अप्रमा

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प्रमा से विपरीत अनुभव को 'अप्रमा' कहते हैं अर्थात्‌ किसी वस्तु में किसी गुण का अनुभव जिसमें वह गुण विद्यमान ही नहीं रहता। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द, प्रमा के अन्तर्गत आते हिं जबकि स्मृति, संशय, भ्रम तथा तर्क अप्रमा के अन्तर्गत। भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदाय भ्रम के लिये 'ख्याति', 'भ्रान्ति', 'अविद्या', 'अध्यास', 'मिथ्याज्ञान', 'विभ्रम', 'अयथार्थ ज्ञान' तथा 'विवेकाग्रह, 'अवभास' आदि-आदि नामों का प्रयोग करते हैं। [1]

न्यायमत में ज्ञान दो प्रकार का होता है। संस्कार मात्र से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान 'स्मृति' कहलाता है तथा स्मृति से भिन्न ज्ञान 'अनुभव' कहा जाता हैं। यह 'अनुभव' दो प्रकार का होता है- यथार्थ अनुभव तथा अयथार्थ अनुभव। जो वस्तु जैसी हो उसका उसी रूप में अनुभव होना यथार्थ अनुभव है (यथाभूतोऽर्थो यस्मिन्‌ सः)। घट का घट रूप में अनुभव होना यथार्थ कहलाएगा। यथार्थ अनुभव की ही दूसरा नाम 'प्रमा' हैं।

तद्वति तत्प्रकारकानुभवः प्रमा ( अन्नम्भट्ट )
(अर्थात जो वस्तु जैसी हो उसको उसी प्रकार की ही जानना प्रमा है।)

'अयं घटः' (यह घड़ा है) इस प्रमा में हमारे अनुभव का विषय है। घट (विशेष्य) जिसमें 'घटत्व' द्वारा सूचित विशेषण की सत्ता वर्तमान रहती है तथा यही घटत्व घट ज्ञान का विशिष्ट चिह्न है। और इसीलिए इसे 'प्रकार' कहते हैं। जब घटत्व से विशिष्ट घट का अनुभव यही होता है कि वह कोई घटत्व से युक्त घट है, तब यह प्रमा होती है- घटत्ववद् घटविशेष्यक-घटत्वप्रकारक अनुभव। प्रमा से विपरीत अनुभव को 'अप्रमा' कहते हैं अर्थात्‌ किसी वस्तु में किसी गुण का अनुभव जिसमें वह गुण विद्यमान ही नहीं रहता। रजत में 'रजतत्व' का ज्ञान अप्रमा है। प्रमा के दृष्टान्त में 'घटत्व' घट का विशेषण है और घट ज्ञान का प्रकार हैं। फलत: 'विशेषण' किसी भैतिक द्रव्य का गुण होता है, परन्तु 'प्रकार' ज्ञान का गुण होता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]