सत्यद्वय

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सत्यद्वय या द्वे सत्ये का सिद्धान्त बौद्ध दर्शन का एक सिद्धान्त है जो दो सत्यों (संवृतिसत्य तथा परमार्थसत्य) के बीच अन्तर करता है।

नागार्जुन के मध्यमकशास्त्रम् (मूलमध्यमककारिका) के आर्यसत्यपरीक्षा नामक २४वें प्रकरण में निम्नलिखित शलोकों में सत्यद्वय का उल्लेख है-

द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना ।
लोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः ॥ २४॥८ ॥
(दो सत्यों को आधार बनाकर बुद्ध ने धर्म का प्रचार किया। (दो सत्य हैं) लोकसंवृतिसत्य तथा परमार्थसत्य।)
येऽनयोर्न विजानन्ति विभागं सत्ययोर्द्वयोः ।
ते तत्त्वं न विजानन्ति गम्भीरं बुद्धशासने ॥ २४॥९ ॥
( जो लोग सत्य के इन दो विभागों को नहीं जानते, वे बुद्ध की शिक्षाओं के गहन सत्य को नहीं समझते।)
व्यवहारम् अनाश्रित्य परमार्थो न देश्यते ।
परमार्थम् अनागम्य निर्वाणं नाधिगम्यते ॥ २४॥१० ॥
(परमार्थसत्य का उपदेश व्यवहार का आश्रय लिये बिना नहीं किया जा सकता। परमार्थ सत्य से प्रबुद्ध हुए बिना कोई निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता।)
विनाशयति दुर्दृष्ता शून्यता मन्दमेधसम् ।
सर्पो यथा दुर्गृहीतो विद्या वा दुष्प्रसाधिता ॥ २४॥११ ॥
(दुर्दृष्ता शून्यता मन्दबुद्धि वाले लोगों का विनाश उसी तरह कर देती है जिस प्रकार से गलत तरीके से पकड़ा गया साँप या दुष्प्रसाधित विद्या।)
अतश्च प्रत्युदावृत्तं चित्तं देशयितुं मुनेः ।
धर्मं मत्वास्य धर्मस्य मन्दैर्दुरवगाहताम् ॥ २४॥१२ ॥
(इसलिए, इस धर्म की मन्द बुद्धि वालों के लिये कठिनाई से ग्रहण करने योग्य जानकर ही मुनि (बुद्ध) धर्म का प्रचार करने की इच्छा से पीछे हट गये थे।)

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]