इस लेख को तटस्थता जाँच हेतु नामित किया गया है। इसके बारे में चर्चा वार्ता पृष्ठ पर पाई जा सकती है।(अगस्त 2012)
इस लेख या भाग की विश्वसनीयता पर संदेह है। यह शक है कि इसके कुछ भाग या पूरा लेख शायद धोखा है। कृपया इस लेख या भाग में दिये तथ्यों के लिये विश्वसनीय स्रोत जोड़ें, या अपने विचार वार्ता पृष्ठ पर छोड़ें। यदि लेख साफ़ धोखा हो तो इसे शीघ्र हटाने के लिये नामांकित करने हेतु {{शीह-व4}} साँचे का प्रयोग करें।(अगस्त 2012)
इस लेख को व्याकरण, शैली, संसंजन, लहजे अथवा वर्तनी के लिए प्रतिलिपि सम्पादन की आवश्यकता हो सकती है। आप इसे संपादित करके मदद कर सकते हैं। (अगस्त 2012)
ऐसे अनेक तथ्य हैं जो इंगित करते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ प्रदेश की प्राचीनता रामायण युग को स्पर्श करती है। उस काल में दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध यह वनाच्छादित प्रान्त आर्य-संस्कृति का प्रचार केन्द्र था। यहाँ के एकान्त वनों में ऋषि-मुनि आश्रम बना कर रहते और तपस्या करते थे। इनमें वाल्मीकि, अत्रि, अगस्त्य, सुतीक्ष्ण प्रमुख थे इसीलिये दण्डकारण्य में प्रवेश करते ही राम इन सबके आश्रमों में गये। राम के काल में भी कौशल राज्य उत्तर कौशल और दक्षिण कौशल में विभाजित था। कालिदास के रघुवंशकाव्य में उल्लेख है कि राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। यदि शरावती और श्रावस्ती को एक मान लिया जाये तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश दक्षिण कौशल के शासक बने। सम्भवतः उनकी राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी, शायद कोसला ग्राम ही उस काल की कुशावती थी। यदि कोसला को राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि मान लिया जावे तो भी किसी प्रकार की विसंगति प्रतीत नहीं होती। रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिये विन्ध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कौशल में ही था। उपर्युक्त सभी उद्धरणों से स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ आदिकाल से ही ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों का पावन तपोस्थल रहा है।
प्रतीत होता है कि छोटा नागपुर से लेकर बस्तर तथा कटक से ले कर सतारा तक के बिखरे हुये राजवंशों को संगठित कर राम ने वानर सेना बनाई हो। आर.पी. व्हान्स एग्न्यू लिखते हैं, "सामान्य रूप से इस विश्वास की परम्परा चली आ रही है कि रतनपुर के राजा इतने प्राचीनतम काल से शासन करते चले आ रहे हैं कि उनका सम्बन्ध हिन्दू 'माइथॉलाजी' (पौराणिक कथाओं) में वर्णित पशु कथाओं (fables) से है। (चारों महान राजवंश) सतारा के नरपति, कटक के गजपति, बस्तर के रथपति और रतनपुर के अश्वपति हैं" (A Reeport on the Suba or Province of Chhattisgarh - written in 1820)। अश्व और हैहय पर्यायवाची हैं। श्री एग्न्यू का मत है कि कालान्तर में 'अश्वपति' ही हैहय वंशी हो गये। इससे स्पष्ट है कि इन चारों राजवंशो का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन है तथा उनके वंशों का नामकरण चतुरंगिनी सेना के अंगों के आधार पर किया गया है। बस्तर के शासकों का 'रथपति' होने के प्रमाण स्वरूप आज भी दशहरे में रथ निकाला जाता है तथा दन्तेश्वरी माता की पूजा की जाती है। यह राम की उस परम्परा का संरक्षण है जब कि दशहरा के दिन राम ने शक्ति की पूजा कर लंका की ओर प्रस्थान किया था। राजाओं की उपाधियों से यह स्पष्ट होता है राम ने छत्तीसगढ़ प्रदेश के तत्कालीन वन्य राजाओं को संगठित किया और चतुरंगिनी सेना का निर्माण कर उन्हें नरपति, गजपति, रथपति और अश्वपति उपाधियाँ प्रदान की। इस प्रकार रामायण काल से ही छत्तीसगढ़ प्रदेश राम का लीला स्थल तथा दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति का केन्द्र बना।
अयोध्या से श्रीलंका तक की 14 साल की यात्रा में श्रीराम ने करीब 10 किमी का सफर तय किया। इस बीच लगभग 248 ऐसे प्रमुख स्थल थे जहां उन्होंने या तो विश्राम किया या फिर उनसे उनका कोई रिश्ता जुड़ा। आज यह स्थान धार्मिक रूप में राम की वन यात्रा के रूप में याद किए जाते हैं।[1]
छत्तीसगढ़ का भगवान राम से काफी करीब का नाता है। माता कौशल्या खुद छत्तीसगढ़ की राजकुमारी थी, वहीं भगवान राम ने भी अपने वनवास के दौरान काफी वक्त छत्तीसगढ़ में गुजारा। आज भी छ्त्तीसगढ़ में पौराणिक, धार्मिक व ऐतिहासिक मान्यताओं के आधार कई ऐसे स्थान मिल जाएंगे, जिन्हें भगवान राम से जोड़कर देखा जाता है। रामवनगमन पथ में इस सभी स्थानों को सरकार जोड़ने का प्रयास कर रही है।[2]