दण्डी

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दण्डी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। इनके जीवन के सम्बन्ध में प्रामाणिक सूचनाओं का अभाव है। कुछ विद्वान इन्हें सातवीं शती के उत्तरार्ध या आठवीं शती के प्रारम्भ का मानते हैं तो कुछ विद्वान इनका जन्म 550 और 650 ई॰ के मध्य मानते हैं।

परिचय[संपादित करें]

दण्डी कब हुए और इनकी रचनाएँ कौन कौन सी हैं, यह प्रश्न अब भी विवादास्पद है। उनका जीवनवृत्त भी विशेष ज्ञात नहीं है। दक्षिण भारत में उपलब्ध 'अवन्तिसुन्दरी कथा' और 'अवन्तिसुन्दरी कथासार' -- इन दोनों के आधार पर उनके जीवन के विषय में इतना ही (नए और प्रामाणिक पाठ के अनुसार) ज्ञात हो सका है कि दण्डी के प्रपितामह दामोदर पंडित थे। भट्ट ब्राह्मण थे। वे कदाचित्‌ भारवि के मित्र थे। उन्हीं की सहायता से चालुक्यवंशी राजा विष्णुवर्धन के निकट पहुँच सके। भारवि की चौथी पीढ़ी में दण्डी का जन्म हुआ था। कांचीनरेश के आश्रय में इनका जीवन व्यतीत हुआ। कन्नड भाषा के अलंकारग्रन्थ 'कवराजमार्ग' (815 ईo के आस पास) पर दण्डी के 'काव्यादर्श' का यथेष्ट प्रभाव देखकर तथा सिंहली के अलंकारग्रन्थ 'सीय-बस-लकर' (846-866 ई॰) को काव्यादर्श के आधारपर निर्मित पाकर इतना निश्चित है कि नवीं शताब्दी से पूर्व दण्डी वर्तमान थे। इस प्रकार 'लक्ष्म लक्ष्मीं तनोतीति' इस उद्धरण के कालिदास के एक प्रसिद्ध पद्यांश पर आश्रित होने से दण्डी का काल असंदिग्ध रूप से कालिदास के पश्चात्‌ ठहरता है। प्रोo पाठक के मत से काव्यादर्श का हेतुविषयक विभाग -- भर्तृहरि (650 ईo) के आधार पर होने से काव्यादर्श की रचना 650 ईo के बाद हुई होगी। काव्यादर्शोक्त राजवर्मा (रन्तिवर्मा) को नरसिंहवर्मा द्वितीय का विरुद या उपनाम माननेवालों के अनुसर दण्डी का समय सातवीं शती का उत्तरार्ध और आठवीं का आरम्भ माना जा सकता है। यदि 'काव्यादर्श' के एक श्लोक पर कादम्बरी के शुकनासोपदेश का प्रभाव स्वीकार किया जाय तो उनका काल -- बाणभट्ट के भी अनन्तर होता है। अवन्तिसुन्दरी कथासार को दण्डी की कृति माननेवालों के मत से भी उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है। परन्तु कुछ विद्वान दण्डी को सुबन्धु से पूर्व और कुछ लोग उन्हें बाणभट्ट का भी पूर्ववर्ती मानते हैं। द्वितीय मत वालों के अनुसार सुबन्धु, दण्डी और बाण -- तीनों ही 550 ईo और 650 ईo के बीच उत्पन्न हुए थे। इन लोगों के मत से 'अवन्तिसुन्दरी कथा' या 'कथासार' को (दृढ़ प्रमाणाभाव के कारण) दण्डीकृत मानने में आपत्ति हैं

रचनाएँ[संपादित करें]

किंवदन्ती और सुभाषित के अनुसार दण्डी की तीन रचनाएँ विश्रुत बताई गई हैं। प्रथम रचना 'काव्यादर्श' और दूसरी है 'दशकुमारचरित'। अधिकतर विद्वानों ने यह मान लिया है, परन्तु कुछ अन्य विद्वान्‌ -- इन दोनों को एक साहित्यकार की न मानकर दण्डी नाम के दो भिन्न व्यक्तियों की रचना होने का अनुमान करते हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि काव्यशास्त्र के जिन मान्य सिद्धान्तों का 'काव्यादर्श' में प्रतिपादन और निर्देश मिलता है, 'दशकुमारचरित' में उसकी असंगति और विरोध दिखाई देता है। अत: आचार्य और काव्यकार के सिद्धान्त और व्यवहार की असंगति एक नहीं दो भिन्न कृतिकारों का संकेत करती है। परन्तु अधिकतर विद्वानों के अनुसार उक्त असंगति का कारण यह मान लिया गया है कि अपने साहित्यिक जीवन के आरम्भकाल में महाकवि ने 'दशकुमारचरित' की रचना की थी। 'काव्यादर्श' उस प्रौढ़ावस्था की रचना है जब दण्डी का शास्त्रीय वैदुष्य परिपक्व हो गया था। अत: इन दोनों कृतियों को दण्डी रचित मानने में अधिकतर विद्वानों को कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। परन्तु तीसरी कृति का निर्धारण अब तक विवादास्पद है। 'पिरोल' के मत से शूद्रकरचित कहा जानेवाला 'मृच्छकटिक' ही दंडी की तृतीय रचना है। इसका एक आधार 'काव्यादर्श' में बिना किसी नाम के 'मृच्छकटिक' की एक पंक्ति का उद्धरण है। दूसरा कारण है -- 'मृच्छकटिक' और 'दशकुमारचरित' दोनों में चित्रित समाज एवं उनके पात्रों के चरित्रचित्रण में अत्यधिक साम्य। प्रथम कारण कोई महत्वपूर्ण कारण नहीं है। दूसरा केवल इतना ही सूचित करता है कि दोनों ही कृतियाँ प्राय: समकालीन समाज के युगबोध का यथार्थोंन्मुख और जीवंत चित्रण करने में प्रयत्नशील हैं। 'मल्लिकामारुत' भी कभी कभी दण्डीकृत कहा जाता है। पर वह 15वीं सदी के 'उदण्ड रंगनाथ' की कृति है। 'अवंतिसुंदरीकथा' को (जो अपूर्ण गद्यकाव्य है) अब अनेक विद्वान्‌ 'दशकुमारचरित' की कथाओं के साम्य पर दण्डी की तृतीय रचना मानने लगे हैं।

दोनों गद्यकाव्यों की शैलीगत भिन्नता को देखकर कुछ पण्डितों ने उसके दण्डीकृत होने में आपत्ति की है। पर अन्य विद्वान्‌ युवावस्था की शैली में 'दशकुमारचरित' को विरचित और प्रौढ़ावस्था की परिपक्व शैली में 'अवन्तिसुन्दरीकथा' का निर्माण मानकर इसे भी (अवन्तिसुन्दरीकथासार के प्रमाण पर) असंदिग्ध रूप में दण्डी की तृतीय रचना स्वीकार करते हैं। कुछ लोग -- 'अवन्तिसुन्दरीकथा' को 'दशकुमार चरित्‌' की खोई हुई पूर्व पीठिका मानने लगे हैं। 'दशकुमारचरित' संस्कृत के तीन प्रसिद्ध (वासवदत्ता, कादम्बरी और दशकुमार चरित) गद्यकाव्यों में एक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध कृति है। वह काव्य की कथाशैली में लिखित है। 'महाभाष्य' और प्राचीन उपनिषदों की सहज गद्यशैली, (पंचतन्त्र) 'हितोपदेश' आदि की नीतिसाहित्यवाली सुबोध और व्यावहारिक गद्यशैली की तुलना में दशकुमारचरित की भाषाशैली अधिक साहित्यिक और काव्यात्मक है। परन्तु सुबन्धु और बाण की अलंकृत एवं कलात्मक गद्यशैली से यह भिन्न है। कथामूलक अलंकृत शैली के चमत्कार की परिपक्वता यद्यपि सुबन्धु में प्रौढ़ और बाण में प्रौढ़तर है, तथापि उन दोनों में वर्ण्य वस्तु और पात्रों का चरित्रांकन 'दशकुमारचरित' की अपेक्षा धूमिल है। कलामूलक आदर्शवादिता ने 'वासवदत्ता' और 'कादभ्बरी' की शैली को यथार्थोन्मुख परिवेश से दूर हटाकर कुछ कृत्रिम बना दिया है। पर दण्डी की गद्यकाव्यशैली में उस 'अति' और सायासता का प्रभाव सीमातिक्रामी नहीं है।

दशकुमारचरित[संपादित करें]

'दशकुमारचरित' पर सम्भवत: पैशाची भाषावाली गुणाढ्य की बृहत्कथा (बड्ढकहा) का प्रभाव पड़ा है। सम्भवत: इसी कारण 'दशकुमारचरित' पर लोककथाओं की कथारूढ़ियों का भी प्रभाव पड़ा है। कहानी में दूसरी, तीसरी आदि की शृंखला को जोड़ने का रचनाविधान भी यहाँ लक्षित होता है। इसमें सातवीं आठवीं शताब्दी के समाज की दुर्बलताओं और सबलताओं, उस काल के संकुचित और स्वार्थपरक राजनीतिक संघर्षों, नाना वर्ग के व्यक्तियों की कामार्थमूलक कमजोरियों एवं तद्युगीन समाज की अन्धरूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा सैद्धान्तिक और व्यावहारिक वैषम्यों का अत्यन्त जीवन्त चित्रण मिलता है।

विभिन्न श्रेणियों और वर्गों के व्यक्तिमाध्यम से किए गए वर्गपरक चरित्रचित्रण में तत्कालीन समाज की सजीव झाँकी दिखाई पड़ती है। कुल मिलाकर युगविशेष के यथार्थ जीवन का कवि ने पर्याप्त अंकन किया है। इस ग्रन्थ की पूर्वपीठिका के पाँच उच्छ्वास और उत्तर पीठिका के अंश को प्राय: सभी विद्वान दण्डी रचित नहीं मानते। उनहें अन्य लेखकों द्वारा लिखित स्वीकार करते हैं। पूर्वपीठिका और उत्तरपीठिका की अभिव्यक्तिशैली मध्य के आठ उच्छ्‌वासों से भिन्न (अधिक अलंकृत और कलात्मक चमत्कार से अधिक गुंफित) है। दोनों में मान्यताविष्यक वर्ण्यमान्यता भी भिन्न भिन्न दृष्टियों का संकेत करती है। हो सकता है, इसके आरंभिक और अंतिम अंश नष्ट भ्रष्ट हो गए हों, परन्तु निश्चय ही दण्डीलिखित दोनों पीठिकाओं के मध्य का अंश उपक्रम और उपसंहार से रहित है। यह भी कहा जाता है कि इस ग्रन्थ रचना की योजना, जो दण्डी के मन में थी, पैशाची की 'बृहत्कथा' की अनुगामिनी थी। उसमें लोककथाओं का विशाल संग्रह करने का विचार भले ही रहा हो, पर वह (सम्भवत:) अपूर्ण रह गई। कुछ लोग इस ग्रन्थ को नीतिविषयक या उपदेशार्थ रचित मानते हैं। परन्तु इसकी रचना मुख्यत: काव्यात्मक है और सौन्दर्यबोध के आस्वादनार्थ ही हुई है। इसमें कहीं-कहीं जो अश्लीलता दोष बताया जाता है वह थोड़ा बहुत वैसा ही है जैसा 'कुमारसंभव', नैषधचरित', 'शिशुपाल वध' या 'किरातार्जुनीयम्' में। दंडी द्वारा 'दशकुमारचरित' में प्रयुक्त शब्द संख्या 'कादंबरी' या 'वासवदत्ता' में प्रयुक्त शब्दों की अपेक्षा अधिक बताई जाती है। इन तथा अन्य कारणों से संस्कृत के गद्यकाव्यकारों में दण्डी का स्थान विशिष्ट है।

काव्यादर्श[संपादित करें]

काव्यादर्श दण्डी की ऐसी रचना है जो काव्यशास्त्र के विचार से विशेष महत्व की है। दृश्यकाव्य सम्बन्धी 'नाट्यशास्त्र' के अनन्तर केवल 'भामह' ही दंडी से प्राचीनतर ऐसे आलंकारिक हैं जिनका ग्रंथ अद्यावधि उपलब्ध है। परन्तु उनकी कृति 'काव्यालंकार' की अपेक्षा दण्डी का 'काव्यादर्श' अधिक प्रौढ़, अधिक व्यापक और अधिक व्यवस्थित है। उसने परवर्ती अनेक आलंकारिकों के ग्रन्थों और उनकी रचनाशैली को प्रभावित किया है।

अवन्तिसुन्दरीकथा[संपादित करें]

'अवंतिसुंदरीकथा' भी एक प्रौढ़ गद्यकाव्य है। परन्तु उसके कृतित्व के विवादास्पद और ग्रन्थ के अपूर्ण होने में यहाँ विशेष कुछ न कहकर इतना ही कहना पर्यापत है कि वह एक प्रौढ़ गद्यकाव्य है। यह भी हो सकता है कि 'दशकुमारचरित' की वह पूर्वपीठिका रही हो। सब मिलाकर दण्डी को हम उत्कृष्ट काव्यकार और तद्युगीन शास्त्रबोध की दृष्टि से उच्च कोटि का आलंकारिक कह सकते हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]