ब्रज की नदियां

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ब्रज में कई नदियां आतीं हैं। उनमें से प्रमुख है यमुना नदी।। जो ब्रज मंडल की ही नहि अपितु सारे भारत की भी एक मुख़्य नदी है।

यमुना[संपादित करें]

भारतवर्ष की सर्वाधिक पवित्र और प्राचीन नदियों में यमुना की गणना गंगा के साथ की जाती है। यमुना और गंगा के दो आब की पुण्यभूमि में ही आर्यों की पुरातन संस्कृतिका गौरवशाली रूप बन सका था। ब्रजमंडल की तो यमुना एक मात्र महत्वपूर्ण नदी है। जहां तक ब्रज संस्कृति का संबध है, यमुना को केवल नदी कहना ही पर्याप्त नहीं है। वस्तुतः यह ब्रज संस्कृति की सहायक, इसकी दीर्ध कालीन परम्परा की प्रेरक और यहाँ की धार्मिक भावना की प्रमुख आधार रही है।

पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार यह देव स्वरुप है। भुवनभास्कर सूर्य इसके पिता, मृत्यु के देवता यम इसके भाई और भगवान श्री कृष्ण इसके परि स्वीकार्य किये गये हैं। जहां भगवान श्री कृष्ण ब्रज संस्कृति के जनक कहे जाते है, वहां यमुना इसकी जननी मानी जाती है। इस प्रकार यह सच्चे अर्थों में ब्रजवासियों की माता है। अतः ब्रज में इसे यमुना मैया कहना सर्वथा सार्थक है। ब्रम्ह पुराण में यमुना के आध्यात्मिक स्वरुप का स्पष्टीकरण करते हुए विवरण प्रस्तुत किया है - "जो सृष्टि का आधार है और जिसे लक्ष्णों से सच्चिदनंद स्वरुप कहा जाता है, उपनिषदों ने जिसका व्रम्ह रूप से गायन किया है, वही परमतत्व साक्षात् यमुना है। १" गौड़िय विद्वान श्री रूप गोस्वामी ने यमुना को साक्षात् चिदानंदमयी वतलाया है। २ गर्गसंहिता में यमुना के पचांग - १.पटल, २. पद्धति, ३. कवय, ४. स्तोत्र और ५. सहस्त्र नाम का उल्लेख है। 'यमुना सहस्त्र नाम' में यमुना जी के एक हजार नामों से उसकी पशस्ति का गायन किया गया है। ३ यमुना के परमभक्त इसका दैनिक रूप से प्रति दिन पाठ करते हैं।

ब्रजभाषा के भक्त कवियों और विशेषतया वल्लभ सम्प्रदायी कवियों ने गिरिराज गोवर्धन की भाँति यमुना के प्रति भी अतिशय श्रद्धा व्यक्त की है। इस सम्प्रदाय का सायद ही कोई कवि हो, जिसने अपनी यमुना के प्रति अपनी काव्य - श्रद्धांजलि अर्पित न की हो। उनका यमुना स्तुति संबंधी साहित्य ब्रजभाषा भक्ति काव्य का एक उल्लेखनीय अंग है।

उद्गम[संपादित करें]

यमुना का उद्गम स्थान हिमालय के हिमाच्छादित श्रंग बंदरपुच्छ २०,७३१ऊँचाई फीट ७ से ८ मील उत्तर-पश्चिम में स्थित कालिंद पर्वत है, जिसके नाम पर यमुना को कालिंदजा अथवा कालिंदी कहा जाता है। अपने उद्गम से आगे कई मील तक विशाल हीमगारों और हिंम मंडित कंदराओं में अप्रकट रूप से बहती हुई तथा पहाड़ी ढलानों पर से अत्यन्त तीव्रतापूर्वक उतरती हुई इसकी धारा यमुनोत्तरी पर्वत (२०,७३१ऊँचाई फीट) से प्रकट होती है। वहां इसके दर्शनार्थ हजारों श्रद्धालु यात्री प्रतिवर्ष भारत वर्ष के कोंने-कोंने से पहुँचते हैं।

यमुनोत्तरी पर्वत से निकलकर यह नदी अनेक पहाड़ी दराç और घाटियों में गर्जन-तर्जन के साथ प्रवाहित होती हुई तथा वदियर, कमलाद, वदरी अस्लौर जैसी छोटी और तोंस जैसी बड़ी पहाड़ी नदियों को अपने अंचल में समेटती हुई आगे बढ़ती है। उसके बाद यह हिमालय का दामन का छोड़ कर दून की घाटी में प्रवेश करती है। वहां से कई मील तक दक्षिण पश्चिम की और बहती हुई तथा गिरि, सिरमौर और आशा नामक छोटी नदियों को अपनी गोद में लेती हुई यह अपने उद्गम से लगभग ९५ मील दूर वर्तमान सहारनपुर जिला के फैजाबाद ग्राम के समीप मैदान में आती है। उस समय इसके तट तक की ऊँचाई समुद्र सतह से लगभग १२७६ फीट रह जाती है।

प्राचीन प्रवाह[संपादित करें]

मैदान में जहा इस समय यमुना का प्रवाह है, वहाँ वह सदा से प्रवाहित नहीं होती रही है। पौराणिक अनुश्रुतियों और ऐतिहासिक उल्लेखों से ज्ञात होता है, यद्यपि यमुना पिछले हजारों वर्षो से विधमान है, तथापि इसका प्रवाह समय समय पर परिवर्तित होता रहा है। अपने सुधीर्ध जीवन काल में इसने जितने स्थान वदले है, उनमें से बहुत कम की ही जानकारी हो सकी है।

प्रागऐतिहासिक काल में Mathura ki ye Nadi यमुना मधुबन के समी बहती थी, जहां उसके तट पर सत्रुध्न जी सर्वप्रथम मथुरा नगरी की स्थापना की थी वाल्मीकि रामायण और विष्णु पुराण में इसका विवरण प्राप्त होता है। १ कृष्ण काल में यमुना का प्रवाह कटरा केशव देव के निकट था। सत्रहवीं शताबदी में भारत आने वाले यूरोपीय विद्वान टेवर्नियर ने कटरा के समीप की भूमि को देख कर यह अनुमानित किया था कि वहां किसी समय यमुना की धारा थी। इस संदर्भ में ग्राउज का मत है कि ऐतिहासिक काल में कटरा के समीप यमुना के प्रवाहित होने की संभावना कम है, किन्तु अत्यन्त प्राचीन काल में वहाँ यमुना अवश्य थी। २ इससे भी यह सिद्ध होता है कि कृष्ण काल में यमुना का प्रवाह कटरा के समीप ही था।

कनिधंम का अनुमान है, यननानी लेखकों के समय में यमुना की प्रधान धारा या उसकी एक बड़ी शाखा कटरा केशव देव की पूर्वी दीवाल के नीचे बहती होगी। ३ जव मथुरा में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार गो गया और यहाँ यमुना के दोंनों ओर अनेक संधारम बनाये गये, तव यमुना की मुख्य धारा कटरा से हटकर प्रायः उसी स्थान पर बहती होगी, जहाँ वह अब है, किन्तु उसकी कोई शाखा अथवा सहायक नहीं कटरा के निकट भी विधमान थी। ऐसा अनुमान है, यमुना की वह शाखा बौद्ध काल के बहुत बाद तक संभवतः सोलहवीं शताब्दी तक केशव देव मन्दिर के नीचे बहती रही थी। पहिले दो वरसाती नदियाँ 'सरस्वती' और 'कृष्ण गंगा' मथुरा के पश्चिमी भाग में प्रवाहित होकर यमुना में गिरती थीं, जिनकी स्मृति में यमुना के सरस्वती संगम और कृष्ण गंगा नामक धाट हैं। संभव है यमुना की उन सहायक नादियों में से ही कोई कटरा के पास बहती रही हो।

  • पुराणों से ज्ञात होता है, प्राचीन वृन्दाबन में यमुना गोबर्धन के निकट प्रवाहित होती थी। ४ जवकि वर्तमान में वह गोबर्धन से लगभग मील दूर हो गई है। गोवर्धन के निकटवर्ती दो छोटे ग्राम 'जमुनावती' और परसौली है। वहाँ किसी काल में यमुना के प्रवाहित होने उल्लेख मिलते हैं।

बल्लभ सम्प्रदाय के वार्ता साहित्य से ज्ञात होता है कि सारस्वत कल्प में यमुना नदी जमुनावती ग्राम के समीप बहती थी। उस काल में यमुना नदी की दो धाराऐं थी, एक धारा नंदगाँव, वरसाना, संकेत के निकट वहती हुई गोबर्धन में जमुनावती पर आती थी और दूसरी धारा पीरधाट से होती हुई गोकुल की ओर चली जाती थी। आगे दानों धाराएँ एक होकर वर्तमान आगरा की ओर बढ़ जाती थी। ५

परासौली में यमुना को धारा प्रवाहित होने का प्रमाण स. १७१७ तक मिलता है। यद्यपि इस पर विश्वास होना कठिन है। श्री गंगाप्रसाद कमठान ने ब्रजभाषा के एक मुसलमान भक्तकवि कारबेग उपमान कारे का वृतांत प्रकाशित किया है। काबेग के कथनानुसार जमुना के तटवर्ती परासौली गाँव का निवासी था और उसने अपनी रचना सं १७१७ में स्त्रजित की थी। ६

आधुनिक प्रवाह[संपादित करें]

वर्तमान समय में सहारनपुर जिले के फैजाबाद गाँव के निकट मैदान में आने पर यह आगे ६५ मील तक बढ़ती हुई पंजाव के अम्बाला और हरियाणा के करनाल जिलों को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर और मुजफ्फर नगर जिलों से अलग करती है। इस भू-भाग में इसमें मस्कर्रा, कठ, हिंडन और सबी नामक नदियाँ मीलती हैं, जिनके कारण इसका आकार वहुत बढ़ जाता है। मैदान में आते ही इससे पूर्वी यमुना नहर और पश्चिमी नहर निकाली जाती हैं। ये दोनों नहरें यमुना से पानी लेकर इस भू-भाग की सैकड़ों मील धरती को हरी-भरी और उपज सम्पन्न वना देती है।

इस भू-भाग में यमुना की धारा के दोनों ओर पंजाव और उत्तर प्रदेश के कई छोटे बड़े नगरों की सीमाएँ हैं, किन्तु इसके ठीक तट पर वसा हुआ सवसे प्राचीन और पहिला नगर दिल्ली है, जो लम्बे समय से भारत की राजधानी है। दिल्ली के लाखों नर-नारियों की आवश्यकता की पूर्ति करते हुए और वहां की ढेरों गंदगी को वहाती हुई यह ओखला नामक स्थान पर पहुँचती है यहां पर इस पर एक बड़ा बांध बांधा गया है जिससे नदी की धारा पूरी तरह नियंत्रित कर ली गयी है। इसी बांध से आगरा नहर निकलती है, जो हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सैकड़ों मील भूमि को सिंचित करती है। दिल्ली से आगे यह हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सीमा बनाती हुई तथा हरियाणा के गुड़गाँवा जिला को उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले से अलग करती हुई यह ब्रज प्रदेश में प्रवाहित होने लगती है।

तटवर्ती स्थान[संपादित करें]

ब्रज प्रदेश की सांस्कृतिक सीमा में यमुना नदी का प्रथम प्रवेश बुलंदशहर जिला की खुर्जा तहशील के 'जेबर' नामक कस्बा के निकट होता है। वहाँ से यह दक्षिण की ओर बहती हुई फरीदाबाद (हरियाणा) जिला की पलवल तहसील और अलीगढ़ उत्तर प्रदेश के हाथरस जिला की खैर तहसील की सीमा निर्मित करती है। इसके बाद यह छाता तहसील के शाहपुर ग्राम के निकट यह मथुरा जिला में प्रवेश करती है और मथुरा जिले की छाता और भाँट तहसीलों की सीमा निर्धारित करती है। जेबर से शेरगढ़ तक यह दक्षिणाभिमुख प्रवाहित होती है उसके बाद कुछ पूर्व की ओर मुड़ जाती है। ब्रज क्षेत्र में यमुना के तट पर बसा हुआ पहिला उल्लेखनीय स्थान शेरगढ़ है।

शेरगढ़ से कुछ दूर तक पूर्व की दिशा में बह कर फिर यह मथुरा तक दक्षिण दिशा में ही बहती है। मार्ग में इसके दोनों ओर पुराण प्रसिद्ध बन और उपबन तथा कृष्ण लीला स्थान विधमान हैं। यहाँ पर यह भाँट से वृन्दावन तक बलखाती हुई बहती है और वृन्दाबन को यह तीन ओर से घेर लेती है। पुराणों से ज्ञात होता है। प्राचीन काल में वृन्दाबन में यमुना की कई धाराएँ थी, जिनके कारण वह लगभग प्रायद्वीप सा बन गया था। उसमें अनेक सुन्दर बनखंड और घास के मैदान थे, जहाँ भगवान श्री कृष्ण अपने साथी गोप बालकों के गाय चराया करते थे।

वर्तमान काल में यमुना की एक ही धारा है और उसी के तट पर वृन्दाबन वसा हुआ है। वहाँ मध्य काल में अनेक धर्माचार्यों और भक्त कवियों ने निवास पर कृष्णोपासना और कृष्ण भक्ति का प्रचार किया था। वृन्दाबन में यमुना के किनारों पर बड़े सुन्दर घाट बने हुए हैं और उन पर अनेक मंदिर-देवालय, छतरियां और धर्मशालाएँ हैं। इनसे यमुना के तट की शोभा अधिक बड़ जाती है। वृन्दाबन से आगे दक्षिण की ओर बहती हुई यह नदी मथुरा नगर में प्रवेश करती है।

मथुरा यमुना के तट पर बसा हुआ एक एसा ऐतिहासिक और धार्मिक स्थान है, जिसकी दीर्घकालिन गौरव गाथा प्रसिद्ध है। यहां पर भगवान श्री कृष्ण ने अवतार धारण किया था, जिससे इसके महत्व की वृद्धि हुई है। यहां भी यमुना के तट पर बड़े सुन्दर घाट बने हुए हैं यमुना मेंनाव से अथवा पुल से देखने पर मथुरा नगर और उसके घाटो का मनोरम द्रष्य दिखाई देता है मथुरा मेंयमुना पर दो पक्के पुल वने हैं जिनमें एक पर रेलगाड़ी चलती है तथा दूसरे पर सड़क परिवहन चलते हैं। मथुरा नगर की दक्षिणी सीमा पर अब गोकुल वैराज भी निर्मित कराया गया है जिसका उद्देश्य ब्रज के भूमिगत जल के स्तर को पुनः वापिस लाना और ब्रज की उपजाऊ भूमि को अधिकाधिक सिंचित करना है। विगत काल में यमुना मथुरा-वृन्दाबन में एक विशाल नदी के रूप में प्रवाहित होती थी, किन्तु जवसे इससे नहरें निकाली गयी हैं, तब से इसका जलीय आकार छोटा हो गया है। केवल वर्षा ॠतु में यह अपना पूर्ववर्ती रूप धारण कर लेती है। उस समय मीलों तक इसका पानी फैल जाता है।

मथुरा से आगे यमुना के तट पर बायीं ओर गोकुल और महाबन जैसे धार्मिक स्थल हैं तथा दांये तट पर पहिले औरंगाबाद और उसके बाद फरह जैसे ग्राम हैं। यहाँ तक यमुना के किनारे रेतीले हैं, किन्तु आगे पथरीले और चटटानी किनारे आते हैं, जिससे जल धारा बलखाती हुई मनोरम रूप में प्रवाहित होती है।

सादाबाद तहसील के ग्राम अकोस के पा यमुना मथुरा जिला की सी मा से बाहर निकलती है और फिर कुछ दूर तक मथुरा और आगरा जिलों की सीमा निर्मित करती है। सादाबाद तहसील के मंदौर ग्राम के पास यह आगरा जिला में प्रवेश करती है। वहाँ इसमें करबन और गंभीर नामक नदियां आकर मिलती हैं।

आगरा जिले में प्रवेश करने पर नगला अकोस के पास इसके पानी से निर्मित कीठम झील है, जो सैलानियों के लिये बड़ी आकर्षक है। कीठम से रुनकता तक यमुना के किनारे एक संरक्षित बनखंड का निर्माण किया गया है, जो 'सूरदास बन' कहलाता है। रुनकता के समीप ही यमुना तट पर 'गोघात' का

वह प्राचीन धार्मिक स्थल है, जहाँ महात्मा सूरदास १२ वर्षों तक निवास किया था और जहाँ उन्होंने महाप्रभु बल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी।

यमुना के तटवर्ती स्थानों में दिल्ली के बाद सर्वाधिक बड़ा नगर आगरा ही है। यह एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक, व्यापारिक एंव पर्यटन स्थल है, जो मुगल सम्राटों की राजधानी भी रह चुका है। यह यमुना तट से काफी ऊँचाई पर बसा हुआ है। यहाँ पर भी यमुना पर दो पुल निर्मित हैं। आगरा में यमुना तट पर जो इमारतें है, मुगल बादशाहों द्वारा निर्मित किला और ताज महल पर्यटकों के निमित्त अत्याधिक प्रसिद्ध हैं।

आगरा नगर से आगे यमुना के एक ओर फिरोजाबाद और दूसरी ओर फतेहबाद जिला और तहसील स्थित है। उनके बाद बटेश्वर का सुप्रसिद्ध धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल आता है, जहाँ ब्रज की सांस्कृतिक सीमा समाप्त होती है। बटेश्वर का प्राचीन नाम 'सौरपुर' है, जो भगवान श्री कृष्ण के पितामह शूर की राजधानी थी। यहाँ पर यमुना ने बल खाते हुए बड़ा मोड़ लिया है, जिससे बटेश्वर एक द्वीप के समान ज्ञात होता है। इस स्थान पर कार्तिक पूर्णमा को यमुना स्नान का एक बड़ा मेला लगता है।

बटेश्वर से आगे इटावा एक नगर के रूप में यमुना तट पर वसा हुआ है। यह भी आगरा और बटेश्वर की भाँति भँचाई पर बसा हुआ है। यमुना के तट पर जितने ऊँचे, कगार आगरा और इटावा जिलों में हैं, उतने मैदान में अन्यत्र नहीं हैं। इटावा से आगे मध्य प्रदेश की प्रसिद्ध नदी चम्बल यमुना में आकर मिलती है, जिससे इसका आकार विस्तीर्ण हो जाता है, अपने उद्गम से लेकर चम्बल के संगम तक यमुना नदी, गंगा नदी के समानान्तर बहती है। इसके आगे उन दोनों के बीच के अन्तर कम होता जाता है और अन्त में प्रयाग में जाकर वे दोनों संगम बनाकर मिश्रित हो जाती हैं।

चम्बल के पश्चात यमुना नदी में मिलने वाली नदियों में सेंगर, छोटी सिन्ध, बतवा और केन उल्लेखनीय हैं। इटावा के पश्चात यमुना के तटवर्ती नगरों में काल्पी, हमीर पुर और प्रयाग मुख्य है। प्रयाग में यमुना एक विशाल नद के रूप में प्रस्तुत होती है और वहां के प्रसिद्ध ऐतिहासिक किले के नीचे गंगा में मिल जाती है। प्रयाग में यमुना पर एक विशाल पुल निर्मित किया गया है, जो दो मंजिला है। यह उत्तर प्रदेश का विशालतम सेतु माना जाता है। यमुना और गंगा के संगम के कारण ही, प्रयाग को तीर्थराज का महत्व प्राप्त हुआ है। यमुना नदी की कुल लम्बाई उद्गम से लेकर प्रयाग संगम तक लगभग ८६० मील है।

ब्रज की अन्य नदियाँ[संपादित करें]

ब्रज मंडल में यमुना के अतिरिक्त कोई दूसरी स्वतंत्र नदी नहीं है। यहां पर यमुना की कुछ सहायक नदियाँ अवश्य वहती हैं, जिनमें पटबाह, सेंगर, करबन, सिरसा बांन गंगा और गंभीर के नाम उल्लेखनीय हैं।

पटवाह[संपादित करें]

यह एक छोटी वरसाती नदी है, जो मेरठ जिला से निकल कर अलीगढ़ जिला की खैर एवं मथुरा जिला की भाँट तहसीलों में बहती है। इसके तट का एक मात्र उल्लेखनीय ग्राम बाजना है, जहाँ से आगे यह नौहझील के निकट यमुना में मिल जाती है। इससे भाँट तहसील की भूमि को सिंचित किया जाता है।

करबन[संपादित करें]

इसे कारों भी कहते हैं। यह भी एक प्रकार से एक बरसाती नदी है, जो गर्मी में प्राय सूख जाती है, किन्तु वर्षा ॠतु में इसका आकार बहुत बड़ जाता है। यह बुलंदशहर की खुरजा तहसील से आकर हाथरस जिला सहित उसकी खैर और इगलास तहसीलों में बहती है फिर हाथरस जिला की ही सादाबाद तहसील से होकर आगरा जिला की एत्मादपुर तहसीलों में प्रवाहित होती है। उसके बाद यह नदी आगरा नगर से कुछ आगे यमुना में मिल जाती है इससे ब्रज की कई तहसीलों की कृषि भूमि सिंचित होती है। इसके तटवर्ती ग्रामों और कस्बों में चंदौस खैर और इगलास उल्लेखनीय है।

सेंगर और सिरसा[संपादित करें]

ये भी यमुना की ही छोटी सहायक नदियां हैं, जो अलीगढ़, हाथरस जिले के सासनी ब्बालाक हाथरस सलेमपुर नगला अबू जलेसर फिरोजाबाद

द और शिकोहाबाद नगर और कस्बों में बहती हैं। इनके तटके समीप बरहद, जलेसर और शिकोहाबाद नामक स्थान बसे हैं।

बांन गंगा और गंभीर[संपादित करें]

ये छोटी नदियाँ राजस्थान के भरतपुर क्षेत्र में तथा आगरा जिला की खैरागढ और फतेहबाद तहसीलों में बहती हैं। इन्हें उटंगन भी कहा जाता है। बांन गंगा भरत पुर क्षेत्र की कई नहरों तथा बाँधो को पानी देकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देती है और गंभी नदी बटेश्वर के उत्तर-पश्चिम में यमुना में मिल जाती है। इसकी सहायक नदी खादी है।

लुप्त नदियाँ[संपादित करें]

उपर्युक्त छोटी बरसाती नदियों के अतिरिक्त यमुना की दो सहायक नदियाँ और थीं, जिनके नाम 'सरस्वती' और 'कृष्णगंगा' कहे जाते हैं। ये दोनों किसी समय में मथुरा के पश्चिमी भाग में प्रवाहित होकर यमुना में मिलती थीं। वर्तमान काल में ये नदियों के रूप में प्रवाहित नहीं होती हैं, किन्तु इनके अवशिष्ट रूप अब भी ब्रज में विधमान हैं। ब्रजमंडल की इन लुप्त नदियों का जो वृत्तान्त उपलब्ध होता है, वह इस प्रकार है -

सरस्वती नदी[संपादित करें]

प्राचीन काल में मथुरा के निकटवर्ती अंबिकाबन में यह नदी प्रवाहित होती थी और यमुना में उस स्थान पर

कृष्ण गंगा नदी[संपादित करें]

प्राचीन काल में श्री कृष्ण के जन्म स्थान के निकटवर्ती भाग में बहकर यमुना में उस स्थान पर मिलती थी, जहाँ आजकल कृष्ण गंगा धाट, धारा पत्तन धाट और धंट भरण धाट है। ये धाट उक्त नदी के नाम तथा कुछ ऊँचाई से यमुना में गिरने के कारण उसके तुमुलधोष के सूचक हैं। इस समय उक्त नदी के अस्तित्व के बजाय एक नाला है, जो बरसात में बहता है। मथुरा नगर के नवीन निर्माण के कारण उसका पुराना मार्ग बदल गया है। अब वह श्री कृष्ण जन्म स्थान, मंडी रामदास और चौक बाजार के बरसाती जल को समेटता हुआ स्वामी धाट के पास यमुना में मिलता है।

तथाकथित गंगाएँ[संपादित करें]

ब्रज में कतिपय बरसाती नदियाँ तथा सरोवरों को भी गंगा कहते हैं, जो उनके निकटवर्ती स्थानों के धार्मिक महत्व का सूचक है। एसे जलाशयों के नाम इस प्रकार हैं -

कृष्ण गंगा (मथुरा), मानसी गंगा (गोबर्धन), अलखगंगा (आदिबदरी कामबन), पांडव गंगा (कामबन), चरण गंगा (चरण पहाड़ी छोटी बठैन)

ब्रज के अन्य जल स्रोत[संपादित करें]

ब्रज की झील[संपादित करें]

ब्रज की सीमान्तर्गत कई छोटी-बड़ी झीलें हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं -

नोहझील -

यह मथुरा जिलाकी भाँट तहसील के अन्तर्गत इसीनाम के ग्राम के समीप स्थित है

मोती झील

यह भी भाँट तहसील में भाँट ग्राम के पास स्थित है। यह अब यमुना नदी की धारा में समा गई है।

कीठम झील

यह दिल्ली आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग सख्या-२ पर रुनकुता नामक ग्राम के समीप स्थित है। ब्रज की यह सरम्य स्थली सैलानियों के लिये आकर्षण का भी केन्द्र है।

मोती झील (दूसरी)

यह भरतपुर के समीप का जलाशय है, जो वहाँ की रुपारेल नामक छोटी नदी के पानी से भरा जाता है।

केवला झील

यह अत्यन्त सुंदर झील भरतपुर के समीप है, जो अजान बंध के जल से भरी जाती है। शरद ॠतु में इस झील के किनारे देश-विदेश के अगणित जल पक्षी विहार करने हेतु पहुँचते हैं। सैलानी उन पक्षियों को देखने के लिए यहां आते हैं।

मोती झील

यह वृन्दाबन रमणरेती में स्वामी अखंडानंद आश्रम का एक जलाशय है। यह कफी गहरा है और इसके फर्स सहित चारों ओर से पक्का है। इसमें उतरने के लिये चारों ओ सीड़िया निर्मित हैं, जो पस्तर की हैं। इसमें वर्षा के जल को संचित कर लिया जाता है, किन्तु वर्तमान समय में अल्प वर्षा के कारण खाली रह जाती है और इसमें जो अल्प जल रहता भी है तो वह वहुत पवित्र नहीं है।

ब्रज की सरोवरें[संपादित करें]

कवि जगतनंद के अनुसार चार सरोवर हैं जिनके नाम हैं - पान सरोवर, मान सरोवर, चंद्र सरोवर और प्रेम सरोवर।

पान सरोवर

ब्रज के नंदगाँव का यह एक छोटा जलाशय है। १

मानसरोवर

वृन्दावन के समीप यमुना के उस पार है। यह हित हरिवंश जी का प्रिय स्थल है यहाँ फाल्गुन में कृष्ण पक्ष ११ को मेला लगता है।

चन्द्र सरोवर

यह गोबर्धन के समीप पारासौली ग्राम में स्थित है। इसके समीप बल्लभ सम्प्रदायी आचार्यो द्वारा वैठकें आयोजित की जाती थीं और यह सूरदास जी का निवास स्थल है।

प्रेम सरोवर

यह वरसाना के समीप है। इसके तट के समीप एक मंदिर है। भाद्रपद मास में इस सरोवर पर नौका लीला का आयोजन और मेला होता है।

कुंड[संपादित करें]

ब्रज में अनेक कुंड हैं, जिनका अत्यन्त धार्मिक महत्व है। आजकल इनमें से अधिकांश जीर्ण-शीर्ण और अरक्षित अवस्था में हैं, जो प्राय सूखे और सफाई के अभाव में गंदे पड़े हैं। इनके जीर्णोद्धर और संरक्षण की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि इन कुंडों के माध्यम से भूगर्भीय जल स्तर की बड़ोतरी होती है साथ-ही-साथ भूगर्भीय जल की शुद्धता और पेयशीलता बड़ती है। कवि जगतनंद के अनुसार ब्रज में पुराने कुंडों की सख्या १५९ है तथा बहुत से नये कुंड भी हैं। उन्होंने लिखा है पुराने १५९ कुंडों में से ८४ तो केबल कामबन में हैं शेष ७५ ब्रज के अन्य स्थानों में स्थित है। १

१. उनसठ ऊपर एकसौ, सिगरे ब्रज में कुंड। चौरासी कामा लाखौ, पतहत्तर ब्रज झुँड।। औरहि कुंड अनेक है, ते सब नूतन जान। कुंड पुरातन एकसौ उनसठ ऊपर मान।। (ब्रजवस्तु वर्णन)

ताल[संपादित करें]

ब्रज में बहुत से तलाब हैं जो काफी प्रसिद्ध हैं। कवि जगतनंद ने केवल दो तलाबों - रामताल और मुखारीताल का वर्णन प्रस्तुत किया है। १ इनके अतरिक्त भी बहुत से तालाब हैं, जिनमें मथुरा का शिवताल प्रसिद्ध है।

१. दोइ ताल ब्रज बीच हैं, रामताल लखिलेहु। और मुखारी ताल है, 'जगतनंद' करि नेहु।। (ब्रजवस्तु वर्णन)

पोखर[संपादित करें]

ब्रज में अनेकों पोखर अथवा वरसाती कुंड हैं। कवि जगतनंद ने उनमें से ६ का नामोल्लेख किया है वे पोखर हैं -

(१) कुसुमोखर (गोबर्धन) (२) हरजी ग्वाल की पोखर (जतीपुरा) (३) अंजनोखर (अंजनौ गाँव) (४) पीरी पोखर और (५) भानोखर बरसाना तथा ईसुरा जाट की पोखर (नंदगाँव) है। १ उनमें कुसुम सरोवर को ब्रज के जाट राजाओं ने पक्के विशाल कुंड के रूप में निर्मित कराया था।

बावडी[संपादित करें]

इनका प्रयोग ब्रज प्रजा पेय जल के प्राप्त करने के लिये करती थी। ब्रज में अभी भी कई प्रसिद्ध और सुन्दर बावड़ी है, किन्तु ये जीर्ण अवस्था में पड़ी है। इनमें मुख्य निम्न वत हैं - ज्ञानवापी (कृष्ण जन्मस्थान, मथुरा), अमृतवापी (दुर्वासा आश्रम, मथुरा), ब्रम्ह बावड़ी (बच्छ बन), राधा बावड़ी (वृन्दाबन) और कात्यायिनी बावड़ी (चीरधाट) हैं।

कूप[संपादित करें]

ब्रज में वहुसख्यक कूप हैं जिनका उपयोग आज भी ब्रजवासी पेय जल प्राप्त करने के लिये करते हैं। ब्रज मंडल के अधिकांश ग्रामों की आवसीय परिशर में भूगर्भीय जल खारी है अथवा पीने के लिये अन उपयोगी है। अतः इस संदर्भ में कहावत प्रचलित कि भगवान कृष्ण ने बचपन की सरारतों के चलते ब्रज के ग्रामों की आवसीय परिशर के भू-गर्भीय जल को इस लिये खारी (क्षारीय) और पीने के लिये अन उपयोगी बना दिया ताकि ब्रज गोपियाँ अपनी गागर लेकर ग्राम से बाहर दैनिक पेय जल लेने के लिये निकले और कृष्ण उनके साथ सरारत करें, उनकी गागरों को तोड़ें और उनके साथ लीला करें। आज भी ब्रज ग्रामीण नारियों को सिर पर मटका रख ग्राम से बाहर से जल लाते हुए समुहों के रूप में ग्राम बाहर के पनधट और कूपों पर देखा जा सकता है। पेय जल के साथ-साथ इन कूपों का ब्रज में धार्मिक महत्व भी है। कवि जगतनंद के समय में १० कूप अपनी धार्मिक महत्ता के निमित्त प्रसिद्ध थे। इनके नाम इस प्रकार वर्णित हैं -

(१) सप्त समुद्री कूप, (२) कृष्ण कूप, (३) कुब्जा कूप (मथुरा), (४) नंद कूप (गोकुल और महाबन), (५) चन्द्र कूप (चन्द्र सरोवर गोबर्धन), (६) गोप कूप (राधा कुंड), (७) इन्द्र कूप (इंदरौली गाँव-कामबन), (८) भांडीर कूप (भाडीर बन), (९) कर्णवेध कूप (करनाबल) और वेणु कूप (चरण पहाड़ी कामबन) १