ई.) – कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को पराजित कर बंदी बनाया। 6 माह की कैद के बाद उसे रिहा कर दिया।

- इस विजय के उपलक्ष्य में चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजय स्तंभ का निर्माण करवाया।

-  कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति की रचना कवि अत्रि द्वारा तथा बाद में महेश द्वारा पूरी की गई ।

-  1453 ई. में कुंभा ने मारवाड़ से मण्डोर छीन लिया।


आवल-बावल की संधि (1453 ई.)- जोधा व कुंभा के बीच हुई जिसमें सोजत को मेवाड़ और मारवाड़ के मध्य की सीमा मान लिया गया।

- इस संधि को करवाने में हंसाबाई की प्रमुख भूमिका थी।

- इस संधि के द्वारा दोनों राज्यों में वैवाहिक संबंध (रायमल-शृंगारदेवी) भी स्थापित हो गए।

● नागौर पर अधिकार- नागौर के शासक शम्स खाँ को पराजित किया।

● चंपानेर की संधि (1456 ई.)- मालवा शासक महमूद खिलजी प्रथम और गुजरात शासक कुतुबुद्दीन के मध्य राणा कुंभा के विरुद्ध हुई। लेकिन दोनों मिलकर भी राणा कुंभा को पराजित नहीं कर सके।

● सिरोही के शासक सहसमल के समय सिरोही पर आक्रमण कर आबू पर अधिकार कायम कर लिया।

-  कुंभा अंतिम समय में उन्माद रोग से ग्रसित हो गया था।

-  कुम्भा के पुत्र उदयकरण (उदा) ने ही मामादेव कुंड (कटारगढ़)  के पास 1468 ई. में कुम्भा की हत्या की।

- राणा कुंभा स्वयं एक उच्च कोटि का विद्वान एवं विद्यानुरागी था।कान्ह व्यास द्वारा रचित एकलिंग महात्म्य के अनुसार कुंभा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण व राजनीति में रूचि रखता था।

-  कुम्भा की मृत्यु के बाद उदा मेवाड़ का शासक बना।

-  मेवाड़ का पितृहन्ता शासक- उदा -  दाड़िमपुर का युद्ध- उदा व उदा के भाई रायमल के मध्य हुआ जिसमें उदा पराजित हुआ था।

-  दाड़िमपुर के युद्ध के बाद उदा मालवा की ओर चला गया जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।


*महाराणा रायमल

- शासनकाल- 1468 ई. से 1509 ई.-

- पृथ्वीराज, जयमल और सांगा उसके पुत्र थे।

-    इसकी बेटी आनंदा बाई का विवाह सिरोही के जगमाल के साथ हुआ।

-  पृथ्वीराज का विवाह टोडा के राव सुरताण की पुत्री ‘तारा’ के साथ हुआ।

- पृथ्वीराज ने तारा के नाम पर अजमेर के किले का नाम तारागढ़ रखा।

- पृथ्वीराज को ‘उड़ना राजकुमार’ के नाम से भी जाना जाता है। इसकी हत्या इसके बहनोई, जगमाल ने विष पिलाकर की थी।

-   जयमल के दुर्व्यवहार के कारण राव सुरताण ने इसकी हत्या की थी।

-  उत्तराधिकार संघर्ष में पराजित सांगा ने अजमेर के ‘करमचंद पंवार’ के पास शरण ली।

-   खेती को प्रोत्साहित करने के लिए ‘राम और शंकर’ नामक तालाबों का निर्माण करवाया।

- चित्तौड़ में अद्भुतजी के मन्दिर का निर्माण करवाया।

- रायमल की पत्नी शृंगार देवी ने घोसूण्डी की बावड़ी (चित्तौड़) का निर्माण करवाया था।


*महाराणा सांगा

- शासनकाल – 1509-1528 ई.

- सांगा व उनके तीन भाइयों – पृथ्वीराज, जयमल व राजसिंह के मध्य हुए उत्तराधिकारी संघर्ष में सांगा विजयी रहे तथा 1509 ई. में मेवाड़ के शासक बने।

- उपाधियाँ –

1.  हिन्दूपत

2. सैनिक भग्नावशेष (कर्नल जेम्स टॉड द्वारा प्रदत्त)

- सांगा के समकालीन दिल्ली के शासक--

1. सिकंदर लोदी

2. इब्राहिम लोदी

3. बाबर

- सांगा के समकालीन मालवा के शासक  ̶ 

1. नासिरुद्दीन खिलजी

2. महमूद खिलजी-द्वितीय

-   सांगा के समकालीन गुजरात के शासक   ̶ 

1. महमूद बेगड़ा

2. मुजफ्फर शाह द्वितीय

●  सांगा के शासन काल में प्रमुख युद्ध:–

- सांगा के शासक बनने के समय मालवा में सुल्तान नासिरुद्दीन शासन कर रहा था।

- 1511 ई. में नासिरुद्दीन की मृत्यु के बाद मेदिनीराय की सहायता से महमूद खिलजी द्वितीय मालवा का शासक बना।मालवा के अमीरों ने गुजरात की सहायता से मेदिनीराय को वहाँ से भगा दिया तो वह राणा सांगा की शरण में आ गया।

- अंतत: मालवा-मेवाड़ के मध्य युद्ध हुआ।महमूद खिलजी द्वितीय पराजित हुआ तथा सांगा ने उसे बंदी बना लिया।

- ईडर के उत्तराधिकारी संघर्ष, नागौर पर प्रभाव स्थापित करने तथा मालवा को सहयोग करने आदि कारणों से राणा सांगा तथा गुजरात के शासक मुजफ्फर के मध्य संघर्ष हुआ लेकिन अंतिम रूप से सफलता किसी को भी नहीं मिली।

- खातौली का युद्ध (1517 ई. कोटा)̶   सांगा ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया था।युद्ध में इब्राहिम लोदी ने खुद भाग लिया था।

- बांडी/बाड़ी का युद्ध (1518 ई. धौलपुर)-   सांगा ने पुनः इब्राहिम लोदी को पराजित किया। इससे राणा उत्तर भारत का शक्तिशाली शासक बन गया। लोदी की सेना का नेतृत्व  मियां हुसैन और मियां माखन ने किया।

- गागरोन का युद्ध (1519 ई. झालावाड़)  ̶   सांगा ने महमूद खिलजी-द्वितीय मालवा को पराजित किया था।

- सांगा ने गुजरात के महमूद बेगड़ा को पराजित किया।

- 1520 में सांगा ने गुजरात के बादशाह को पराजित किया।

- 1526 ई. में पानीपत के युद्ध में बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित कर आगरा पर अधिकार कर लिया।

- बाबर ने सांगा पर विश्वासघात का आरोप लगाया।बाबर के अनुसार सांगा ने इब्राहिम लोदी के विरुद्ध युद्ध में सहयोग करने का वादा किया था लेकिन राणा ने कोई मदद नहीं की, मगर इस आरोप की पुष्टि नहीं होती है।

- चूँकि दोनों शासक शक्तिशाली तथा महत्त्वाकांक्षी थे।अत: दोनों के मध्य युद्ध अवश्यसम्भावी था।

- बयाना का युद्ध (16 फरवरी, 1527 भरतपुर)   ̶  सांगा ने बाबर की सेना को पराजित किया।


● खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527) ̶   बाबर ने  तोपखाने एवं तुलुगमा युद्ध पद्धति का प्रयोग कर सांगा को पराजित किया था। खानवा, भरतपुर की रूपवास तहसील में स्थित है।

- खानवा युद्ध से पूर्व घटित प्रमुख घटनाएँ ̶

1. काबुल के ज्योतिषी मोहम्मद शरीफ ने बाबर के पराजय की भविष्यवाणी की थी।

2. बाबर ने सेना के सामने जोशीला भाषण दिया था।

3. बाबर ने इस युद्ध को जिहाद (धर्म युद्ध) घोषित  किया था।

4. बाबर ने मुस्लिम व्यापारियों पर लगने वाला तमगा चुंगी कर हटाया था।

- बाबर के तोपखाने के अध्यक्ष   ̶  मुस्तफा कमाल और उस्ताद अली।

- युद्ध में बाबर ने ‘तुलुगमा युद्ध पद्धति’ और तोपखाने का प्रयोग किया था।

-  ‘पाती परवण‘ प्रथा- एक प्राचीन पद्धति, जिसके अंतर्गत हिंदू शासकों को युद्ध में आमंत्रित किया जाता था। इस युद्ध से पूर्व सांगा ने इस प्रथा को पुनर्जीवित किया।

- खानवा युद्ध में भाग लेने वाले प्रमुख हिंदू शासक-

1. बीकानेर के राजा जैतसी ने अपने पुत्र कल्याणमल को भेजा।

2. मारवाड़ के राव गांगा ने अपने पुत्र मालदेव को भेजा।

3. ईडर- भारमल

4. मेड़ता- वीरमदेव

5. चंदेरी (मध्यप्रदेश)- मेदिनीराय

6. जगनेर- अशोक परमार

7. आमेर- पृथ्वीसिंह कच्छवाहा

8. वागड़- उदयसिंह

9. गोगुंदा- झाला सज्जा

10. सादड़ी- झाला अज्जा

11. बूँदी- नारायण राव

सांगा के पक्ष में भाग लेने वाले मुस्लिम सेनानायक:–

1. मेवात- हसन खाँ मेवाती

2. महमूद लोदी (इब्राहिम लोदी का छोटा भाई)

-   बाबर की सेना का नेतृत्व- ‘हुमायूँ और मेहंदी ख्वाजा’

- युद्ध में घायल सांगा को युद्ध भूमि से दूर ले जाया गया।

-  ‘झाला अज्जा’ (काठियावाड़) ने युद्ध में सांगा के युद्ध भूमि छोड़ने पर राजचिह्न धारण किया था।

-  राव मालदेव घायल सांगा को ‘बसवा’(दौसा) लेकर गए। प्राथमिक उपचार के बाद यहाँ से सांगा को रणथम्भौर ले जाया गया।

-  चंदेरी का युद्ध (1528 ई.) में भाग लेने के लिए जा रहे सांगा को मेवाड़ी सरदारों ने कालपी (उ.प्र.) स्थान पर विष दे दिया।

- मृत्यु- 30 जनवरी, 1528 को बसवा (दौसा) में हुई जहाँ पर ‘सांगा का स्मारक/चबूतरा’ बना है।

- सांगा का अंतिम संस्कार मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में किया गया, जहाँ सांगा की ‘8 खंभों की छतरी’ का निर्माण अशोक परमार द्वारा करवाया गया ।-

सांगा के बड़े पुत्र भोजराज का विवाह मेड़ता के रतनसिंह की पुत्री मीराबाई से हुआ।

-  सांगा के अन्य पुत्र – रतन सिंह-द्वितीय, विक्रमादित्य, उदय सिंह थे।

- बाबर ने सांगा के बारे में लिखा है – ‘सांगा ने अपने देश की रक्षा में एक आँख, एक हाथ और एक पैर खो दिया।’

- कर्नल टॉड के अनुसार 7 उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव व 104 सरदार सदैव सांगा की सेवा में उपस्थित रहते थे।

- हरविलास शारदा ने लिखा है कि- “मेवाड़ के महाराणाओं में सांगा सर्वाधिक प्रतापी शासक हुए। उन्होंने अपने पुरुषार्थ के द्वारा मेवाड़ को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया।”


*महाराणा रतनसिंह

- शासनकाल- 1528 ई. से 1531 ई.

-  यह महाराणा सांगा की रानी धनबाई का पुत्र था।

- बूँदी के सूरजमल हाड़ा के साथ ‘अहेरिया उत्सव’ के दौरान युद्ध करते हुए मारा गया था।


* महाराणा विक्रमादित्य

- शासनकाल- 1531 ई. से 1536 ई.

- यह महाराणा सांगा की हाड़ी रानी कर्णावती का पुत्र था। इनकी संरक्षिका कर्णावती थी।

-   विक्रमादित्य के समय मालवा और गुजरात के मुस्लिम शासक ’बहादुर शाह प्रथम’ ने चित्तौड़ पर 2 बार आक्रमण किया (1533 ई. तथा 1534 ई.)-   1534 ई. के दूसरे आक्रमण से पूर्व कर्णावती ने हुमायूँ को सहायता प्राप्त करने हेतु राखी भेजी थी परंतु हुमायूँ ने समय पर सहायता नहीं की। अतः बहादुर शाह के लंबे घेरे के बाद 1535 ई. में चित्तौड़ का पतन हुआ। इस समय चित्तौड़गढ़ का ‘दूसरा साका’ हुआ जिसमें जौहर का नेतृत्व कर्णावती ने तथा केसरिया का नेतृत्व ‘रावत बाघसिंह’ ने किया।

-  विक्रमादित्य ने मीराबाई को दो बार मारने का असफल प्रयास किया। मीरा वृंदावन चली गई, जहाँ ‘रविदास’ को उन्होंने अपना गुरु बनाया।

-   विक्रमादित्य की हत्या (1536 ई. में) दासी पुत्र बनवीर ने की थी। यह कुंवर पृथ्वीराज की दासी ’पुतल दे’ का पुत्र था।

-   बनवीर ने उदय सिंह को भी मारने का प्रयास किया परंतु पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन की बलि देकर उदयसिंह की रक्षा की। कीरत बारी (पत्तल उठाने वाला) की सहायता से उदय सिंह को कुंभलगढ़ दुर्ग में पहुँचाया गया। इस समय कुंभलगढ़ दुर्ग का किलेदार ‘आशा देवपुरा’ था।


* बनवीर

- विक्रमादित्य की हत्या कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया।

- चित्तौड़ में ‘नौलखा महल और तुलजा भवानी का मंदिर’ बनवाया।

- राव मालदेव की सहायता से उदयसिंह ने बनवीर को मारकर चित्तौड़ पर अधिकार किया।

* महाराणा उदयसिंह

- शासनकाल- 1537 ई. – 1572 ई.

- राणा सांगा व रानी कर्मावती का ज्येष्ठ पुत्र।

- पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर बनवीर से सुरक्षित रखने के लिए उदयसिंह को कीरतबारी की सहायता से कुंभलगढ़ दुर्ग के आशादेवपुरा के पास पहुँचाया।

- 1537 ई. में राव मालदेव के सहयोग से कुंभलगढ़ दुर्ग में उदयसिंह का राज्याभिषेक किया गया।

- 1543 ई. में अफगान शासक शेरशाह सूरी को चित्तौड़ दुर्ग की चाबियाँ सौंपकर उसका प्रभुत्व स्वीकार कर लिया।

- शेरशाह ने अपना राजनीतिक प्रभाव बनाए रखने के लिए ख्वास खाँ को चितौड़ में रखा।

- अफगानों की अधीनता स्वीकार करने वाला मेवाड़ का पहला शासक।

- हरमाड़ा का युद्ध- 1557 में रंगराय वैश्या के कारण उदयसिंह व अजमेर के हाकीम हाजी खाँ के मध्य हुआ।

- 1559 ई. में उदयसिंह ने ‘उदयपुर’ नगर की स्थापना कर इसे अपनी राजधानी बनाया। यहाँ उसने ‘उदयसागर झील’ व मोती मगरी के महलों का निर्माण करवाया।

- अकबर ने 1567 ई. में चित्तौड़ अभियान शुरू किया क्योंकि उदयसिंह ने मालवा के बाज बहादुर व मेड़ता के जयमल को शरण दी थी।

-अकबर का चित्तौड़ आक्रमण (1567 – 68 ई.)  

̶- अक्टूबर, 1567 में अकबर द्वारा मेवाड़ पर आक्रमण करने पर सामंतों की सलाह पर उदयसिंह किले की रक्षा का भार अपने सेनानायकों जयमल और फत्ता को सौंपकर गिरवा की पहाड़ियों (उदयपुर) में चले गए।

- चित्तौड़ के किले की दीवार की मरम्मत करते समय जयमल, अकबर की ‘संग्राम’ नामक बंदूक की गोली से घायल हो गया था।

- जयमल ने कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठकर युद्ध किया।

- जयमल राठौड़ व फत्ता सिसोदिया लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए व फत्ता की पत्नी रानी फूल कंवर के नेतृत्व में जौहर हुआ जो चित्तौड़ का तीसरा साका था।

- फरवरी, 1568 में अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर अधिकार कर लिया।

- अकबर ने जयमल व फत्ता की वीरता से प्रभावित होकर आगरा के दुर्ग के बाहर इन दोनों वीरों की पत्थर की गजारूढ़ मूर्तियाँ लगवाई ।

- उनकी मूर्तियाँ जूनागढ़ दुर्ग (बीकानेर) के बाहर भी स्थित हैं।

- 28 फरवरी, 1572 को होली के दिन गोगुन्दा (उदयपुर) में उदयसिंह की मृत्यु हो गई थी।

- कर्नल टॉड के अनुसार – “यदि सांगा व प्रताप के बीच में उदयसिंह न होता तो मेवाड़ के इतिहास के पन्ने अधिक उज्ज्वल होते।“


* महाराणा प्रताप

- जन्म- 9 मई, 1540 (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, विक्रम संवत् 1597, रविवार)

- जन्म स्थान- बादल महल (कटारगढ़) कुंभलगढ़ दुर्ग

- पिता – महाराणा उदयसिंह- माता – जयवंता बाई (पाली नरेश अखैराज सोनगरा की पुत्री)

- विवाह – 1557 ई. को अजबदे पँवार के साथ हुआ।

- रानियाँ – पटरानी अजबदे (रामरख पंवार की पुत्री) फूलकंवर (मालदेव के ज्येष्ठ पुत्र राम की पुत्री)

- पुत्र- अमरसिंह- शासनकाल – 1572-1597 ई.

- उपनाम-

1. ‘कीका’ (मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेशों में)

2. मेवाड़ केसरी

3. हिन्दुआ सूरज

- राजमहल की क्रांति  ̶  उदयसिंह ने जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था लेकिन मेवाड़ के सामन्तों ने जगमाल को हटाकर राणा प्रताप को शासक बनाया, यह घटना ‘राजमहल की क्रांति’ कहलाती है।

- प्रथम राज्याभिषेक   ̶   28 फरवरी, 1572 को महादेव बावड़ी (गोगुन्दा)

- विधिवत् राज्याभिषेक- कुंभलगढ़ दुर्ग में  मारवाड़ के राव चन्द्रसेन सम्मिलित हुए।

- प्रताप का घोड़ा – चेतक

- हाथी – रामप्रसाद  व लूणा

- मुगलों से संघर्ष के लिए राणा प्रताप ने वीर सामंतों तथा भीलों को एकजुट किया और उन्हें सैन्य व्यवस्था में उच्च पद देकर उनके सम्मान को बढ़ाया।

- गोपनीय तरीके से युद्ध का प्रबंध करने के लिए प्रताप ने अपना निवास स्थान गोगुन्दा से कुंभलगढ़ स्थानान्तरित कर दिया।

- अकबर द्वारा राणा प्रताप के पास भेजे गए 4 संधि प्रस्तावक/शिष्ट मण्डल

-1. जलाल खाँ कोरची – नवम्बर, 1572

2. मानसिंह – जून, 1573

3. भगवन्तदास – अक्टूबर, 1573

4. टोडरमल – दिसम्बर, 1573

- सदाशिव कृत ‘राजरत्नाकर’ एवं रणछोड़ भट्ट कृत ‘अमरकाव्यम् वंशावली’ के अनुसार प्रताप ने मानसिंह का स्वागत व सत्कार उदयसागर झील के किनारे किया था।


● हल्दीघाटी का युद्ध (राजसमन्द)    ̶   18 जून, 1576

- जी.एन. शर्मा के अनुसार, हल्दीघाटी का युद्ध 21 जून, 1576 को हुआ था।

- वर्ष 1576 की शुरुआत में अकबर मेवाड़ पर आक्रमण की तैयारी हेतु अजमेर आया और यहीं पर मानसिंह को इस युद्ध का नेतृत्व सौंपा।

- अकबर ने युद्ध की व्यूह रचना मैगजीन दुर्ग में रची थी।

- मुगल सेना का प्रधान सेनानायक – मिर्जा मानसिंह (आमेर) सहयोगी सेनानायक- आसफ खाँ- मानसिंह ने पहले माण्डलगढ़ तथा फिर मोलेला गाँव (राजसमन्द) में पड़ाव डाला।

- राणा प्रताप ने युद्ध की योजना कुम्भलगढ़ दुर्ग में बनाई और अपनी सेना का पड़ाव लोसिंग गाँव (राजसमन्द) में डाला।

- राणा प्रताप की हरावल सेना का नेतृत्व- हकीम खाँ सूर  चंदावल सेना का नेतृत्व- राणा पूंजा

- मुगल सेना के हरावल भाग का नेतृत्व- सैय्यद हाशिम

- मुगल पक्ष – मुहम्मद बदख्शी रफी, राजा जगन्नाथ और आसफ खाँ

- प्रताप पक्ष – रामशाह तँवर (ग्वालियर), झाला मानसिंह, झाला बीदा, मानसिंह सोनगरा, जयमल मेहता, पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास, चारण जैसा, पुरोहित जगन्नाथ, चूंडावत कृष्णदास (सलूम्बर), हकीम खाँ सूर, भीमसिंह डोडिया,  (सरदारगढ़), रावत सांगा (देवगढ़), रावत किशनदास, रामदास मेड़तिया, राणा पूँजा और भामाशाह।

- इतिहासकार बदायूँनी युद्ध में मुगल सेना के साथ उपस्थित था।

- 18 जून, 1576 को प्रात:काल में मुगल सेना व राणा प्रताप के मध्य युद्ध प्रारम्भ हुआ।

- हकीम खाँ सूर के नेतृत्व में राजपूतों ने पहला वार इतना भयंकर किया कि मुगल सेना भाग खड़ी हुई।

- उसी समय मुगलों की आरक्षित सेना के प्रभारी मिहत्तर खाँ ने यह झूठी अफवाह फैलाई कि – “बादशाह अकबर स्वयं शाही सेना लेकर आ रहे हैं।”

- यह सुनकर मुगल सेना फिर युद्ध के लिए आगे बढ़ी। मेवाड़ की सेना भी ‘रक्तताल’ नामक मैदान में आ डटी।

- युद्ध में राणा प्रताप के लूणा व रामप्रसाद और अकबर के गजमुक्ता व गजराज हाथियों के मध्य युद्ध हुआ।

- रामप्रसाद हाथी को मुगलों ने अपने अधिकार में ले लिया जिसका बाद में अकबर ने नाम बदलकर ‘पीरप्रसाद’ कर दिया।

- राणा प्रताप ने पठान बहलोल खाँ पर ऐसा प्रहार किया कि उसके घोड़े सहित दो टुकड़े हो गए।

- युद्ध में चेतक घोड़े पर राणा प्रताप और मर्दाना हाथी पर सवार मानसिंह का प्रत्यक्ष आमना-सामना हुआ।

- प्रताप ने भाले से मानसिंह पर वार किया लेकिन मानसिंह बच गया। इस दौरान चेतक हाथी के प्रहार से घायल हो गया।

- मुगल सेना ने प्रताप को चारों ओर से घेर लिया।- राणा प्रताप के घायल होने पर झाला बीदा ने राजचिह्न धारण किया तथा युद्ध लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की।


● माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, सामाजिक विज्ञान कक्षा 10 के अनुसार -

- बड़ी सादड़ी के झाला मन्ना सेना को चीरते हुए राणा प्रताप के पास आया और निवेदन किया कि – “आप राजचिह्न उतारकर मुझे दे दीजिए और आप इस समय युद्ध के मैदान से चले जाएँ। इसी में मेवाड़ की भलाई है।”

- प्रताप के युद्ध भूमि छोड़ने पर झाला मन्ना ने राजचिह्न धारण किया और युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

- युद्ध में हाथी के वार से घायल राणा प्रताप के घोड़े चेतक की एक नाले को पार करने के बाद मृत्यु हो गई।

- बलीचा गाँव में चेतक की समाधि बनी हुई है।

- ‘अमरकाव्य वंशावली’ नामक ग्रंथ तथा राजप्रशस्ति के अनुसार यहाँ राणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह ने प्रताप से मिलकर अपने किए की माफी माँगी।

- हल्दीघाटी युद्ध अनिर्णित रहा। अकबर राणा प्रताप को बंदी बनाने में विफल रहा।

- युद्ध के परिणाम से नाराज अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँ की ड्योढ़ी बंद कर दी।

- बदायूँनी कृत ‘मुन्तखब उत्त तवारीख’ में हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन।

- इस युद्ध को अबुल-फजल ने ‘खमनौर का युद्ध’, बदायूँनी ने ‘गोगुन्दा का युद्ध’ तथा कर्नल टॉड ने ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ कहा।

- राजसमन्द में प्रत्येक वर्ष ‘हल्दीघाटी महोत्सव’ मनाया जाता है।

- राणा प्रताप ने ‘आवरगढ़’ में अपनी अस्थाई राजधानी स्थापित की।

- फरवरी, 1577 में अकबर खुद मेवाड़ अभियान पर आया लेकिन असफल रहा।

- अक्टूबर, 1577 से नवम्बर, 1579 तक शाहबाज खाँ ने तीन बार मेवाड़ पर असफल आक्रमण किया।

- 3 अप्रैल, 1578 को शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार किया।

- राणा प्रताप ने कुंभलगढ़ दुर्ग पर पुन: अधिकार कर भाण सोनगरा को किलेदार नियुक्त किया।

- भामाशाह (पाली) ने महाराणा प्रताप की आर्थिक सहायता की थी।

- मेवाड़ का उद्धारक व दानवीर- भामाशाह

- 1580 में अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को प्रताप के विरुद्ध भेजा। कुँवर अमरसिंह ने शेरपुर के मुगल शिविर पर आक्रमण कर खानखाना के परिवार की महिलाओं को बंदी बना लिया। यह सूचना जब राणा प्रताप को मिली तो उन्होंने तुरन्त मुगल महिलाओं को सम्मानपूर्वक वापस भेजने का आदेश दिया।


दिवेर का युद्ध (अक्टूबर, 1582 ई.)  :--

-कुँवर अमरसिंह ने अकबर के काका सेरिमा सुल्तान का वध कर दिवेर पर अधिकार किया।

- कर्नल जेम्स टॉड ने इस युद्ध को ‘प्रताप के गौरव का प्रतीक’ और ‘मेवाड़ का मैराथन’ कहा।

- 5 दिसम्बर, 1584 को अकबर ने आमेर के भारमल के छोटे पुत्र जगन्नाथ कच्छवाहा को प्रताप के विरुद्ध भेजा। जगन्नाथ भी असफल रहा। जगन्नाथ की माण्डलगढ़ में मृत्यु हो गई।

- जगन्नाथ कच्छवाहा की ’32 खम्भों की छतरी’- माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा)

- राणा प्रताप ने बदला लेने के लिए आमेर क्षेत्र के मालपुरा को लूटा और झालरा तालाब के निकट ‘नीलकंठ महादेव मंदिर’ का निर्माण करवाया।

- 1585 ई. से 1597 ई. के मध्य प्रताप ने चित्तौड़ एवं माण्डलगढ़ को छोड़कर शेष सम्पूर्ण राज्य पर पुन: अधिकार कर लिया था।

- 1585 ई. में लूणा चावण्डिया को पराजित कर प्रताप ने चावण्ड पर अधिकार किया तथा इसे अपनी नई राजधानी बनाया।

- चावण्ड में प्रताप ने ‘चामुण्डा माता’ का मंदिर बनवाया।

- चावण्ड 1585 से अगले 28 वर्षों तक मेवाड़ की राजधानी रहा।

- 1597 में धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते समय प्रताप को गहरी चोट लगी। जो उनकी मृत्यु का कारण बनी।

- मृत्यु -19 जनवरी, 1597, चावण्ड

अग्निसंस्कार- बांडोली

- प्रताप की 8 खम्भों की छतरी- बांडोली (उदयपुर) में खेजड़ बाँध की पाल पर।

- प्रताप की मृत्यु पर अकबर के दरबार में उपस्थित कवि दुरसा आढ़ा ने एक दोहा सुनाया –

गहलोत राणो जीत गयो दसण मूंद रसणा डसी।

नीलास मूक भरिया नयन तो मृत शाह प्रताप सी।।


- महाराणा प्रताप के संदर्भ में कर्नल टॉड ने लिखा – “आलप्स पर्वत के समान अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहीं, जो प्रताप के किसी न किसी वीर कार्य, उज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र न हुई हो। हल्दीघाटी ‘मेवाड़ की थर्मोपल्ली’ और दिवेर ‘मेवाड़ का मैराथन’ है।

“- प्रताप के बारे में कहा गया है कि –

“पग-पग भम्या पहाड़, धरा छोड़ राख्यो धरम।

महाराणा मेवाड़, हिरदे बसया हिन्द रे।। ”


● प्रताप कालीन रचनाएँ

 1. दरबारी पंडित चक्रपाणि मिश्र – विश्ववल्लभ, मुहूर्तमाला, व्यवहारादर्श व राज्याभिषेक पद्धति।

2. जैन मुनि हेमरत्न सूरी – गोरा-बादल, पद्मिनी चरित्र चौपाई, महिपाल चौपाई, अमरकुमार चौपाई, सीता चौपाई, लीलावती

● प्रताप द्वारा निर्मित मंदिर –

1. चामुण्डा देवी (चावण्ड)  

2. हरिहर मंदिर (बदराणा)

● चित्रकला- चावण्ड शैली का जन्म  प्रमुख चित्रकार – निसारुद्दीन

* अमरसिंह प्रथम –

शासनकाल- 1597 ई. – 1620 ई.

- महाराणा प्रताप व अजब दे पंवार का पुत्र।

- अमरसिंह को भी मुगल आक्रमणों का सामना करना पड़ा।

- अकबर ने 1599 ई. में जहाँगीर के नेतृत्व में सेना भेजी, जिसे मेवाड़ की सेना ने उटाला नामक स्थान पर पराजित किया।

- जहाँगीर के शासक बनते ही 1605 ई. में परवेज, आसिफ खाँ, जफर बेग एवं सगर के नेतृत्व में मेवाड़ को अधीन करने का प्रयास किया गया था लेकिन सफलता नहीं मिली।

- 1608 ई. में जहाँगीर ने महावत खाँ को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा, लेकिन वह भी असफल रहा।

- 1609 ई. में अब्दुल्ला, 1612 ई. में राजा बासू और 1613 ई. में मिर्जा अजीज कोका को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया था लेकिन यहाँ भी सफलता नहीं मिली।

- 1613 ई. में जहाँगीर स्वयं अजमेर आया तथा अपने पुत्र खुर्रम (शाहजहाँ) को मेवाड़ अभियान का नेतृत्व सौंपा।

- शाहजहाँ के आक्रमणों ने मेवाड़ की स्थिति विकट कर दी।

- मेवाड़ी सामंतों ने कुँवर कर्णसिंह को अपने पक्ष में कर राणा को मुगलों से संधि करने के लिए विवश कर दिया।

- मुगल-मेवाड़ संधि- 5 फरवरी, 1615 में मेवाड़ के अमरसिंह प्रथम व मुगल शासक जहाँगीर के बीच हुई।

- इस संधि पर मुगलों की तरफ से खुर्रम व मेवाड़ की ओर से अमरसिंह प्रथम ने हस्ताक्षर किए।

- चित्तौड़, मेवाड़ को लौटा दिया गया लेकिन उसकी मरम्मत नहीं कर सकते थे।

- इस संधि से 90 वर्षों से चले आ रहे मुगल-मेवाड़ संघर्ष का अंत हुआ।

- संधि से नाखुश राणा अमरसिंह ने स्वयं को राजकार्य से विरक्त कर लिया।

- अमरसिंह प्रथम का काल मेवाड़ स्कूल की चावण्ड चित्रकला शैली का स्वर्णकाल माना जाता है।

- मृत्यु- 26 जनवरी, 1620 को उदयपुर के निकट आहड़ में - आहड़ (उदयपुर) की महासतियों में सबसे पहली छतरी अमरसिंह प्रथम की है।

- आहड़ को मेवाड़ के महाराणाओं का श्मशान भी कहते


*राणा कर्णसिंह –

शासनकाल- 1620 ई. – 1628 ई.-

-पिछोला झील में जगमंदिर का निर्माण प्रारंभ करवाया जहाँ 1623 ई. में शाहजहाँ को शरण दी गई थी।

- शाहजहाँ ने यहाँ ‘गफुर बाबा की मज़ार’ बनवाई।

- उदयपुर में दिलखुश महल व कर्ण विलास का निर्माण करवाया।

- यह मुगलों के आंतरिक मामलों में रुचि लेने वाला मेवाड़ इतिहास का प्रथम शासक था।


* जगतसिंह -प्रथम

- शासनकाल- 1628 ई. – 1652 ई.

- शाहजहाँ ने मेवाड़ रियासत के हिस्से की प्रतापगढ़ व शाहपुरा रियासत को मेवाड़ से पृथक् कर दिया था।

- जगमंदिर का निर्माण पूरा करवाया। इसे भाणा व उसके पुत्र मुकुंद की देखरेख में बनवाया था।

- उदयपुर में जगदीश मंदिर/जगन्नाथ राय मंदिर का निर्माण करवाया। इसी मंदिर में ‘जगन्नाथराम प्रशस्ति’ उत्कीर्ण है जिसके रचयिता ‘कृष्णभट्ट’ थे।

- मोहन मंदिर व रूप सागर तालाब बनवाया।

- उनकी धाय माँ नौजूबाई ने उदयपुर में ‘धाय मंदिर’ बनावाया।- मेवाड़ चित्रकला शैली का स्वर्णकाल।

- ‘तस्वीरा रो कारखानो’ व ‘चितेरों री ओवरी’ नामक चित्रशाला विभाग की स्थापना की थी।


*महाराणा राजसिंह

- राज्याभिषेक – 10 अक्टूबर, 1652-

-शासनकाल – 1652-1680 ई.

- गद्दीनशीनी के समय शाहजहाँ ने 5000 का मनसब दिया।

- उपाधि- ‘विजय कटकातु’

- शासक बनते ही चित्तौड़गढ़ के किले की मरम्मत करवाने का निश्चय किया।

- औरंगजेब ने इसे 1615 ई. की मुगल-मेवाड़ संधि की शर्तों के विरुद्ध मानते हुए चित्तौड़ दुर्ग को ढहाने के लिए सादुल्ला खाँ के नेतृत्व में 30,000 की सेना भेजी।

- राजसिंह ने युद्ध करना उचित न समझकर वहाँ से अपनी सेना हटा ली। मुगल सेना कंगूरे व बुर्ज गिराकर लौट गई।

- 1658 ई. में मुगल शहजादों में हुए उत्तराधिकार संघर्ष में ये किसी भी पक्ष में नहीं रहना चाहते थे। अत: ये टालमटोल करते रहे।

- प्रारम्भ में औरंगजेब व राजसिंह के संबंध अच्छे रहे।

- औरंगजेब ने 6000 का मनसब और ग्यासपुरा, डूँगरपुर, बाँसवाड़ा के परगने दिए।

- चारुमति विवाद, 1660 ई. – औरंगजेब किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति से विवाह करना चाहता था लेकिन राजसिंह ने चारुमति से विवाह कर लिया। अत: राजसिंह व औरंगजेब के मध्य ‘देसूरी की नाल’ (राजसमन्द) में युद्ध हुआ।

- इस युद्ध में राजसिंह की तरफ से सलूम्बर के रतनसिंह चूंडावत ने विजय प्राप्त की।

- औरंगजेब द्वारा 1679 ई. में जजिया कर लगाने पर इसका विरोध किया गया था।

- मुगल-मारवाड़ संघर्ष में राजसिंह ने मारवाड़ का साथ दिया।

- राजसिंह ने मारवाड़ के अजीतसिंह व दुर्गादास की सहायता की तथा उन्हें ‘केलवा की जागीर’ प्रदान की।

- नाथद्वारा मंदिर व द्वारकाधीश कांकरोली के मंदिरों का निर्माण करवाया।

- टीका दौड़ उत्सव के बहाने अपने राज्य तथा बाहरी मुगलखानों पर हमले कर लाखों रुपये की सम्पत्ति प्राप्त की।

- अव्यवस्था का फायदा उठाकर राजसिंह ने टोडा, मालपुरा, टोंक, चाकसू, लालसोट को लूटा एवं मेवाड़ के खोए हुए क्षेत्रों पर पुन: अधिकार कर लिया।  

- राजसमन्द झील का निर्माण – अकाल प्रबन्धन हेतु गोमती नदी के पानी को रोककर करवाया। झील की नींव घेवर माता द्वारा रखवाई गई।

- राजसमंद झील के उत्तरी किनारे पर नौ चौकी पर ‘राज प्रशस्ति’ शिलालेख लगवाया। संस्कृत में रचित राजप्रशस्ति की रचना रणछोड़ भट्ट ने की। यह प्रशस्ति 25 काले संगमरमर की शिलाओं पर उत्कीर्ण है।

- ‘राजप्रशस्ति’` को विश्व का सबसे बड़ा शिलालेख माना जाता है।

- राजनगर नामक नया नगर बसाया।

- उदयपुर में अम्बामाता मंदिर बनवाया व ब्राह्मणों को ‘रत्नों का तुलादान’ किया।

- उनकी पत्नी रामरस दे ने उदयपुर मे त्रिमुखी बावड़ी/ जया बावड़ी का निर्माण करवाया।


- दरबारी कवि – रणछोड़ भट्ट- राजसिंह कालीन साहित्य –

 1. रणछोड़ भट्ट – राजप्रशस्ति महाकाव्य व अमरकाव्य

2. सदाशिव – राजरत्नाकर

3. लाल भाट – राजसिंह प्रभावर्णनम्

4. मुकन्द – राजसिंहाष्टक

5. किशोरदास – राजप्रकाश

6. कवि मान – राजविलास

7. दौलतविजय – खुमाण रासो

- मृत्यु – 1680 ई. कुंभलगढ़ दुर्ग में


*महाराणा जयसिंह –

शासनकाल- 1680 ई. – 1698 ई.

- 24 जून, 1681 को दूसरी मेवाड़-मुगल संधि हुई।

- गोमती नदी के पानी को रोककर जयसमन्द झील/ढेबर झील (उदयपुर) का निर्माण करवाया।

- यह राजस्थान की सबसे बड़ी मीठे पानी की कृत्रिम झील है।

* महाराणा अमरसिंह द्वितीय –

शासनकाल- 1698 ई. – 1710 ई.

- मेवाड़-मारवाड़-आमेर के मध्य देबारी समझौता हुआ।

- अपनी पुत्री चतन्द्रकुंवरी का विवाह सवाई जयसिंह से करवाया।


*महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय –

शासनकाल- 1710 ई. – 1734 ई.

- मेवाड़ में मराठों ने पहली बार प्रवेश किया।

- मेवाड़ चित्रशैली में ‘कलीला दमना’ का चित्रण हुआ।

- फतेहसागर झील के किनारे सहेलियों की बाड़ी बनवाई तथा सीसारमा गाँव में वैद्यनाथ का मंदिर व वैद्यनाथ प्रशस्ति का निर्माण करवाया।

- मेवाड़ में स्थित जगदीश मंदिर का पुन: निर्माण भी करवाया।


*महाराणा जगतसिंह – द्वितीय

- शासनकाल- 1734 ई. – 1751 ई.

- पेशवा बाजीराव-प्रथम मेवाड़ आया तथा चौथ वसूली का समझौता किया।

- माधोसिंह को जयपुर का शासन दिलाने के लिए जयपुर के उत्तराधिकार संघर्ष में हस्तक्षेप किया था।

- पिछोला झील में जगनिवास महलों का निर्माण करवाया।

- दरबारी कवि नेकराम ने जगत विलास ग्रंथ लिखा।

- 17 जुलाई, 1734 को हुरड़ा सम्मेलन की अध्यक्षता की।

- अफगान शासक नादिरशाह ने 1739 ई. में दिल्ली पर आक्रमण किया।

- उत्तराधिकारी- प्रतापसिंह द्वितीय (1751-54 ई.)

- महाराणा प्रतापसिंह का उत्तराधिकारी – राजसिंह द्वितीय (1754-61 ई.)


*  महाराणा अरिसिंह द्वितीय

-  शासनकाल- 1761-73 ई.

- सरदारों ने राजमाता झाली से उत्पन्न पुत्र रतनसिंह को मेवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

- अरिसिंह ने बागोर के सरदार नाथसिंह एवं सलूम्बर के रावत जोधसिंह की हत्या करवाई थी।

- उत्तराधिकारी- हम्मीर द्वितीय (1773-78 ई.)


* महाराणा भीमसिंह

- शासनकाल- 1778 ई. – 1828 ई.

- 1818 ई. में मराठों के भय से अंग्रेजों से संधि कर ली थी। इस संधि पर मेवाड़ की ओर से ठाकुर अजीतसिंह (आसींद, भीलवाड़ा) तथा अंग्रेजों की ओर से चार्ल्स मैटकॉफ ने हस्ताक्षर किए थे।

- भीमसिंह की पुत्री कृष्णा कुमारी से विवाह के लिए 1807 ई.  में गिंगोली, (परबतसर, नागौर) का युद्ध हुआ।

- अमीर खाँ पिण्डारी व अजीतसिंह चूंडावत के दबाव में कृष्णा कुमारी को जहर दे दिया।

- 1818 ई. में कर्नल टॉड एजेंट के रूप में उदयपुर आया था।

- उत्तराधिकारी- महाराणा जवानसिंह (1828-38 ई.)

* महाराणा सरदारसिंह

- शासनकाल- 1838 ई. – 1842 ई.

- सरदार सिंह बागोर ठिकाने से गोद आए थे।

- 1841 ई. में मेवाड़ भील कोर का गठन किया जिसका 1950 ई. में राजस्थान पुलिस विभाग में विलय कर दिया गया।


* महाराणा स्वरूपसिंह

- शासनकाल- 1842 ई. – 1861 ई.

- स्वरूपसिंह सरदारसिंह का छोटा भाई था।

- 1857 की क्रांति में अंग्रेजों का साथ देने वाला राजपूताना का पहला शासक था।

- स्वरूपशाही सिक्के चलाए जिन पर ‘चित्रकूट उदयपुर’ व दूसरी ओर ‘दोस्ती लंदन’ अंकित था।

- विजय स्तम्भ का जीर्णोद्धार करवाया।

- 1861 ई. में सती प्रथा पर रोक लगाई।

- डाकन प्रथा व समाधि प्रथा पर भी रोक लगाई थी।

- मृत्यु – 1861

- इनके साथ पासवान ऐंजाबाई सती हुई थी जो मेवाड़ महाराणाओं के साथ सती होने की अन्तिम घटना थी।


* राणा शंभूसिंह

- शासनकाल- 1861 ई. – 1872 ई.

- शंभूसिंह को बागोर ठिकाने से गोद लिया गया था।

- राज्याभिषेक के समय नाबालिग थे इसलिए राज्य प्रबन्ध के लिए पॉलिटिकल एजेन्ट मेजर टेलर की अध्यक्षता में रीजेंसी कौंसिल (पंच सरदारी) की स्थापना की गई थी।

- मेवाड़ में नई अदालतों की स्थापना के विरोध में नगर सेठ चम्पालाल के नेतृत्व में उदयपुर में हड़ताल (1864 ई.) हुई थी।

- उदयपुर में शंभूरत्न पाठशाला 1863 ई.  में स्थापित की गई।

- खैरवाड़ा और नीमच तक पक्की सड़कों का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ।

- श्यामलदास ने वीरविनोद का लेखन प्रारम्भ किया।


* राणा सज्जनसिंह

- शासनकाल- 1872 ई. – 1884 ई.

- बागोर ठिकाने के शक्तिसिंह के पुत्र थे।

- 14 फरवरी, 1878 को अंग्रेजों के साथ नमक समझौता किया था।

- 1881 ई. में लॉर्ड रिपन चित्तौड़गढ़ आए तथा महाराणा को जी.सी.एस.आई. (Grand Commander of the Star of India) का खिताब दिया।

- ‘सज्जन निवास’ नाम से सुन्दर बाग लगवाया।

- शिक्षा की सुव्यवस्था के लिए एजुकेशन कमेटी की स्थापना की गई।

- ‘सज्जन अस्पताल’ एवं ‘वॉल्टर जनाना अस्पताल’ का निर्माण करवाया।

- मेवाड़ में नया भू-राजस्व बंदोबस्त शुरू हुआ।

- मेवाड़ में 1881 ई. में प्रथम बार जनगणना का कार्य शुरू हुआ।

- महेन्द्राज सभा- शासन प्रबन्ध एवं न्याय कार्य के लिए 1880 ई. में स्थापना की।

- 1881 ई. में उदयपुर में ‘सज्जन यंत्रालय’ छापाखाना स्थापित कर इन्होंने ‘सज्जन कीर्ति सुधारक’ नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन किया।

- ‘सज्जन वाणी विलास’ पुस्तकालय की स्थापना की।

- लॉर्ड लिटन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में भाग लेने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक था।

- दयानन्द सरस्वती मेवाड़ आए। सत्यार्थ प्रकाश का लेखन जगमंदिर में प्रारम्भ किया था।


* महाराणा फतेहसिंह -

शासनकाल- 1884 ई. – 1921 ई.

- शिवरती के महाराजा दलसिंह के पुत्र।

- राजपूतों में बहुविवाह, बालविवाह एवं फिजूलखर्ची पर रोक लगाई।

- ब्रिटेन के राजकुमार ‘केनॉट’ के मेवाड़ आगमन पर देवली में राजकुमार के हाथ से केनॉट (फतहसागर) बाँध की नींव रखवाई।

- इनके समय 1899 ई. में भीषण अकाल पड़ा था।

- बिजौलिया किसान आंदोलन प्रारंभ हुआ।

- उपाधि- ऑर्डर ऑफ क्राउन ऑफ इंडिया

- 1889 में ए.जी.जी. वॉल्टर ने ‘राजपूत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की।

- दिल्ली दरबार (वर्ष 1903)- एडवर्ड सप्तम के दरबार में शामिल होने जा रहे फतेहसिंह को केसरीसिंह बारहठ ने ‘चेतावनी रा चूंगट्या’ नामक 13 सोरठे लिखकर दिल्ली जाने से रोका।

*राणा भूपालसिंह/भोपालसिंह-

- शासनकाल- 1921 ई. – 1948 ई.

- सिसोदिया वंश का अंतिम शासक।

- राजस्थान का एकीकरण हुआ।

- राजस्थान के एकमात्र शासक जो आजीवन ‘महाराजप्रमुख’ पद पर रहे।