खनि भौमिकी

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खनि भौमिकी (Mining Geology) भूविज्ञान का वह अंग है जो खनन के उन सभी पहलुओं का विशेष अध्ययन करता है जिनसे एक अयस्क, या खनिज निक्षेप, पूर्ण विकसित खान में परिवर्तित हो जाए।

परिचय[संपादित करें]

आज, चाहे वह कोई सरकारी भूतात्विक संस्था हो अथवा निजी खनन व्यापार, हर जगह खनन भूवैज्ञानिक की आवश्यकता अनुभव की जाती है। इस प्रकार खनन भूविज्ञान की देन खनन क्षेत्र में सर्वमान्य है। किसी भी क्षेत्र में संभावनाओं का ज्ञान प्राप्त करने तथा बाद में वास्तविक खनन प्रारंभ करने के पूर्व खनन भूवैज्ञानिक को इन क्षेत्रों का निरीक्षण करने के लिए भेजा जाता है। सर्वप्रथम वह ऐसे क्षेत्रों की चुनता है जिनका आर्थिक दृष्टि से विकास होने की संभावना हो। इसके पश्चात्‌ वह इन निक्षेपों का भूवैज्ञानिक तथा आर्थिक दृष्टि से अध्ययन करता है और इस तथ्य पर विशेष ध्यान देता है कि निक्षेप वाणिज्य स्तर पर उपयोगी होगा या नहीं। यहाँ पर खनन भूविज्ञान में आर्थिक भूविज्ञान का समावेश होता है। इस स्थिति में अनेक छोटे मोटे निक्षेपों को त्याग दिया जाता है तथा विशाल एवं उत्तम निक्षेपों का अध्ययन सावधानी तथा विस्तार से किया जाता है।

आर्थिक दृष्टि से उन्नत हो सकने योग्य निक्षेपों को विकसित करने के लिए भूवैज्ञानिक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इन क्षेत्रों के मानचित्र बड़े पैमान पर जैसे 1=100 फुट अथवा 1=500 फुट पर, बनाए जाते हैं। खनन प्रारंभ करने के लिये उपयुक्त क्षेत्र चुनकर वेधन कार्य के लिए योजनाएँ बना ली जाती हैं। वेधन से निक्षेपों के विस्तार तथा उनकी मोटाई का भी अनुमान हो जाता है। विभिन्न मुख्य आँकड़ों का संकलन भी इससे संपन्न होता है, जैसे निक्षेप के भिन्न भिन्न भागों में अयस्क का संक्रेद्रण, उसका औसत मूल्यांकन तथा संभाव्य भंडार। कई बार खनन वैज्ञानिक को भू-भौतिक-विधियों का भी सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार चुंबकीय, वैद्युतिक, भ्वाकृष्टि, भूकंपीय तथा रेडियो सक्रिय साधन बड़े सहायक सिद्ध हुए हैं। भूतात्विक संरचनाओं का भी विस्तृत अध्ययन किया जाता है, क्योंकि इससे खनिजों के संरचनात्मक प्रतिबंधीकरण के संबंध में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य सामने आते है। खनन भूविज्ञान को समृद्ध करने में भूरसायन का भी प्रमुख सहयोग रहा है। इसकी सहायता से भूवैज्ञानिक को शिलाओं की रासायनिक तथा खनिज रचना, शिलापरिवर्तन, सूक्ष्मोपलब्ध तत्व (Trace elements) तथा खनिजों के निर्माण की आधारिक विधियों आदि का ज्ञान होता है। भूवैज्ञानिक को सूक्ष्मदर्शक यंत्र, भारी खनिज विश्लेषण, शिलातांत्रिक अध्ययन तथा शिलाविज्ञान से भी बड़ी सहायता मिलती है।

इन सारे अध्ययनों के साथ साथ खनन-भूवैज्ञानिक उपयोगी मानचित्र काटचित्र तथा ब्लॉक चित्र तैयार करता है। सारे तथ्यों के आधार पर विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत होता है; जिससे खनन की कार्यपद्धति तथा भविष्य के लिये कार्यक्रमों की रूपरेखा का भी संकेत रहता है। खनन कार्य प्रारंभ हो जाने के पश्चात्‌ भूवैज्ञानिक अनवरत रूप से नवीन संभावनाओं का अध्ययन करता रहता है, जिसमें खान के उत्पादन में कमी न हो पाए और नवीन स्रोत सामने आते रहें। वास्तव में खनन के समय ही भूवैज्ञानिक के अनुमान का मूल्यांकन होता है तथा जैसे जैसे खनन कार्य उन्नत होता जाता है, नवीन रहस्य खुलते जाते हैं, जिससे आगे के काम में निरंतर सहायता मिलती है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]